Post – 2017-10-02

बंटवारा

छोटे बाबा के इस प्रस्ताव को समझने में कि ‘ए भइया, तुहरे एक्कै लइका बा आ हमरे पांच बाटें। हम एतना खर्चा नाहीं उठा सकेलीं।‘ मुझे बहुत लम्बा समय लगा. यह वाक्य उन्होंने जब कहा था तब मैं बहुत छोटा था। यह मुझे किससे और कितने बाद सुनने को मिला था, यह याद नही। वह इसे जब तब बाद में भी दुहराया करते थे। पर साझे चूल्हे में तो दूसरे के एक के साथ उनके पांच पलते। लाभ में वही थे, पर गणित इतना सादा नहीं था। सच तो यह है कि उस समय तक उनकी ओर कुल सात प्राणी थे हमारी ओर पांच।

असल कारण यह था कि बाबा जिह्वापराय थे। नित्य आमिषभोजी। वह स्वभाव से दयालु थे। मांसाहार छोड़ना चाहते थे। छोड़ नहीं पाते थे। उनकी दशा याज्ञवल्क्य जैसी थी। याज्ञवल्क्य वस्तुवादी थे, बाबा परलोकवादी. याज्ञवल्क्य ने इस आधार पर गोमांस भक्षण की कठोरतम भाषा में निंदा की थी हमारा अपना जीवन और हमारी अपनी भावी पीढ़ियो का जीवन इन बछड़ों-बैलों पर निर्भर है और जो व्यक्ति इन का भक्षण करता है वह अपनी भावी पीढ़ियों का भक्षण करता है. इतनी कठोर वर्जना के बाद भी वह स्वीकार करते हैं कि मैं अपने को रोक नहीं पाता। उनका सरोकार शुद्ध आर्थिक था, हिंसा-अहिंसा, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक के लिए इसमें स्थान न था।
बाबा की चिंता का कितना संबंध दयालुता से था यह तय कर पाना मेरे लिए आसान नहीं है, क्योंकि मांसाहार के कारण वह नरक जाने से बच नहीं सकते थे इसलिए एक ओर तो मांसाहार छोड़ना चाहता थे पर याज्ञवल्क्य जैसी विवशता थी।

पर वह यह जरूर चाहते थे कि उनके बाद घर में कोई दूसरा मांसाहार न करे। इसके लिए उन्होंने बाबूजी (मेरे पिता) को विष्णु का गुरुमंत्र दिलवाया था और वह आजीवन शाकाहारी रहे। पति शाकाहारी तो अर्धांगिनी आमिषभोजी हो नहीं सकती। बच्चे गुरुमंत्र से पहले कुछ भी खाएं-पिएं उन्हें दोष-पाप नहीं लगता, इसलिए हम बच्चों को कोई रोक न थी। यहां तक कि हम टोंइआ (मिट्टी का वालकों के लिए बना गेड़ुआ, टोइआ का अर्थ है त्रोट या चोंच वाला पात्र। इसका इतिहास बलि-बामन की कथी तक जाता है इसलिए इसे अरब या इस्लाम सा ल जोड़ें ) ताड़ी भी पी सकते थे। दूसरी ओर नरक से बचने के लिए उनको अजामिल की तरह मरने के समय रामनाम का सहारा था, इसलिए उन्होंने बाबूजी का नाम रामधारी, भैया का विष्णुदेव, मेरा भगवान, मुझसे छोटे भाई का रामकृष्ण रखा था। लड़कियों मे से भी किसी की याद अन्तकाल में आ सकती थी, यह कल्पनातीत था, इसलिए उनका नामकरण करते समय इसका ध्यान नहीं रखा गया था।

लेकिन इस पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता था। पता नहीं अंतिम क्षणों में होश में रहें भी या न रहें। बाबा रामचंद्रदास या राघवदास किसानों के बीच कितने समादृत थे इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। मेरे गांव भी उनका आना जाना होता था। बाबा ने उनके सामने अपनी समस्या रखी, “बाबा, मैं लाख कोशिश करके हार गया। जीभ मानती ही नहीं। कोई ऐसा उपाय बताइए कि मेरी मांसाहार की आदत छूट जाय।“

परभंस (परमहंस, राघोदास) महराज के पास तो हर समस्या का समाधान था। बोले, “मन करता है तो मन को क्यों मारिएगा। खाइए। जीभ के कारण यह होता है न, उसे सजा दीजिए। राम राम कहा कीजिए।“

यह हुआ सही उपाय। सांप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे।

बाबा खाली समय में अनवरत राम राम जपते रहते। बाबा बहुत अच्छे सूपकार (पाकशास्त्री) थे। परंतु आमिष भोजन वह स्वयं पकाते। इसका प्रधान कारण यह कि जो शाकाहारी है उसको मांस पकाने को न तो कहा जा सकता है, न उसका पकाया खाया जा सकता है। ईंधन कोयला, गैस या बिजली का था नहीं कि रख कर रसोई से हिला जा सके। ईंधन को लगातार चूल्हे में सरकाते रहने के लिए रसोइए को वहीं जमे रहना पड़ता था। एक ओर कलिया पक रहा है। उसका आमिष गंध वातावरण फैल रहा है और दूसरी ओर उसी के बीच राम राम का मन्दनादी पाठ चल रहा है और दोनों के योग से जो स्वाद पैदा होता था वैसा तीस चालीस साल के बाद एक बार मिला तो याद आया यह तो वही स्वाद है जो बाबा के पाक में हुआ करता था।

मुझे दो बातों को लेकर हैरानी हुई। कोई और भी हो सकता था जो उतना सुस्वाद भोजन बना सके। अधिक विस्मय इस बात को लेकर कि हमारे सवाद के स्मृति-संकेत इतने स्पष्ट रूप में मस्तिष्क में कैसे सुरक्षित रह सकते हैं।

बाबा की नरकवास की चिंता राम नाम के जाप या लोगों का ईशपरक नाम रखने से भी दूर नहीं हो रही थी। एकमात्र अचूक उपाय था काशी में प्राणत्याग, पर वह फिर कभी।

छोटे बाबा का मांसाहार के प्रति दृष्टिकोण याज्ञवल्क्य की तरह शुद्ध अर्थशास्त्रीय था, परन्तु उनमें कुछ मामलों में असाधारण आत्मनियन्त्रण था। वह दूर की सोचते थे और उन्हे अपनी दूरदर्शिता पर अटूट विश्वास था और उनकी जितनी भी भविष्यवाणियां होती थों उनमें से मैने किसी को गलत होते नहीं पाया।

उन्होंने यह समझ लिया था कि तबतक की पारिवारिक एकता केवल सद्भावना पर नहीं टिकी थी, बल्कि इस कठोर सचाई पर टिकी थी कि वंशपरंपरा एकल थी। पहली बार उनके पांच पुत्र हुए थे जब कि बाबा के एक बाबू जी। जब भी बंटवारे की नौबत आएगी, बाबूजी को आधा मिलेगा और उनकी संतानों को आधे का पांचवां, अर्थात् दसवां हिस्सा मिलेगा। तब क्या उनके बच्चों को वही जीवन स्तर मिलेगा जिसके वे आदी हो चुके रहेंगे।

यही वह बिंदु है जिस पर उन्होने कहें-या-न-कहें के संशय पर विजय पाकर तर्कसहित विभाजन का प्रस्ताव रखा था।