Post – 2017-10-12

इतिहास का वर्तमान (४)
आमुख का एक अंश

फेसबुक पर लेखन समकालीन घटनाओं और संचार माध्यमों में व्यक्त विचारों से प्रेरित या प्रभावित होता रहता है। मेरा अपना लेखन भी इसका अपवाद नहीं है। प्रयास यह अवश्य होता है कि समसामयिक समस्या पर विचार करते समय पूर्वाग्रह, आवेग, आवेश और आक्रोश से काम न लूं। इसका एक ही उपाय है – तर्क और प्रमाण सामने आएं, निष्कर्ष उनका ही स्वाभाविक प्रतिफलन हो।

इसके कारण मैं सोनिया-नियंत्रित कांग्रेस को कैथोलिक साम्राज्य विस्तार से अलग करके नहीं देख पाता और इसका भयावह पक्ष यह है कि यदि यह सफल हो जाय तो भारत में हिंदुओं की दशा पाकिस्तान और बांग्लादेश से भिन्न नहीं रह जाएगी।

आज जो लोग सवर्ण-दलित का खेल खेलते हुए ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे! इंशा अल्ला! इंशा अल्ला!!’ गा रहे हैं, और इस खेल को सेकुलरिज्म कह कर जश्न मना और तालियां बजा रहे हैं, और जश्नबाजी से बचे समय में ‘असुरक्षित’ होने का स्वांग भर रहे हैं, उन्हें तब पता चलेगा, हिन्दू शब्द का मतलब क्या है? हिंदू शब्द की व्याप्ति क्या है? पाकिस्तान और बांग्लादेश में किसी को जैन, बौद्ध, सिख, दलित या सेकुलर होने के नाते बख्शा नहीं गया। पोपतंत्र के भीतर सेकुलर शब्द बोल तो सकते हैं पर सिर्फ एक बार।

मैं प्रमाणों की अनदेखी नहीं करता। अपने तर्ककौशल से तिल का ताड़ और ताड़ का तिल नहीं बनाता। आंकड़ों का घालमेल नहीं करता। कोशिश करता हूं कि विशेषणों का प्रयोग कम से कम हो। जो निष्कर्ष निकलता है उसे भय, प्रलोभन और दबाव से मुक्त होकर, मानापमान की भी चिंता न करते हुए कहने का जोखिम उठाता हूं। यह मेरा प्रयत्न है। इसमें सफल कितना हो पाता हूं, इसका फैसला नहीं कर सकता।

कैथोलिक धर्मतन्त्र और इसके हिंदूद्रोही प्रोग्राम के प्रयोग मनमोहन सिंह के मनमोहक कार्यकाल में आरंभ हो चुके थे। सेकुलरिस्टों ने जो घटित हो रहा था उसे देखते हुए न तो देखा, न सुनते हुए सुना, न जबान रहते उस पर कुछ बोल सके। वे सिलेक्टिव ब्लाइंडनेस, सिलेक्टिव डेफनेस, सिलेक्टिव डंबनेस और सिलेक्टिव हल्ला बोल के शिकार हैं और इसके फायदों से परिचित रहे हैं। उनका मजलिसी तराना था,

यह कैसी है जबां बंदी हसीना तेरी महफ़िल में
जबां रसना बनी है बोलना हो तो नहीं खुलती!
और जवाबी तराना था:
खुलेगी, और लंबी तन के खुद ही आग उगलेगी
पता जिस दिन चलेगा पहले जैसी अब नहीं मिलती।।

इसलिए संचार माध्यमो की पहुंच की सीमा में आने वाले अनसेकुलर हिंदुओं ने और उनकी निजी संपर्कसीमा में आनेवाले हिंदुओं ने पहली बार वे डरावनी आवाजें सुनीः
• इस देश के संसाधनों पर पहला हक माइनारिटीज का है।
o (लोग अविश्वास में एक दूसरे से पूछने लगे, “ऐं, संविधान में ऐसा लिखा है क्या? मैं तो समझता था देश के संसाधनों पर सबका समान अधिकार है।“
o उत्तर मिलता, “एक्स्ट्रा-कंस्टिट्युशनल सुपरहेड कंस्टिट्युशनल हेड और कंस्टिट्यूशन को जैसे चाहे इस्तेमाल करे रोकने वाला कौन है।“

