माँ का जाना (३)
मैं वापस नहीं लौटना चाहता था। जहां बैठा था। वहां से हटना भी नहीं चाहता था। यह बताना भी नहीं चाह्ता था कि क्यों मुझे वहीं बैठे रहना है। जलाने की तो मैं कल्पना ही नहीं कर सकता था। अगर इसे सोचना कहा जा सके तो, मैं सोचता था कि जब लोग माँ को नदी में डुबायेंगे तो वह उसी तरह अफनायेंगी जैसे नहाते समय सि र पर एक साथ पानी डालने पर, साँस लेने में रुकावट से, मैं अफनाता था और तब बाबा को दया आजायेगी और वे उन्हें लेकर उसी तरह लौटेंगे जैसे लेकर गए थे। मैं लौटने वालों के साथ माँ के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था।
मैं कई तरह की असम्भव प्रतीत होने वाली संभावनाओं के बीच माँ को जीवित पाना चाहता था और इसे किसी को समझा नही सकता था। दीदी को भी नहीं। मेरे पास अपने मन की बात कहने की भाषा भी नहीं थी। भाषा होती भी तो अपनी भावनाओं की पवित्रता के सम्मान के लिए, जिसे मै समझता था, किसी दूसरे को इसलिए नहीं समझा सकता था कि यदि उसने, उस पर संदेह प्रकट किया तो वह गलत नहीं होगा, उसके संदेह के साथ ही उसकी पवित्रता भंग हो जायेगी। गलत होना मुझे सह्य था, पवित्रता का भंग नहीं सह सकता था। यह अपराध मेरे अपनों के द्वारा भी हो सकता था। मेरी अपनी दीदी के द्वारा भी। यदि उसने कोई शंका जताई तो उस पवित्रता के साथ ही मेरा वर्तमान और भविष्य का सपना टूट जाएगा। दीदी मुझे घसीट कर वापस ले जाना चाहती थी और मैं उठने और चलने को तैयार न था। यह बताने को भी तैयार न था कि क्यों अपनी जिद पर अड़ा हूँ।
यह कोई अप्रत्याशित घटना न थी। आए दिन हमारा पाला ऐसे बच्चों से पड़ता है जो किसी बात की जिद ठान लेते हैं और उन्हें समझाने में हमारे सभी तर्क, यहाँ तक कि पुचकारने फुसलाने के नुस्खे भी बेकार हो जाते है। हम मानते हैं कि बच्चे, बच्चा होने के कारण, हमारी बात नहीं समझते। यह नहीं सोचते कि हम अपने बचपन को खो बैठने के कारण, बच्चों के विचारों को, जो मनोभावों और विचारों की अविभाजित अवस्था की संपदा होते हैं और जिसे हम बौद्धिक विकास के क्रम में खो चुके होते हैं, इसलिए वे हमारी समझ में नहीं आते। इसे परखने के लिए शोध होना चाहिए कि सही होने के लिए बुद्धि और भावना और नैसर्गिक क्षमताओं का सही अनुपात क्या होना चाहिए? मनुष्य के मनुष्य बने रहने और पशु और यन्त्र बनने के बीच की कोई चीज बनने के बीच की दूरियां कितनी बढ़ी हैं या कम हुई हैं?
दीदी अपनी जिद पर अड़ी थी कि मुझे तुरत लौटना होगा और मै इस जिद पर अड़ा था कि वहां से हटना नहीं है। इसलिए जब वश न चला तो उसने मुझे मेरे विरोध के बाद भी गोदी में उठा लिया।
विवशता के भी कुछ लाभ हैं, ऐसे ही दासता के भी होंगे। मुझे वापसी में पैदल नही चलना पड़ा । वे कब लौटे इसका पता न चला। वापसी गोदी में ही हुई हो पर इतनी लम्बी यात्रा और प्रतीक्षा के बाद मै इतना थक गया था कि जब वे लौटे तो उसका कोई दृश्य नहीं । मैं थकान से सो गया होऊंगा।
उसके बाद एक शून्य है जिसमें जो घटित हुआ होगा उसकी कोई छाप या निशान नहीं। इस बात का भी नहीं कि उसका ब्रह्मभोज हुआ था। इसका तो हो ही नहीं सकता कि उसके महाभोज के बाद उसकी वर्षी भी इसलिए कर दी गई थी कि घर में कोई रोटी देनेवाला न था। शुभम् शीघ्रम् के न्याय से वे जल्द से जल्द अपनी जरूरतें पूरी करना चाहते थे और मैं अपने सपने पूरा करना चाहता था। दोनों की अपेक्षाओं की संधिभूमि थी माई, जो मेरे तो माँ की वापसी थी और प्रकृति के यंत्र के रूप सपत्न घातिनी थी जिसे प्रकृति ने अपने नियम से बनाया था और जिसे मानवीय व्यवस्था से आजीवन लड़ना पड़ा और जो जीत कर भी हारती रही और हारते हुए भी जानती रही कि वह किसी दूसरे से नहीं अपने से हार रही है।
सभी के लिए मेरी माँ मर गई। केवल मेरे लिए वह जिन्दा थी और पहले से अधिक जिंदा माई के कारण रही, उसकी यातना के कारण । मेरी रचनाओं में, ‘महाभिषग’ और ‘अपने अपने राम’ में ही नहीं मेरी अन्य कृतियों में भी रहस्यमय तरीके से माँ जिंदा है। पर मैंने अपनी पीड़ा से ग्रस्त होकर विमाता की पीड़ा को भुलाया नहीं, वह भी इन में जीवित है। आश्चर्य इस बात पर अवश्य है कि अपनी पीड़ा से ऊपर उठ कर मुझे पीड़ित करनेवाली की पीड़ा का बोध मुझमें इतनी कम आयु में कैसे पैदा हो गया था। यह किसी विशेष प्रतिभा के कारण न था यह विश्वास के साथ कह सकता हूं?