टकावादी मार्क्सवाद (१०)
“तुम जब वस्तुपरकता की बात करते हो तो क्या उसी सचाई के उन पहलुओं को देख पाते हो जिन्हें हम देखते हैं?”
“सचाई जैसी कोई चीज नहीं होती. वस्तुए होती हैं, उनकी विशेष स्थितियां होती हैं, और इस स्थिति के कारण उनके बीच सम्बन्ध होते हैं जिन्हें देखने वाले की अपनी भी विशेष स्थिति होती है. इसके कारण एक ही वस्तुस्थिति को कोई दो व्यक्ति एक तरह नहीं देख पाते. जब तुम कहते हो हम लोग देखते हैं तो तुम स्वीकार करते हो कि तुम उसे देख ही नहीं पाते.उसके किसी उपयोगी प्रतीत होने वाले पक्ष को उसकी सचाई मान कर उस पर आरोपित कर लेते हो.
“तुमने ठीक कहा कि तुम लोग जिसे देस्खते हो उसे मैं नहीं देख पाता. सच कहो तो मैं उस योजना से इतना आतंकित हुआ जिसमें इतने अत्याचार और उत्पीडन के मोल पर उनके अपने हिस्से में आए देश के सनसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार जताया जा रहा था और इस योजना पर काम भी आरम्भ हो गया था जिस पर अपनी स्थिति के कारण तुम्हारी न तो नज़र गई न ज़बान खुली, कि मुझे इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार हिन्दुओं का है का नारा देते कोई आता तो भी वह अल्पतम बुराई के रूप में स्वीकार था. मेरे लिए सचाई का केवल इतना ही अर्थ है कि जो तुम्हारी जानकारी में है उसे जाहिर करने के खतरे भी हों तो उन्हें स्वीकार करते हुए अपनी बात कहो जिससे दूसरे व्यक्ति को तुम्हारी सीमाओं का ध्यान रखते हुए वस्तुस्थिति को समझने में मदद मिले. जानते हो इसके कारण मैं जो गंवाता हूँ वह उसकी तुलना में नितांत तुच्छ है जो मुझे मिलता है.”
“यही तो सुनना चाहता था तुमसे. जो कुछ लिखते हो उसके बदले में क्या मिलता है और कितना? देखो, अब फिर मुकर न जाना.”
“विश्वसनीयता का साम्राज्य. जिसे तुमने सफलता की होड़ में खो दिया है और इसी का परिणाम है, तुम चीखते हो, मिल कर शोर मचाते हो तो भी तुम्हारी आवाज तुम्हारी कीर्तन मंडली की परिधि को भेद नही पाती. जिस दिन तुम अपनी कमियों को बेझिझक प्रकट करने की इस सादगी को सीख जाओगे, तुम्हारी आवाज जाँच, रोक और दमन के सभी प्रयासों को चीरती हुई सीधे जनता तक पहुँचने लगेगी.
“परन्तु इसका साहस तुममे है क्या? जब पाले इतने साफ़ बंटे है तब क्या कह सकते हो कि तुम उस पाले में हो जिसमें भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्प संख्यकों का माना जाना है?”
“परन्तु तुम तो मानते हो न कि इस देश के संसाधनों पर केवल हिन्दुओं का अधिकार है.”
“मैंने कहा यदि इस तरह के विभाजनकारी विकल्पों के ही बीच चुनाव होता तो अल्पतम बुराई मान कर मैं इसी के साथ होता. संघ में आज भी ऐसे लोग हो सकते हैं जो मन से यही मानते हों. परन्तु उनमें भी किसी ने यह दावा इतनी निर्लज्जता से नहीं किया जितनी निर्लज्जता से पिछले शासन ने किया और फिर इसे अमल में लाते हुए एंटोनी, जोजफ और थामस भरना आरम्भ किया. संघ के सर फिरे भी यही कहते हैं कि यह देश उन सबका है जो इसे अपना मानते है. इसके इतिहास और परम्परा का सम्मान करते हैं. यद्यपि उनका वन्दे मातरम कहना होगा उनकी भीतरी खलबली को जाहिर कर देता है. वन्दे मातरम कहने और कहना होगा में फर्क है. पर इसमें भी जिद और अकड के दो सिरे हैं जिनसे एक दूसरे को बल मिलता है.
“मोदी को व्यक्ति रूप में इसलिए अलग करना पड़ता है कि इस व्यक्ति की महत्वाकांक्षा अपार है और इसी के कारण यह धर्म और जाति और अंचल की उपराष्ट्रीयताओं से ऊपर उठ कर भारतीय राष्ट्रीयता का प्रवर्तक और विश्व फलक पर एक महत्वपूर्ण उपस्थिति बनना चाहता है. उसकी इस आकांक्षा में ही एक सर्वसमावेशी अवसर है. इस व्यक्ति को समझो तभी इससे होने वाले खतरों को समझ पाओगे.”