Post – 2017-08-17

‘लहक’ के कुछ अंक मुझे आज ही मिले क्योंकि वे मेरे उस पते पर भेजे गए थे जहाँ मैं एक साल से नहीं रहता. जिस अंक को खोला उसके सम्यक संवाद पर निर्भय देवयांश की एक कविता मंगलेश की एक टिप्पणी और देवी प्रसाद के एक प्रश्न पर तीखी प्रतिक्रिया के रूप में लिखी गई है. मैं लहक का पहले से प्रशंशक हूँ पर इसे छाप कर उसने यह सन्देश दिया है कि यशलिप्सा में अपने को विज्ञापित करते हुए वैज्ञानिकता को उस यांत्रिकता तक पहुंचाया जा सकता है कि मैंने अपनी मा की कामेच्छा पूरी करते हुए उसका सम्मान किया क्योंकि अंततः प्रकृति के आदेश से यह एक नर का एक मादा से नैसर्गिक सहवास था. अपने लिए सबकुछ पाने के दबाव में हम अपने को तो जिन्दा रखें. मंगलेश का नाम आ गया, समस्या एक व्यापक प्रवृत्ति की है. मैंने सोचा उस पन्ने का चित्र लेकर आप को भी उससे अवगत कराऊँ . संभव न हो सका पर मर्यादाओं की रक्षा का ध्यान रखने वाला यदि संघ ही रह जाएगा तो आप को मिटाने की जरूरत उसे भी न होगी. संघ से बचें पर लोभवश अपनी दुर्वलाताओं से भी बचें .
लहक की सूचना के लिए मेरा पता है:
भगवान सिंह : बी -१७०१ गार्डेनिया स्कायर, क्रोस्सिंग रिपुब्लिक.गाजिआबाद है.