रेलवे की चाकरी
(और नियति का सामना)
मैंने इस प्रसंग को तो इसलिए उठाया था कि विगत दिनों हुए ट्रेन हादसों पर आई प्रतिक्रियाओं, आरोपों और व्याख्याओं से अपना असंतोष व्यक्त कर सकूँ और ऐसा करने से पहले आप को यह विश्वास दिला सकूँ कि मैं इस पर अपना अभिमत रखने का अधिकारी व्यक्ति हूँ। इसे बयान करने के क्रम में नियति और उसके खेल की चर्चा आ गई जिसे अधूरा छोड़ना एक गलत प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने जैसा लगेगा, इसलिए थोड़ा आत्मराग भी जरूरी लगा।
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कितनी जुगत से मैंने गोरखपुर में पोस्टिंग कराई थी। कुछ हफ्ते ही बीते थे कि जिस विधान को उलट कर गोरखपुर पहुंचा था, उसे याद आया कि हमारी तो नियुक्ति ही ओवरटाइम और माइलेज के लटके पड़े काम को निबटाने के लिए हुई थी जिसके कागज पत्र गोंडा लोकोशेड में हैं। मुझे उलटे पाँव गोंडा के लोको शेड जाने का परवाना थमा दिया गया। साल बर्वाद हो चुका था ।
अगला सत्र आरम्भ होने में छह महीने बाकी थे। सोचा चलो तब तक दिन काटते हैं और फैसला तो DME आफिस से ही होना है। पास रह कर कोई सूरत निकालेंगे।
पहुंचे, कुछ दिन रनिंग रूम में काटे, फिर ठिकाने का जुगाड़ हुआ। गोंडा के लोको ऑफिस में उन सड़ रहे काग़जों के लिये जगह थी, पर हमारी उस टीम के बैठने की जगह न थी जिसका सृजन ही उस कार्यभार को कम करने के लिए हुआ था जिसके कारण पुराने ओवर टाइम और माइलेज के भुगतान केआदेश के बाद भी न हो रहे थे।
हमे जो बुलन्दी बख्शी गईवह सातवें आसमान से तीन आसमान कम थी,यानी, पानी की टंकी के नीचे धरती से तीन मंजिल ऊपर। वहाँ तक चढ़ने के लिए लोहे की तिकोनी घुमावदार सीढीयां। टेबल के नाम पर एक बड़ा सा बिलिअर्ड टेबल। उसे घेर कर छह कुर्सियां । सामने टेबुल के ऊपर रखे पुराने रिकॉर्ड जिन पर स्टेशनों के नाम, उनकी दूरी और चालक दल (क्रू)के सदस्यों के नाम। क्रू या दल में होते थे ड्राईवर, फायरमैन और खलासी। ड्राईवर और फायरमैन के ग्रेड थे ए.बी.सी., जो क्रमश: मेल और एक्सप्रेस ट्रेनें, दूसरी सवारी गाड़ियां और माल गाड़ियां चलाते। सबकी दरें अलग। स्टेशनों के नाम संकेतों में। मिसाल के लिए Lnj का मतलब लखनऊ जंक्शन और Lko का मतलब लखनऊ सिटी। पहला उत्तर रेलवे का, दूसरा पूर्वोत्तर रेलवे का, नियुक्ति करने वालों ने अनजाने ही बहुत बुद्धिमानी का फैसला लिया था। इतने टेढ़े काम को निपटाने के लिए सचमुच सबसे प्रतिभाशाली युवकों की ही ज़रूरत थी, यद्यपि ये युवक भी काम की महिमा के अनुरूप न थे।
मैं नहीं जानता मेरे स्वभाव में कब और कैसे यह दुर्गुण आया, पर यह बात मेरी समझ में बहुत छोटी उम्र में आगई थी कि यदि शत्रु प्रबल है तो उससे पंगा न लो, उसे ललकारो मत, परन्तु उसकी अवज्ञा करने की जुगत करो। उसे बाध्य करो कि वह तुम पर आाघात करे जिससे तुम उसे अत्याचारी सिद्ध कर सको। इसे गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रेरित नहीं मान सकता क्योंकि जिस उम्र में मैंने इसे अपना हथियार बनाया़ उसमें गाधी का नाम अवश्य सुना होगा, पर असहयोग शब्द न तो सुना था न सुनता तो उसका अर्थ समझ सकता था।
