रेलवे की चाकरी
मुझे नियतिवादी बनाने में जिन घतानाक्रमों की भूमिका है उनमें से एक है रेलवे की चाकरी.
बीएचयु से वापसी एक राहत थी। दो तीन दिनों में ही पता चल गया कि कोई न कोई अंशकालीन काम तलाश पाना आसान नहीं। वह साल खराब गया। उसी साल पूर्वोत्तर रेलवे के एक विज्ञापन ने आश बंधा दी।
क्लर्कों की भरती की जिस परीक्षा में मैं बैठा उसमें १२०० सफल प्रत्याशियों में मेरा स्थान दूसरा था। जिन प्रथम आठ को सबसे पहले नियुक्तिपत्र मिला उनमे मुझे होना ही था। परन्तु यह नियुक्ति उस दफ्तर में थी जिसका मांगपत्र सबसे पुराना था। मेरे दुर्भाग्य से यह था मकैनिकल इंजीनियरी का विभाग था जिसका मुख्य कार्यालय गोरखपुर में, जिला कार्यालय गोंडा में था और प्रभागीय कार्यालय लखनऊ में था।
गोरखपुर गोंडा के जिला कार्यालय से संचालित होता था। नियुक्तिपत्र वहीं से आया था। वहा चिकित्सा जाँच के बाद जब नियुक्ति के लिए पहुँचा और बताया कि मैंने पढाई का खर्च निकालने के लिए नौकरी चाही थी, तो पता चला गोरखपुर में कोई पद है ही नहीं। गोंडा रहकर पढ़ाई संभव नही थी इसलिए मैंने बताया कि ऎसी दशा में मैं पद स्वीकार नही कर सकता। जवाब मिला अब तो आप सेवा से मुक्त त्यागपत्र देकर ही हो सकते हैं। मैंने आव देखा न ताव, त्यागपत्र लिख कर सौंप दिया। यह उनके लिए हैरानी की बात थी, क्योंकि रेलवे की नौकरी दुर्लभ सी चीज समझी जाती थी। जिला इंजिनियर के स्टेनो ने समझाया, इसे अपने पास रखो। यह तो कभी कर सकते हो. इतनी जल्दी क्या है? जाओ पहले अपने घर के लोगों से, दोस्तों से राय मशविरा कर लो। उसने त्यागपत्र फाड़ दिया।
लौटा और दो चार दिन बाद पहुंचा तो फिर वही जिद. अब उस भले आदमी ने पता लगा कर बताया। गोरखपुर में लोकोशेड में एक जगह खाली है। मै वहा के लिए नियुक्ति का आदेश ले कर लौटा।
गोरखपुर के सेंट एंड्रूज कालेज में प्रातःकालीन कक्षाओं में जो ७-९ के बीच लगती, आधे छात्र दफ्तरों में काम करने वाले होते थे । यहीं नौकरी करते हुए पढ़ पाना संभव था। चुने गए १२०० में से अकेले वे आठ जो योग्यता क्रम में सबसे ऊपर होने के पुरस्कार स्वरूप लोको के नरक में भेजे गए जहां उन्हें श्रमिक कानून के अनुसार आठ घंटे काम और दो घंटे आराम करना था । इन में से इक्के दुक्के को पदोन्नति का एकमात्र अवसर बुढापे तक बड़ा बाबू बनने का था। लेकिन हेराफेरी की गुंजायस ऐसी थी कि जितना दायें हाथ से कमाते थे उससे अधिक बांये से कमा लेते थे और उस नरक को भी स्वर्ग बना लेते थे।
उस विधाता ने जिसने स्वर्ग और नरक बनाए, मेरी सर्वोत्तम जानकारी के अनुसार, एक बार इनको बना लेने के बाद न तो इनके प्रबंध में कोई बदलाव किया न ही एक के निवासी को दूसरे में स्थानांतरित करने का प्रयत्न किया! कानून अपना काम करेगा और कानून सबसे ऊपर है, विधाता से भी ऊपर, यह व्यवस्था भी उसने उसी समय दे दी।
परन्तु जो इश्वर न कर सका उसे मनुष्य कर सकता है। जो विधाता न कर सकता था उसे विधायिका और विधायक कर सकते है। जो आचार से संभव न था वह व्यभिचार से संभव है। सोचिए (उल्लू के पट्ठो को कहें तो उनके पितरों का अपमान होगा और उल्लू कहें कहेंगे इससे बड़ा सम्मान क्या हो सकता है, यही अकेला पक्षी है जिसे भरोपीय पक्षी कहा जा सकता है इसी उल्लू को आउल में बचा कर रखा गया) इन दोनों को पार करने वाले उन विशेष श्रेणी के लोगों के बारे में जो आज भी विधाता को मनुष्य से ऊपर मान कर उसकी पूजा और नमन करते हैं पर उससे अधिक प्रतापी पड़ोसियों को भूल जाते है जो उसके किये और बनाए नियमों को मनमर्जी से बदल सकता है, क्या कहा जा सकता है । मनुष्य की महिमा का कमाल यह है कि वह स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग बना सकता है और इस धारणा को बदल सकता है कि नरक मे सभी यातना भोगते हैं और स्वर्ग में मजे ही मजे हैं। यह आदमी का कमाल है कि वह सुख और दुःख की परिभाषाएं बदल सकता है!
