Post – 2017-07-22

अलं विस्तरेण

बढ़ चढ़ कर बात करना, बड़बोलापन तो यूं भी असहनीय होता है, अधिक समझा कर बात करना भी एक तरह की गुस्ताखी है। दूसरों को सीख देने वाला सही और जरूरी सीख दे रहा हो तो भी सुनने वाले को यह लगे कि यह आदमी मुझे मूर्ख समझता है, और अकड़ जाय कि मुझसे ज्ञान बघारने चला है तो आप ने उसका भला करना चाहा और वह उल्टे आपको सबक पढ़ाने पर उतारू हो जाएगा। आपका सिखाना तो बेकार जाएगा ही, जिसका भला करने की सोच रहे थे वह आपको मिटाने की सोचने लगेगा। मुझ बया और बन्दर की कहानी पढ़ लें।
*******************
मुझे स्वयं अपने आप से शिकायत है कि मैं अपने कथ्य को बोधगम्य बनाने के लिए इतने विस्तार में चला जाता हूं कि सुनने या पढ़ने वाले को ही नहीं, स्वयं मुझे भी सिर पीटने का मन करता है। इसलिए आज मैं यथा संभव संक्षेप में बात करूंगा।
*****************
संक्षेप का एक कारण यह है कि मैं उन सभी विषयों पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे सकता जो मुझे किसी रूप में उद्वेलित करती है। विस्तार में जाने पर तो निश्चय ही नहीं।
****************
आज जिस घटना ने मुझे आहत किया वह है कुछ युवकों का सेल्फी लेने के चक्कर में प्राण गंवाना। ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं, खिन्न तब भी हुआ था। इन सभी दुर्घनाओं का दोषी मैं अपने प्रधानमंत्री को मानता हूं जिन्होंने संल्फी कल्चर का आरंभ न भी किया तो उसे प्रचारित करके इसकों सम्मोहक बनाया और भूल गए कि राजा जो करता है प्रजा उसका अनुकरण करती है। वह जो मानदंड स्थापित करता है, लोग उसी की नकल करने लगते हैं, परन्तु उनको या किसी को यह पता नहीं हो सकता कि उसके किस कार्य का क्या परिणाम हो सकता है इसलिए उन्हें दोषमुक्त मानते हुए भी यह निवेदन करना चाहता हूं कि वह पदीय गरिमा का ध्यान रखते हुए फैशन परेड वाली पोशाकें बदलने पर पुनर्विचार करें । यह पदीय गरिमा की रक्षा के लिए भी जरूरी है, मध्यवर्गीय नक्काल जनों के लिए भी हितकर है और हमारी अर्थव्यव्स्था के भी अनुरूप है। किसी को इस बात का हिसाब रखना चाहिए कि महीने में वह कितनी बार वेश परिवर्तन करते हैं और उसका खर्च उनके वेतन की सीमा में आता है या नहीं। मुझमें बहुत सारी ग्रन्थियां हैं और मैं उनकी शक्ति को जानता हूं, वे हमें बन्दर की तरह नचाती हैं। मैंने कुछ दृष्टियों से मोदी जी से अधिक सामान्य और कुछ दृष्टियों से उनसे अधिक असामान्य जीवन जिया है, इनकी शक्ति को इनके सम्मुख व्यक्ति की विवशता कोजानता हूं। इसीलिए इन्हें इतना बड़ा दोष न मानते हुए भी हानिकारक मानता हूं फिर भी क्या मोदी जी इस प्रवृत्ति से बच कर नेहरू की तरह एक शालीन पोशाक पर ध्यान देंगे। अब तो लगता है नये महामहिम भी वेश पर ही ध्यान देंगे उनकी सादगी से अधिक चर्चा उनके दर्जी की है। एक के सधने से सभी सध जाते हैं सबको साधन चलें तो सभी चले जाते हैं इसलिए यह आरंभ देश के कार्यकारी शक्तिसंपन्न व्यक्ति से हो तो देशहित में होगा।
********************
मैंने अपना कार्यक्षेत्र छोड़ते हुए पहली बार तात्कालिक राजनीति में हस्तक्षेप किया था कि हम एक लेखक के रूप में, एक बुद्धिजीवी के रूप में स्वतन्त्र तभी तक हैं जब तक हम अपनी स्वतन्त्रता का उठाईगीर के रूप में, लगे हाथ कुछ ले भागने के इरादे से इस्तेमाल नहीं करते हैं, अपितु समाजहित को देखते हुए अपनी निजी स्वार्थका कुछ बलिदान करते हैं। स्वतन्त्रता अपने लिए कुछ पाना नहीं हैं, समाज के किए अपना कुछ खोना है और इसकी हससे भिन्न कोई भी परिभाषा उचक्कों की परिभाषा है।
****************
सही कौन है गलत कौन यह तो पक्षधरता से तय नहीं हो सकता। यहीं वस्तुपरकता का महत्व समझ में आता है, परन्तु यह अजूबा है क्या और इसे कैसे पाया जा सकता है? तरीका एक ही है, प्रमाण, साक्ष्य, आंकड़े, और उनसे निकलने वाले निष्कर्ष के प्रति समर्पण अथवा इसका अभाव वस्तुपरकता और आत्मग्रस्तता का फर्क बताता है।

