नजर अपनी अपनी समझ अपनी अपनी
कल जिन दो उपयोगी टिप्पणियों की बात कर रहा था उनमें से एक का उत्तर मैंने अपनी समझ से कल दे दिया था। जरूरी नहीं कि वह स्वीकार्य भी लगे।
दूसरी टिप्पणी डा.भगवान प्रसाद सिन्हा की थी। यह दो टुकड़ों में थी। एक में उनका आरोप था कि येदियुरप्पा ने भी अपने शासन काल में कर्नाटक राज्य के झंडे की बात की थी परन्तु उसकी मैंने निन्दा नहीं की।
सचाई यह है कि मुझे इसकी जानकारी नहीं थी और मैंने उनसे ही इसके स्रोत की जानकारी चाही तो उन्होंने किसी के वाल से एक चित्र प्रमाण स्वरूप भेज दिया। इस तरह की प्रवृत्ति को मैं निन्दनीय मानता हूं परन्तु उन्होंने जो स्रोत दिया है वह भी भरोसे का नहीं, आज कल सामाजिक मंचों पर कई तरह की हेराफेरी हो रही है। परन्तु इसके आधार पर मैं यह नहीं कह सकता कि येदियुरप्पा ने ऐसा न किया होगा। वह संदिग्ध चरत्रि के व्यक्ति हैं और इसके लिए उनको निष्कासन का भी सामना करना पड़ा था। ऐसे लोग दुस्साहसिक कृत्यों से अपने लिए आवरण तैयार करते हैं।
जिस बात को सिन्हा जी जैसा मनस्वी व्यक्ति भी लक्ष्य करने से चूक गया वह यह कि येदियुरप्पा ने राष्ट्रीय ध्वज की अवज्ञा कारते हुए ऐसा न किया था और इसीलिए यह उन दिनों भी यह चर्चा में न आया था । उसी चित्र में पहले राष्ट्रध्वज फहराया जा चुका है और उसके बाद एक राज्य ध्वज फहराने का प्रयत्न हो रहा है। इसके विपरीत कर्नाटक के नये मंत्री के कारनामे की जा सूचना है वह निम्न प्रकार हैः
पत्रिका
“आजाद भारत में पहली बार किसी राज्य ने अलग झंडे की मांग की है। वहीं इस मुद्दे पर कर्नाटक का पीएम भी बनाओ की बहस छिड़ चुकी है। जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर कर्नाटक में यह मांग उठी है। कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने 9 सदस्यीय कमेटी बनाई है जो झंडे का डिजाइन तैयार करेगी। केंद्र सरकार ने राज्य की इस मांग को खारिज कर दिया है। केंद्रीय मंत्री सदानंद गौडा ने कहा कि भारत एक राष्ट्र है, इसके दो झंडे नहीं हो सकते। कांग्रेस ने भी इसका विरोध किया है। इसके अलावा इस कमेटी को नए झंडे के लिए कानूनी दांव-पेंच से जुड़ी रिपोर्ट भी बनानी होगी। जम्मू-कश्मीर को संविधान की धारा-370 के तहत स्पेशल स्टेट्स दिया गया है।”
सिन्हा साहब जैसा विद्वान, मनस्वी, और सामाजिक रूप में जागरूक माना जाने वाला व्यक्ति इस गर्हित चेष्टा की कठोर शब्दों में निन्दा करने की जगह येदियुरप्पा की आड़ में इसका बचाव न किया होता तो यह उनकी गरिमा के अधिक अनुरूप रहा होता। परन्तु मोदी द्रोह में लोग जो चाहते हैं उसे ही बाहर देख लेते हैं और इस तरह अपने सामाजिक यथार्थ से कट जाते हैं जिसके परिणाम उनके लिए ही अनिष्टकर होते हैं। यदि वह वामपंथी सोच रखते हैं तो वस्तुपरक होना उसकी पहली जरूरत है।
उनकी दूसरी टिप्पणी मेरे इस दावे का खंडन करने के लिए थी कि मोदी का लक्ष्य सबका साथ और सबका विकास है। टिप्पणी निम्न प्रकार हैः
“ग़रीबी हटाओ जैसे नारे का हश्र भी देखा और सबका साथ सबका विकास नारे की दुर्गति भी तीन साल में लोग महसूस कर रहे हैं ,अंबानी की संपत्तियों में रेकॉर्डतोड़ विकास और किसानों और जवानों की आत्महत्या और हत्या में रेकॉर्डतोड़ बढ़ोतरी ! गोरक्षकों के ज़रिये और ख़ननमाफ़ियाओं को उपकृत कर सबका साथ सबका विकास जारी है । नौकरियों के अवसरों में रेकॉर्डतोड़ गिरावट से सबका साथ सबका विकास हो रहा है । आपके ही पोस्ट पर कभी लिखा मैंने पाया था कि योगी आदित्य जैसे कट्टर साम्प्रदायवादियों की अवहेलना कर मोदी ने पंथनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जता दी । चुनाव के बाद आपके इस विश्वास की साख का ध्वंस होते देखा मैंने । शायद उस समय यह आपके ज़ेहन में नहीं आया होगा कि योगी का कद मोदी से बड़ा है जैसे कभी वाजपेयी को यह पता नहीं चला था कि गुजरात का मुख्यमंत्री भारत के प्रधानमंत्री से बड़ा हो चुका है । आपलोगों के पास एक weeping boy है वामपंथी ! बस उससे जनता में काल्पनिक ख़ौफ़ भरते हैं जबकि उसका वास्तविक ख़ौफ़ आपके शासकों के पास होता है जिसको अगर विश्वास हो जाय कि शुद्ध मुनाफ़े की 300 प्रतिशत गारंटी है तो आप ही जैसे विचारकों से सौ तर्क गढ़वा लेंगे कि देश का टुकड़ा हो जाने में फ़ायदा है जैसे सोवियत संघ के पतन के बाद रूस , चेकोस्लोवाकिया , उक्रेन , यूगोस्लाविया के टुकड़े कर दिये जाने के तर्क गढ़े गए थे ।“
इसमें उनका आवेश अधिक और विवेक कम प्रकट हुआ है क्योंकि उत्तर में उस धारणा से असहमति ही पर्याप्त थी। पर मोदी का नाम आते ही हमारे मित्र अपने मन का सारा गुबार बाहर कर देते हैं और इस गुबार के कारण भी सामने की सचाई आंखों से ओझल हो जाती हैः
पुर हूं मैं शिकवे से यूं राग से जैसे बाजा
इक जरा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है।
पूरा बाजा सभी मित्रों द्वारा आवेश में और आविष्ट भाव से बार बार भाव कुभाव अनख आलस हूं बजाया इस तरह जाता है कि इसका सुरीलापन समाप्त हो गया है सिर्फ कर्कश शोर बचा रह गया है।
फिर भी इसमें मेरी सोच और दृष्टि और रुझाान को ले कर भी सवाल उठाए गए हैं और जब मैं कहता हूं कि हमें अपने लिखे और कहे के लिए जवाबदेह होना होगा तो यह जवाबदेही मुझ पर भी आती है। डर यह कि यदि इसकी मीमांसा में आज गए तो पाठकों को झपकी आने लगेगी, इसलिए कल।