“बात समझ में नहीं आई।”
“मेरे समझाये बिना आ कैसे सकती है। मैं समझाता हूँ । स्वर्ग की एक मात्र नेमत कि उसमें पहुँचते ही बहुत सारी हूरें हैं. मान लिया गिल्मे भी हैं, मिल जाते हैं । पर वे तजुर्बेकार होने के साथ ही कुछ ऐसी व्याधियों के संक्रामक भी हैं जिनके इलाज के लिए वहाँ कोई अस्पताल नही. शराब की नदिया हैं, मिलाने को पानी भी नही, खाने का तो जिक्र ही नही. इन पियक्कड़ों की दुनिया में तुम जाते ही बीमार पड़ जाओगे. दूसरी और नर्क है. औरतों को मरने के बाद स्वर्ग जाने और उसका सुख पाने का इंतजाम मैंने स्वर्ग के किसी परिचय पत्र में नही देखा। जाहिर है सारी महिलाए नर्क में जाती हैं। विश्वास न हो तो नारी नरक की खान सूक्ति से समझो. अब नरक में जाने वालों का यदि सुख एक ही अंग तक सीमित है तो एक एक नरकवासी महिला के हिस्से में उससे अधिक हमउम्र, हमशक्ल पुरुष मिल जाते हैं जितनी हरें पुरुषों को स्वर्ग में नसीब नहीं। गणित मेरी कमजोर है है, स्वर्ग में गणित और मोटी समझ की जरूरत नहीं पड़ती और नर्क में गणित इतनी दुरुस्त कि उसे सीखना नहीं पड़ता, परन्तु नारी का स्वर्ग में प्रवेश वर्जित है और नर्क में उसे बसाने को पुरुषों का हरम मिल जाता है।
“ठोस उदाहरण देकर समझा नहो सकते?”
“वही कर रहा हूँ। जिसे भ्रष्टाचार कहा जाता है वह लोकाचार है। लोकाचार का मतलब किसी जगह समझाते हुए कहा गया है ‘जो तुझको है पसंद वही काम करेंगे. तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे. तुम कुछ नही बोलोगे तो खामोश रहेंगे. पर दिन में रात को मिलाके काम करेंगे। अर्थात यदि तुम अपना हिसाब नहीं समझ सकते तो हम बताएँगे कि जो था वह उससे कुछ कम था जो होना चाहिए था। अर्थात तुम्हारे माइलेज और ओवरटाइम जितने हैं उससे कम रह जायेंगे. इसलिए समझौता एक्प्रेस का जब किसी कौ खयाल भी आया तब यह दफ्तरों में धडाधड चलती थी और सिग्नल और झंडी की भी जरूरत न होती थी । होता यह था कि एक निर्णय के अनुसार अपने लिए नियत समय से बाद तक किसी भी कारण से काम करने वालों को ओवरटाइम मिलने का निर्णय लिया गया था। रनिंग स्टाफ को प्रति मील एक अल्पतम प्रोत्साहन राशि रखी गई थी. शेड में काम करने वाले क्लर्क रनिंग स्टाफ अर्थात ड्राईवर, फायरमैन खलासी के वेतन के अतिरिक्त इसका हिसाब रख कर उन्हें भुगतान का हिसाब लगाते। हिसाब को बढ़ा कर उसका आधा आध बांटने के लिए ये उन के पास स्वयम पहुंचते। जितना उचित होता उससे बढे हिसाब का आधा बंट जाता। दोनों खुश । काम आनन् फानन में। जो लोग सोचते है भ्रष्टाचार को मिटा दिया जाना चाहिए वे शिष्टाचार को मिटाना चाहते हैं। इश्वर करे वे स्वर्ग में जाय जहा हूरें तो हैं पर हॉस्पिटल तो दूर गायानाकोलोजिस्ट तक नही मिलते जिन्हें नरक भेजा जाता है वे समझौता एक्सप्रेस के मुसाफिर होते हैं ।“
“तुम अपनी बात तो बताते नहीं, तुम्हारी वहां जरूरत क्यों पड गई ।”
“माइलेज और ओवर टाइम की मांग छह साल पहले पूरी की गई थी, पर उस समय जो काम कर रहे थे वे अब पता नहीं कहाँ थे। यह काम तो वहां के स्टाफ से ही हो जाता, पर न कोई यह जान पाता कि उसका हिसाब किसके पास है न कुछ लेनेदेने देने की पहल कर सकता था। इस सूखे काम को पूरा करने के लिए आठ नए पदों की सृष्टि छह साल पहले हुई थी और इसे पूरा करने का काम हमारा था। इस यूनिट को गोंडा के लोको ओफ़ीस में रह कर पूरा करना था, जिनमें से अकेला मैं नैतिक दबाव बना कर गोरखपुर के शेड में भाग आया था।”