• हिंदू शांतिप्रेमी नहीं होता, वह आई एस से भी अधिक आतंकवादी है, उससे पूरी मानवता को खतरा है।
o “बड़ा रोब पड़ रहा है, यार। कल तक तो अमेरिका और कनाडा से बरास्ता पाकिस्तान आनेवाले खालिस्तानी उन्हीं गुरुद्वारों में एके 47 लिए ठहरते थे, जिनके लंगर के आजकल चर्चे गर्म हैं, और उनसे निकल कर चलती बसों से सवारियों को उतार कर हिंदुओं को अलग कतार मे खड़ा करके गोलियों से भून दिया जाता था, तब भी हमने किसी निरपराध सिख को कोई क्षति नहीं पहुंचाई और इस के कारण हमें कायर तक कहा जाता रहा। आज बिना कुछ किए कराए, देश विदेश में डंका बज गया। और क्या चाहिए खुशी के लिए।“
o “डंका बज गया, डंडा बजनेवाला है।“

• यदि कहीं कोई बवाल हो जाए और उसमें एक पक्ष हिंदू हो तो बिना जांच पड़ताल के हिंदू को अपराधी माना जाए।
o “यह तो कुछ गलत लगता है, यार।“
o “इतनी जबरदस्त इंटरनेशनल खोपड़ी का प्रधान कुछ भी कर बैठे, वह गलत हो ही नहीं सकता। यह नव्य न्याय है, पाकिस्तान और बांग्लादेश से पिछड़ गए थे। यह उनसे भी आगे पहुंचने की मात्र पहली छलांग है।“

• केवल गरीब मुसलमानों को 15 लाख का बैंक लोन।
o “तनिक भी गरीब मुसलमान दिख गया तो उसे पकड़ लेते हैं लोग, पूछते हैं – तुमने अपना हक लिया। मुसलमानों का रास्ता चलना दुश्वार हो गया है।“
o “सरकार की नीति जनसंख्या नियंत्रण की है। किसानों को कर्ज देकर जान चुकी है कि महाजन का कर्ज लेने वाला कभी आत्महत्या नहीं करता पर बैंक से कर्ज लेनेवाला आत्महत्या करता है, इसीलिए गरीब मुसलमानों को चुना गया। गरीब हैं, कर्ज लेकर खा जाएंगे, चुकाने का समय आएगा तो आत्महत्या कर लेंगे।
o “इसका एक और फायदा है। अभी तक सेकुलरिज्म की पहुंच गरीबी तक नहीं हुई थी इसलिए इसकी लड़ाई धनिकों से थी, जमाखोरों से थी। अब गरीबी का मजहब साफ हो जाने के बाद हिंदू गरीबी की जंग मुस्लिम गरीबी से होगी और लुटेरे और जमाखोर निश्चिंत रहेंगे।“

ये आवाजें कहीं बतकही के रूप में, कहीं फुसफुसाहट के रूप मे बैठकों, चौबारों, हाटों बाजारों का चक्कर लगा रही थीं और इनसे समाज में घुटन पैदा हो रही थी। इसी में पैदा हुआ था एक विकल्प जो “वंशवाद मुक्त भारत और कांग्रेस मुक्त भारत के सकल्प के साथ राजनीतिक फलक पर उभरा था और इतनी तेजी से लोकप्रिय होता गया कि एक तूफान में बदल गया था।

उससे दहशत खाए सारे बुद्धिजीवी चीख रहे थे “मोदी रोको देश बचाओ” तो लोग सुन रहे थे “मोदी लाओ देश बचाओ” । यह प्रति-श्रुति का ऐसा नया रूप था जिसका अर्थ बुद्धिजीवियों को पता ही न था। मैंने इसका कारण जानना चाहा तो मुक्तिबोध की कविता की पंक्तिया प्रतिध्वनित हो रही थीं:
गढ़े जाते संवाद
गढ़ी जाती समीक्षा
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूल
बौद्धिक वर्ग के क्रीतदास
किराये के विचारों का उद्भास
बड़े बड़े चेहरों पर स्याहियां पुत गईं।