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जिसे हम नियति कहते हैं वह एक अपूर्ण या दोषपूर्ण व्यवस्था का जिसके कुछ पहलू उजागर और दूसरे ओझल होते हैं पर इनसे ऐसा दबाव पैदा होता है जिसके कारण विविध प्रकार के अन्याय होते हैं, परन्तु कोई अन्यायी नही होता। दोषमुक्त होने के प्रयत्न में भो अपूर्ण व्यवस्था होती है और सबको सह्य या न्यायपूर्ण लगती है, इसलिए हम उससे टकराने चलें तो पूरा समाज हमें अपराधी सिद्ध कर देगा,जब कि हम स्वयं उससे होने वाले अत्याचार के मारे हुए हैं।
उसकी शक्ति उसके अत्याचार करने की ताकत में नही है, इस मूल्यव्यवस्था में है जिसमें उसका अत्याचार उचित और तुम्हारी न्याय की मांग उपद्रव प्रतीत होती है । उससे जो सीधे टकराएगा वह सचमुच चूर चूर हो जाएगा ।
नियति के तीन पहलू है। प्राकृतिक जिसे दैव कहा जाता रहा है जिसमें बाढ़, सूखा, भूचाल, सुनामी, महामारी आदि आते है जिनके सामने हम अवश अनुभव करते है, जिनमें धैर्य और साहस बचाया जा सके इतना ही बहुत है।
दूसरा व्यवस्था : समाज व्यवस्था, अर्थतन्त्र और राजतन्त्र और इनके नियम, विधान, परम्पराएं और संस्थाएं हैं, जिनके समक्ष भी हम अकेले विद्रोह करें तो भी अपराधी सिद्ध कर दिए जायं. इनके लिए बड़े आंदोलनों की जरूरत होती है जो सफल हो जायं यह जरूरी नही, इसलिए इनमें समायोजित होते हुए अपने लिए कुछ राहत तलाशते हुए अपने लक्ष्य की और बढ़ा जा सकता है, और इसी का प्रयत्न करने की बात मेरी जहन में थी।
इस लोकोशेड में जिस स्थिति का सामना करना पड़ा, वह जिन भी सीमाओं के कारण था, इसे झेलना अपमानजनक था, अन्याय की पराकाष्ठा थी, इसलिए मैंने पहले दिन ही तय किया कि मै काम करूंगा ही नहीं, और किसी ने जवाब तलब किया तो उसे समझाऊंगा कि मै सही कर रहा हूँ। इसकी अंतिम परिणति होगी चाकरी से निकाला जाना। अगले सत्र तक गोरखपुर वापस न होने की स्थिति में वह निर्णय तो मुझे करना ही था।
यह काम चार लोगों दे दल का था। एक पुराने रिकार्ड का पाठ करता. बाकी तीन क्रमश: ड्राईवर, फायरमन और खलासी के माइलेज और टाइम का हिसाब तैयार करते। मैंने अपना फैसला सुना दिया। कहा, तुम नौकरी करने आए हो इसलिए जितना कर सको करो. मैं कुछ न करूंगा।
मैं जूनियर इंस्टिट्यूट के पुस्तकालय से अंग्रेजी के उपन्यास लाता, दिन भर उन्हें ही पढता। मैने अपने को समझा लिया था कि गोरखपुर में रहना मेरा अधिकार था। वह छिन गया तो बिना टिकिट हफ्ते के अंत में वहां जाने और मित्रों के साथ गुजारने का हक था। शनिवार को 2 डाउन से जो गोंडा से एक बजे रवाना होती, ड्राइवर को खबर करके सवार होता, तीन बजे गोरखपुर, सोमवार को नौ बजे गोरखपुर से छूटनेवाली. 9अप से चलता। साढ़े ग्यारह बजे गोंडा और पटरियां पार कर, अपने दफ्तर में।
एक बार इसी तरह वापस लौटा तो देखा हाजिरी रजिस्टर में मेरे नाम के आगे क्रास लगा है। मैंने उसे काटा, नीचे हस्ताक्षर किया, समय लिखा ८ बजे। लोको फोरमैन ने खुद पाया था कि मैं आठ बजे उपस्थित नहीं हूँ। पता लगाया, काम की प्रगति न के बराबर। मेरे विद्रोह का कुछ असर मेरे साथियों पर भी पडा ही था। अब तो जवाब तलब होना ही था।
आरोप न. १ हाजरी रजिस्टर में tampering.
