Post – 2017-10-08

अपने ही घर में अछूत

माई और बाबू जी शाकाहारी थे। जिस बर्तन में आमिष भोजन बना है, वह माजने धोने के बाद भी यदि उस बर्तन से छू गया जिसमें शाकाहारी खाते पीते हैं, तो वह बर्तन अपवित्र हो जाएगा। अपवित्र हो चुके बर्तन को पवित्र करने का उपाय भी था। उसमें जव रख कर गधे को खिलाना। वैसे तो वह न भी खाए केवल उस पात्र को सूंघ भी ले तो बर्तन शुद्ध हो गया, पर हमारे गांव में गधे केवल धोबी पालते थे। धोबी टोला और धोबहिया (धोबी घाट) हमारे मुहल्ले से एक किलोमीटर से अधिक की दूरी पर पड़ता था। हमारे आस पास के झुंगे में वह हमारी किस्मत से ही चरता हुआ मिल सकता था।

आप की इस हैरानी का जवाब कि गधा जिसका स्पर्श होने से ही लोग अपवित्र हो जाते हैं, जो न नहाता है न जिसका घोड़े की तरह खरहरा किया जाता है, उसके सूंघने से कोई अपवित्र बर्तन शुद्ध कैसे हो सकता है, न हमारे पुरखे जानते थे, न पुरोहित। यदि बनारस के किसी पंडित से पूछें तो उसको भी जवाब देते न बनेगा ।

आप की किस्मत अच्छी है कि आप को मेरे जैसा ज्ञानी मिल गया है जो जिसे जानता है उसे भले झिझकते हुए प्रकट करे, जिसे कम जानता है उस पर पूरे विश्वास से बात करता है। सो इसका रहस्य यह है कि ये देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार, अर्थात् गधी के पुत्र हैं, गर्दभी-विपीत। मुझे यह रहस्य तो कभी भारतीय पुरातत्व में महानिदेशक रहे मधुसूदन नरहरि देशपांडे ने बताया कि महाराष्ट्र में बच्चे को बुद्धिमान बनाने के लिए एक बार को गधी का दूध पिलाया जाता है ।

कितने सुदूर प्राचीन काल का इतिहास हमने आज अनर्गल प्रतीत होने वाले विश्वासों और रीतियों में बचाए रखा है, इसे समझे बिना सुधार के नाम पर जो अतार्किक लगे उसे मिटाने से अच्छा है कि जब तक वे हमारी प्रगति में ही बाधक न बने उन्हें चलने दो।

देवताओं का गुरु बनने की कहानी और टेढ़ी है पर यह समझना आसान है कि अज और अश्व अर्थात् बकरा और गधा उस देव समाज के सबसे पहले पालतू बनाए गए पशु हैं जिन्होने कृषि का आरम्भ किया था, इतने पुराने कि इन्हें सृष्टि के आदि से जोड़ लिया गया।

मांस भक्षण से अपवित्र हो चुके बर्तन की शुद्धि के लिए इतनी झंझट मोल लेने से अच्छा था ऐसी नौबत ही न आने दो कि उस पात्र से शाकाहारियों के बर्तन का स्पर्र्श हो जिनका संपर्क मांस-मछली से हुआ हो। इसका सीधा तरीका यह कि जिस थाली में रख कर मांस धोया गया हो, या जिस बटुली या कड़ाही में इन्हें पकाया गया हो, उन्हें बिना धोए पखारे आंगन में एक कोने में पड़े रहने दो। जो मांसाहार नहीं करता वह इनको धोकर अपने को अपवित्र क्यों करता। यह काम सीताराम बारी का था। वह मुझसे बारह तेरह साल बड़े रहे होंगे। वह इस काम में बाबा के अनन्य सहयोगी थे। वही खाने के लिए पत्तल, दोने का प्रबन्ध करते, धोने-पकाने के लिए बरतन साफ करते, दूर दराज के हाट से बाजार करके आते, चिड़िया या मछली हुई तो उसकी सफाई कटाई करते, और इस तर्क से खानपान में साझेदारी करते, बाजार के लिए कुछ अलग से पा जाते।

रसोई का बंटवारा तो इस आधार पर हुआ था कि छोटे बाबा के बस की यह शाहखर्ची नहीं, हालांकि अलग होने के लिए भी, आशय यही रहते हुए भी, इतने कठोर शब्द का प्रयोग उन्होंने न किया होगा, पर अभी लौट कर बाबा खाने के लिए पीढ़े पर बैठते कि अवसर की प्रतीक्षा कर रहे छोटे बाबा के तीनों छोटे लड़के – झीनक का, चन्नर का और जगदीश का – लगभग हमलावर के अन्दाज में आ धमकते । उनकी अफरा तफरी से बाबा को कभी कभी थोड़ी झुंझलाहट होती, पर प्रबन्ध यह सोच कर करते थे इसलिए कोई समस्या न आती। छोटे बाबा, बड़े काका, काकी अवश्य मांसभिक्षा में शरीक न होते।

यह तो याद ही नहीं आ रहा कि हम पानी कैसे पीते थे, क्या इसके लिए मिट्टी का सकोरा होता था? हाथ धुलाने की अवश्य याद है कि हमारा हाथ ऊपर से पानी की धार गिराकर धुलवाया जाता, मिट्टी से हाथ धुलने के बाद मुंह कड़वे तेल से रगड़ने के बाद शुद्ध होने पर पानी के गिलास को मुंह लगा सकते थे।

जब हम अस्पृश्यता की समस्या पर विचार करते हैं तो इसकी जटिलता के अनगिनत पहलुओं की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता, और हमारे तर्कवादी भाई लोग तो सुधार भी विचारों से नहीं गालियों से करना चाहते हैं। वे बौद्धिक शिक्षक या चिकित्स्क के रुप साेवते तो सुधार करने से पहले वे स्वयं सुधरते और इतिहास का गहराई से अध्ययन करते। ये अध्ययन भी दोष दर्शन के लिए करते हैं और समझ की जगह बौखलाहट पैदा करते हैं।