हम एक ऐसे सांस्कृतिक दौर से गुजर रहे हैं जिसमें उन लोगों के बीच भी जो अन्य बातों में असहमत हैं, एक सहमति है है कि हमारा सांस्कृतिक ह्रास हुआ है। यह किस कारण हुआ है इसे लेकर मतभेद अवश्य है। मतभ्सेद में जो सबसे केन्द्रीय सवाल है वही गायब है क्योंकि यह कोई मानने को तैयार नहीं कि सामाजिक शिक्षा का दायित्व बुद्धिजीवी पर आता है और व्यवस्था प्रशासन से भी संबंध रखती है परन्तु चिंतक व्यवस्था के प्रति भी विद्रोह कर सकता है। संकट यह है कि बुद्धिजीवी न तो समाज शिक्षा कोअपना काम मानता है न ही समाज में आई गिरावट के लिए अपने को उत्तरदायी। जिसके पास कार्यक्षेत्र नहीं उसके कुछ भी करने की जगह ही नहीं रह जाती अतः उसके किए कुछ हो ही नहीं सकता ।

********
राजनीति वह क्षेत्र है जिसमें गलत कोई नहीं होता,सही कोई हो नहीं सकता, जो जहां है वहां अटल है इसलिए उसमें यथास्थितिवाद से बाहर के रास्ते ही बन्द हैं।
********
हम नहीं जानते कि सामाजिक संचार माध्यम का यह मंच कितना महत्वपूर्ण है और यदि हमने इसे व्यर्थ किया, शगल और भडैंती के लिए इस्तेमाल किया तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। समाज के बीच आप को अपनी संगत और गोष्ठी चुननी होती है। यह एक जिम्मेदारी है और इससे प्रमाद करके हम अपने को और उन चीजों और मूल्यों को बचा नहीं सकते जिनके लिए हम चिन्तित रहते हैं।
************
मैं मानता हूं कि हमें अपने शब्दों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। इसका मतलब है हम जो कुछ कहें या लिखें उसके समर्र्थन में हमारे पास तर्क और प्रभाण होने चाहिए। वे हमारे सर्वोत्तम ज्ञान और बोध के अनुसार सही होने चाहहिए और इस लिए हमें अपनी बहसों में इसकी मांग करनी चाहिए और जहां इसकी मांग हो वहां अपनी जवाबदेही अनुभव करनी चाहिए।
*************
मैने अपनी कल की पोस्ट में जो कुद कहा था उस पर दो बहुत सार्थक टिप्पणियां पढ़ने को मिली थीं। वे निम्न प्रकार थीः

धर्म विशेष की राज नीतिकौन कर रहा है?

धर्म की राजनीति की जगह धर्मविशेष कहां से पैदा हो गया? प्रश्नकर्ता उत्तर जानता ही नहीं अपितु अपने माने हुउसे सब पर मढ़ना चाहता है और किसी विशेष धर्म के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। वह धर्म कोई भी हो क्या उसके पक्ष में बुद्धिजीवी खड़ा हो सकता है? विशेष विशेष की प्रतिक्रिया होता है । इसका एक इतिहास है और लम्बा है, उसे पढ़ें। संभव हो तो हिन्दुत्व के प्रति घृणा का इतिहास देखें।

****

अगला प्रश्न इसी से पैदा हुआ, पर विस्तार तो आज भी हो गया। कल के लिए रखें!