२. काम में शिथिलता।
मैं इसी स्थिति की प्रतीक्षा कर रहा था! मैंने जवाब दिया, tampering तब होती जब मै क्रास को मिटाने का प्रयत्न करता. क्रॉस गलत लगा था। मैं समय का पाबंद हूँ। दफ्तर के दूसरे लोग, यहाँ तक कि फोरमैन खुद देर से आते है। मैं आया तो द्फतर खुला न था, इसलिए हाजिरी रजिस्टर में हस्ताक्षर न कर सका। ऊपर अपने कमरे में चला गया और काम करता रहा। सोचा बाद में उपस्कथिति दर्ज कर दूंगा। बाद में पाया कि क्रास लगा है, इसलिए उसे काट कर नीचे हस्ताक्षर किया.
अब इसके बाद मेरे आरोप थे: हम लोग सभी ग्रेजुएट हैं, दफ्तर के दूसरे सभी सदस्य और स्वयं फोरमैन अल्प शिक्षित हैं इसलिए हमारे साथ जान बूझ कर ऎसी परिस्थितियाँ पैदा की गई हैं कि हम काम न कर सकें। हमें अलग बैठाया गया और किसी अनुभवी व्यक्ति को हमारे मार्गदर्शन के लिए न लगाया गया। हम योग्य हैं , पर दफतर के काम का ज्ञान या अनुभव नहीं है। रेल स्टेशनों के लिए जिन कूटाक्षरों का प्रयोग किया गयां है उनका अर्थ तक हमें नहीं मालूम, न इसकेलिए कोई पुस्तिका या रजिस्टर उपलब्ध कराया गया है। हमें संशय होने पर इन खतरनाक सीढियों से तीन मंजिल की ऊंचाई उतर कर नीचे आना पड़ता है और जिस तिस से पूछना पड़ता है और यदि किसी को फुर्सत हुई और उसने मदद कर दी तो उसकी कृपा मानते हैं, क्योंकि इसकी जिम्मेदारी किसी पर नहीं डाली गई है। परन्तु इतनी विषम परिस्थितियों में भी हमने कुछ काम इसलिए किया है कि हम कर्तव्यनिष्ठ और अनुशासित लोग हैं।
अब इसके बाद मैंने फोरमैन से यह स्पष्ट करने का अनुरोध किया कि हमारे साथ इतना असयोगपूर्ण, विद्वेषपूर्ण व्यवहार क्यों
किया गया? हमारी प्रतिभा की बर्वादी क्यों की जा रही है? और अब परेशान करने के ये नए तरीके क्यों अपनाए जा रहे हैं?
अब यह रेकार्ड पर आ गया । मेरी हाजिरी के दुस्साहसिक झूठ को छोड़ कर बाकी सारे आरोप इतने अकाट्य थे जिन को नकारा नहीं जा सकता था इसलिए यह आरोप गलत होते हुए भी स्वतः अकाट्य बन जाता था। अब वह मेरे खिलाफ कोई कार्नरवाई नहीं कर सकता था। हमारे पूरे दल पर उसका कोई नियंत्रण न रह गया था। हम ऊपर बैठ कर काम करें या ताश खेलें और वह निरीक्षण करने आए और उसके सामने खेल में व्यस्त रहें, समय से बाद में आएं या पहले चले जाएं, हमारे सवालों का जवाब दिए बिना वह नया मेमो तक नहीं दे सकता था। मेरे जवाब की चर्चा पूरे दफ्तर में। अब वे ही मजे हुए लोग जो सचमुच हमें नए नए छोकरे वाली नजर से देखते थे इतनी इज्जत से पेश आने लगे कि हमें भी हैरानी होने लगी। लेकिन इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि अभी तक अकेले मैं डीएमई दफतरके चक्कर काटता था कि नए सत्र से पहले मेरी तैनाती गोरखपुर में कर दें अब मेरा फोरमैन दौड़ लगाने लगा कि वे किसी तरह मुझसे उसे मुक्ति दिलाएं। हुआ यह कि अगली बार जब मै पर्सनल में यह पता लगाने पहुंचा कि कोई सूरत निकली या नहीं. तो पता चला कि टेलीफोन क्लर्क की एक पोस्ट खाली है। पारी का चक्कर है। क्या उस पर जाना मंजूर है।
मुझे तीन बार मंजूर नहीं कहना पड़ा। अगले दिन मैं गोरखपुर के लिए सामान समेट रहा था।