Post – 2017-08-17

“तुम इतनी अंतरर्विरोधी बातें कैसे कर लेते हो? पहले यह तो समझाओ.”

“मैं समझा नहीं.” उसका आक्षेप सचमुच मेरी समझ में नहीं आया था.

“तुम एक ओर कहते हो सब कुछ ठीक चल रहा है, कहते हो मोदी जनतंत्रवादी हैं, फिर आसन्न खतरे की भी बात करते हो, मार्क्सवादियों को आरम्भ से ही लीगी मानसिकता से ग्रस्त बताते हो, और उनकी नैतिक रीढ़ की मजबूती की बात कहते हो. आज के ,मार्क्सवादियों को आखिरी जमात बताते हो और अपने किसी काल्पनिक सही मार्क्सवाद को ही आसन्न खतरे से मुक्ति दिलाने की संभावना भी जताते हो. दक्षिण पंथ का जिस लहजे में प्रयोग करते हो उसमे उसके प्रति अवज्ञा का भाव झलकता है, फिर भी जब हम उसकी धज्जियां उड़ाते हैं तो तुम्हे यह अवांछनीय लगता है. तुम अकेले अपने को सही मार्क्सवादी समझ का इजारेदार मानते हो और मोदी और भाजपा की आढत पर बैठ कर उनका माल बेचते हो, अंतर्विरोधों की ऎसी माला पिरोने की दक्षता मैंने और किसी में तो देखी नहीं.”

“तुम जिसे अंतर्विरोध समझ बैठे वह विरोधाभास है. तुम्हारी मार्क्सवाद की समझ अच्छी होती तो विरोध का यह आभास भी न होता, इसके मर्म को पकड़ लेते. अच्छा मार्क्सवादी बनने में बाधक तुम्हारा शास्त्रीय अज्ञान नहीं है, उसमें तो तुम मेरे गुरुघंटाल हो सकते हो. बाधक लीगी कार्ययोजना को मार्क्सवादी कार्यभार मान लेना है, जिसके कारण दिमाग के जिस कोने में नीर-क्षीर विवेक होता है वहा घृणा का प्रवेश हो गया.

“सच्चा मार्क्सवादी अपने शत्रु से भी घृणा नही करता, वह उसकी प्रकृति और शक्ति के स्रोत को समझने के लिए उसकी जड़ों ही नहीं केशिकाओं तक पहुँचने का प्रयत्न करता और उसके बल पर सही औजार और हथियार ईजाद करता है.

“घृणा फासिस्टों और नाजियों का हथियार है. तुम्हें याद होगा हिटलर का वह कथन कि यदि तुम्हारा शत्रु तुमसे घृणा नही करता तो तुम सच्चे नाज़ी नही हो.

“कौम को राष्ट्र बना देना, और दूसरी कौम को दूसरा राष्ट्र मान कर उसे मिटाने का संकल्प नाजियों से पहले लीगियों ने भारत में कर लिया था और उनकी ही इस नफरत के आभ्यंतरीकरण के कारण हिन्दू नाम आते ही चेतना में ऐसा रासायनिक परिवर्तन हो जाता है कि विवेक तिरोहित हो जाता है और मिटाने का आवेग इतना प्रबल हो जाता है कि मिटाने की सही तरकीब निकालने तक की शक्ति जाती रहती है. तुम मिटाते हो और इस क्रम में तुम मिटते जाते हो और वह प्रबल होता जाता.

“घृणा की प्रबलता और विवेक के ह्रास के कारण अपने किये का नतीजा देखकर भी गलती समझ में नहीं आती. बस एक बात समझ में आती है कि यदि हिन्दू सांप्रदायिकता समाप्त हो गई तो तुम भी मिट जाओगे, क्योंकि तुम्हारे पास हिंदुत्व से लड़ने और उसे मिटाने के अतिरिक्त कोई काम ही नहीं है. इसलिए मोदी जब साम्प्रदायिकता और जातिवाद को मिटाने और सब को जोड़ने मिलाने की बात करते हैं तो तुम्हें सबसे डरावने लगते है. तुम यदि मार्क्सवादी होते तो कहते, हमें तुम पर पूरा भरोसा तो नहीं है फिर भी हम तुम्हारे ऐसे सभी प्रयत्नों के साथ हैं जिनमें तुम अपनी इस प्रतिज्ञा का निर्वाह करोगे, जहां इसमें चूक होगी हम तुम्हारे चरित्र को समाज के सामने उजागर करेंगे.

“मात्र इस सकारात्मक कदम के बल पर भारतीय समाज में तुम्हारी विश्वसनीयता में इतना उछल आता जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते. पर अंतरात्मा में लीग के प्रवेश के कारण यह सही माने में मार्क्सवादी पहल तुम्हारी चेतना में उतर नहीं पाता.

“अच्छा मार्क्सवादी दुश्मन के गुणों और कारगर हथियारों औजारों को भी अपनाता है और उसके भीतर मिले अवकाश का अपने लिए प्रयोग करता है. मार्क्स की समझ है समाजवाद का रास्ता लोकतंत्र से हो कर गुजरता है, तुम लोकतंत्र को ही मिटाने पर लगे रहे. हार पाछ कर निर्वाचन पद्धति अपनाई भी तो भी अपने बुद्धिजीवियों तक को वैचारिक और कलात्मक स्वतंत्रता न दी और तेवर ऐसा बनाए रहे कि जैसे अब भी गुप्त क्रांतिकारी संगठन के रूप में ही काम कर हो. जिन्होंने यह रास्ता अपनाया वे भूल गए कि हथियार उठाने वाला लोकतान्त्रिक अधिकारों से भी वंचित हो जाता है. अब इन सारे सूत्रों को मिलाकर देखो तो समझ में आ जाएगा कि जो अंतर्विरोध प्रतीत होरहा था उसमें अन्तः संगति है.

“रही रीढ़ की बात तो उप्भाक्तावादी वाराह संस्कृति में जिसमें दूसरे दल आँख मूंद भक्ष्य अभक्ष्य भोग में लगे रहे है, मार्क्सवादी दलों का नेतृत्व और कैडर दोनों में अपेक्षाकृत संयम बना रहा है. नैतिकता का यह तेवर भाजपा अपनाए रहा, मार्क्सवादियों ने भ्रष्ट दलों के साथ सत्ता की राजनीति करने के कारण खोया नही तो भी इसका दावा करने का अधिकार अवश्य खो दिया.

मार्क्सवादियों को आत्मालोचन करते हुए अपना कायाकल्प करना होगा. यह कैसे हो सकता है इस पर चर्चा फिर कभी.

“अरे यार आसन्न खतरे की बात तो रह ही गई.”

“उसे भी आज रहने ही दो.”