Post – 2017-10-07

यूँ ही आँखों में आगये आंसू

हमारा गांव ठाकुरों का था जिनके सामूहिक अधिकार क्षेत्र में चौरासी गांव थे। दारू कोई नहीं पीता था। सात आठ साल की उम्र तक बच्चे जब तब गेड़ुए की शक्ल के मिट्टी के टोंइए में ताड़ी पी लेते थे और उनकी मस्ती से बड़ों का भी मनोरंजन हो जाता, पर उसके बाद ताड़ी तो दूर, पके तरकुल को भी हाथ न लगाते। मांसाहार को अच्छा नहीं समझा जाता था, फिर भी कुछ लोग मांस मछली का सेवन करतेथे। कुछ कायस्थ और मुस्लिम परिवार दूसरे उपजीवी जनों के साथ बसे थे और उनमें मांसाहार चलता था, लेकिन मद्यपान उनमें भी वर्जित था। मुसलमान मुर्गा मुर्गी पालते थे, पर हिंदू मुर्गे का मांस नहीं खाते थे। अंडा खाना तो महापातक था, वह किसी भी प्राणी का क्यों न हो। वह भ्रूण था।

सप्ताह में दो दिनों पर हाट अपने गांव में लगता। एक मंगलवार को जिस दिन मछली और मांस का चलन न था। दूसरा इतवार का हाट, उससे एक किलोमीटर दूर बस्ती के निकट सड़क के साथ लगता, जिस दिन बकरा कटता और मछली भी मिलती। मांसाहारी लोग इसी दिन का लाभ उठाते।

नित्य आमिष आहार कुछ खर्चीला और श्रमसाध्य था। मझगांव में शक्रवार को हाट लगती जो पांच किलोमीटर पड़ता और बृहस्पतिवार को कौडीराम जो दस किलोमीटर था, फिर भी तीन दिन बच रहते। इन पर मछली से लेकर ताल की चिड़िया का प्रबंध जिसमें बाबू जी को भी कुछ प्रयत्न करना पडता, जब कि वह शाकाहारी थे। जब तब एक चिक आकर भी गाहक पट जाने पर बकरा काटता। चिक का काम मुसलमान ही करते इसलिए जिबह करते और यह खुले आम होता. मुझे नाम याद नहीं आ रहा है, कायथ टोली का कौन सा व्यक्ति था, जो गला रेतते समय कटोरा लेकर हाज़िर हो जाता था और बहते हुए लहू को उसमें रोप कर पी जाता था। मुफ्त का माल।

एक ही दृश्य बिम्ब है. परन्तु उस दृश्य बिम्ब के साथ जुड़ा मनोभाव यह है कि मै उसे हैरानी से, बाद में सीखे गए शब्दों में कहें तो वितृष्णा से, पर घृणा से नहीं, देख रहा था।

एक दूसरा भावबिम्ब यह कि मै बकरे का गला रेते जाते समय उसकी छटपटाहट से व्यग्र अनुभव कर रहा था और इसके बाद भी मैं उस स्थान से हटा नही और मुझे यह याद नहीं कि मैंने उस दिन मांसाहार से परहेज किया था। वैसे मांसाहार में बाबा का बनाया कलिया तो उस उम्र में खा नही सकता था, इसलिए वह मेरे लिए, और सिर्फ मेरे लिए, कलेजी रखवाते और उसे अलग से भूनते थे । उसका स्वाद मैं भूल नहीं सकता और उसे पाने के लिए स्वयं जितने प्रयोग किए वे सब उस स्वाद से इतने नीचे रहे कि फिर पेय के साथ चिखना के रूप में भी इसका प्रयोग जंचा नहीं। यह मेरे स्वादेंद्रिय की स्मृति-व्यवस्था की चूक हो सकती है या आपकी सोच को सही नाम देने में संभव अपमान से से आपको बचाने की चिंता हो सकती है। मैं आपकी समझ का अपमान नहीं करना चाहता पर अपनी सोच में बदलाव कर नही सकता।

हिंसा से पहली बार घोर वितृष्णा मुझे तब हुई थी जब बहेलिये द्वारा पकडे गए एक साइबेरियाई पक्षी की बेबस आँखों को देख कर व्यग्र होकर कहा था. “बाबा, उसकी आँखों को तो देखिये!” बाबा ने किसी को झिड़कते हुए कहा था, “इसे ले जाओ यहाँ से!” और किसी ने, हो सकता है दीदी ने, मुझे पूरे बल से पकड़ कर अलग कर दिया था। मुझे बिलकुल याद नहीं कि मैंने उस पक्षी की आँखों में माँ की आँखों का बिम्ब देखा था । ऐसा दावा करूं तो यह गलत है। यह अवश्य सही है कि मै वेदना की सभी अभिव्यक्तियों में आँखों में उभरने वाली पीड़ा को झेल नही पाता। यदि आप समझते है कि मैं इन पंक्तियों को लिखते हुए रो रहा तो यह गलत है। पर बुढापे की कमजोर आँखें हैं. इनका क्या भरोसा, बहती हैं तो तड़प भी पैदा होती है जैसे नदी प्रखर वेग मेंअपने ही कगारों को तोड़े। मैंने उस दिन मांसाहार छोड़ दिया था। दीदी ने नहीं। अगले दिन मैंने कहा था, “दीदी तुम कितनी गिद्धिन हो, और उसके बाद दीदी ने मांसाहार छोड़ दिया था और मैंने कुछ समय बाद शुरू कर दिया था।