Post – 2017-10-03

शास्त्र यदि जीवन से निकले और उसमें लोच हो तो हमारे जीवन को समृद्ध करता है। यदि उसमें लोच की कमी हो तो उस प्रयोजन के विपरीत चला जाता है जिसकी सिद्धि के लिए उसका निर्माण हुआ था । उसमे मानवीयता का स्थान यांत्रिकता ले लेती है। सर्जनात्मकता का अभाव हो जाता है। यह सौंदर्यशास्त्र से लेकर अर्थशास्त्र, राजनीति सभी पर समान रूप से चरितार्थ होता है। यदि शास्त्र का कठोरता से अनुपालन कराया जाय और जिस तंत्र के माध्यम से अनुपालन कराया जाय, उस पर हमारा पूरा नियंत्रण न हो, तो शास्त्रीयता सर्वनाशी भी हो सकती है।

परंतु शास्त्र की निपट उपेक्षा के परिणाम जहां अनिष्टकारी होते है वहां भी उनके परिणाम उतने डरावने नहीं होते।

हमारी हैसियत सामान्य किसानों से कुछ ही अच्छी थी। कहें। अपने को हम जमींदार मानते थे और जिन्हें हम असामी (प्रजा) कहते थे वे हमें राजा बाबू कह कर संबोधित करते थे। सुनकर अच्छा लगता था। मुझे भी, जिसे अपने ही घर में उन असामियों के बच्चो से भी अपमानजनक जीवन जीना पड़ता था।

कुछ बड़ा हुआ तो लगा ये इतने दबाए गए है कि अतिविनम्र हो गए है, और जब इतिहास की समझ पैदा हुई और उस समझ को पुस्तकीय रूप देने लगा तब यह समझ में आया कि गणराज्यों में, जैसे शाक्यों में, ऐसे किसानो को भी राजा क्यों कहा जाता था, जिनके अपने खेत खलिहान होते थे और जो हल भी चलाते थे। वे बारी बारी से अपना प्रधान चुनते थे।

इसके बाद यह समझ में आया कि भारतीय गणव्यवस्था क्या थी और आगे बढ़े गण भी पिछड़े गणों की मर्यादाओं का कितना सम्मान करते थे। इसका अवशेष सभी जातियों की बिरादरी पंचायतों और उनमें अगले साल के लए चुने जाने वाले पदाधिकारियों और उनके द्वारा लिए गए फैसलों के पूरी बिरादरी के लिए अनुल्लंघनीय होने में बचा रहा है। समझ में आया कि क्यों जो हमें राजा कहते थे उनको, हम तो नही पर, हमारे घरों की महिलाएं राउत (राजा), महरा (महाराज), महतो (महोदय) कहती हैं? क्यों युगों पुराना आगे बढ़ने वालों ने भुला दिया है परन्तु पिछड़े जनों और पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं ने बचा रखा है।

अब इस सिरे से सोचें तो क्या समाज के कुछ जनों का पिछड़ जाना यह सामाजिक दमन का परिणाम है या किन्ही कारणों से पहल और सक्रियता में कमी आने का परिणाम?

एक दूसरा प्रश्न, क्या हम पुस्तको में दर्ज घटनाओं और व्याख्याओं से अपने अतीत को समझ सकते हैं? सामाजिक नृतत्व पर काम बहुत कम और उनके द्वारा हुआ है जो हमें तोड़ने के लिए हमारी कमजोरियों को उजागर करना और अपनी अपव्याख्याओं से विषग्रन्थियां पैदा करना चाहतेथे।

कहां का फोड़ा कहां पिराया? दर्द देखो कहाँ से उट्ठा था। देखिये दर्द यह कहाँ पहुंचा?

मैं कहना चाहता था कि हम अपने को और दूसरे हमको जमींदार मानते तो थे परन्तु अंग्रेजों ने जिस तरह के जमीदार बंगाल और बिहार में पैदा किये और उनसे भी पहले सुल्तानों और मुगलों और नवाबों ने पैदा किए, उनके सामने हमारी हैसियत उनकी रिआया जैसी थी, परन्तु उसकी रिआया भी उसे अपना राजा नहों मानती थी।

हम फिर भी अपनी बात सलीके से नही रख पाए, कहना यह चाहते थे की छोटे बाबा का यह निर्णय कि बाबा की शाहखर्ची आर्थिक दिवालियेपन की ओर ले जा रही है, इससे समय रहते, बचना चाहिए और जिन के मर्यादाओं के कारण भाई अपने छोटे भाइयों का जवाब तक नहीं दे पाता उनको तोड़ना होगा उनसे कूई चूक न हुई पर कैसे अम्ल करना है इसमें उनसे चूक हुई। परंतु यदि भूमिका सुरसा का मुंह बन जाए तो आगे कुछ कहा जा सकता है क्या?