हे मोर दुर्भागा देश जादेर करेछो अपमान
मैं यह किसी को दोष देने के लिए नहीं कह रहा हूं पर हमारे समाज में इस विषय में इतनी संवेदनशू न्यता है कि पिछले आठ दस सालों में ही हजारों व्यक्तियों की मौत मैन मोल में उतरने के बाद उसकी गैस से हुइ है जो नहीं मरे उनको किन व्याधियों और यातनाओं से गुजरना पड़ा, किन लतों का सहारा ले कर वे अपनी यातना और कमतरी के बोध से बचने का प्रयास करते हैं, उसमें हमें नहीं जाना। इसके बाद भी हमारे समाज के किसी भी व्यक्ति, संगठन, सरकार, या राजनीतिक दल ने इस अधोगति को समाप्त करने का औपचिारिक प्रयत्न तक नहीं किया। इसके निराकरण की तो बात ही अलग। इसका राजनीतिक उपयोग करने के लिए संसद या विधानसभा में या बाहर मंच से वे सत्ता में न होने पर विरोधी दल की आलोचना के लिए भले उठाएं पर दोषारोपण से आगे न उनके पास कोई ठोस प्रस्ताव होता है न ही सही कार्य योजना, न ही इच्छाशक्ति।
मुझे आज भी नरेन्द्रमोदी के नेतृत्व पर भरोसा है पर कई बातों को लेकर संन्देह भी है। वह अपने को विज्ञापित अधिक करते हैं, और काम उससे बहुत कम कर पाते हैं। इसका एक उदाहरण उनका स्वच्छता अभियान और अन्त्योदय का उनका नारा भी है। जिस बिन्दु पर ये दोनों नारे किसी ठोस पहल की मांग करते हैं वह है जलमलनिकास प्रणाली को अद्यतन बनाना जिसके अनगिनत कुपरिणाम प्रतिवर्ष भारतीय नगरों में देखने में आते हैं जिनमें गंन्दे पानी का पेय जल में मिलना, भरी बरसात में सड़कों का नालों में बदल जाना, कूड़े की ढेरियों और उनसे उत्पन्न बीमारियां तो हैं ही, जिसके हृदयविदारक दृष्टान्त उन जघन्य स्थितियों के रूप में भी आते हैं जिनसे हमने अपनी चर्चा आरंभ की।
यह काम किसी ने नहीं किया, यह उन संगठनों या संस्थाओं की कारगुजारी के क्षेत्र में नहीं आता जिनको केन्द्र का दायित्व माना जाता है, मैं मोदी जी को उससे अधिक खराब नहीं मानता जैसी पिछली व्यवस्थाएं रही हैं । परन्तु वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने स्वच्छता को एक गंभीर समस्या के रूप में उठाया और यह नारेबाजी तक सीमित न रह जाय इसलिए सफाई के यंन्त्रों पर बल और इसकी दिशा में धनप्रबन्धन की ओर ध्यान देने की मैं आशा करता था। अपेक्षा के अनुरूप कुछ नहीं किया गया। संभवतः यह उनके सरोकार का हिस्सा बन ही नहीं पाया।
जिन कामों को केन्द्रीय सरोकार मान कर हाथ में लिया गया है जैसे गंगा जमुना की सफाई उनमें भी जबानी काम अधिक दिखाई देता है वास्तविक कम। गंगा के किनारे से ऐसे कारखानों को तो एक आदेश से बन्द किया या स्थानान्तरित किया जा सकता था जिनका अशोधित जल गंगा में मिलता है परन्तु क्या यही काम उन शहरों के मलशोधन की दिशा में उसी तत्परता से किया गया है जो इन नदियों के तट पर बसे हैं? यहा आदेश से काम नहीं चलेगा। ठोस योजना, सूझ और सक्रियता की जरूरत पड़ेगी, इसलिए गंगा की सफाई का काम गंगा की पूजा से आगे नहीं बढ़ पाया।
मेरा जो सरोकार है और जिसके बिना मैं किसी भी प्रयत्न को अधूरा या निकम्मेपन के निकट मानता हूं वह यह है कि यह चिन्ता किसी में दिखाई नहीं देती कि इस अमानवीय और गुलामी के सबसे गर्हित रूप को समाप्त कैसे किया जाय? बहुतों को लगता होगा कि इसमें सुधार संभव ही नहीं इसलिए मेरे निम्न प्रस्ताव हैं जिन को किसी आवेश में लिखा गया और दूसरों द्वारा पढ़ा गया लेख न मान कर व्यक्तिगत अभियान मान कर, सभी इस दिशा में सक्रिय हों तो इससे मुक्ति पाई जा सकती है। सुझाव निम्न हैं और नये भी नहीं हैं, उन्नत देशों में इनका पालन होता है और उन्नत देश बनने की हमारी यात्रा सभ्य बनने से आरंभ होती है।
राजनीतिज्ञ सत्ता के पीछे दौड़ते हैं उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यह सामाजिम समस्या है, समाज के सवाल बुद्धिजीवी के सरोकार हैं, हमारे साहित्य में तो इन त्रासदियों पर कहानियां और कविताएं तक नहीं। साहित्य को गन्दगी से वचा रखा है हमने। ले दे कर दो उपन्यास जिनको केन्द्रीयता न मिली – मुर्दा घर और नरककुंड में वास। इसे हमें उठाना चाहिए और तब तक चैन से बैठना नहीं चाहिए जब तक यह समस्या है। यह हमारी राजनीतिक पहल का मोर्चा है।