छोटी छोटी बातें
“सरदार पटेल और नेहरू की स्वतंत्र भारत में मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण में क्या अंतर था?“
“सरदार यथार्थवादी थे, नेहरू आत्मवादी थे। सरदार उस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय को नेहरू की तरह ही मानने को तैयार होगए थे कि यदि लीग और जिन्ना विभाजन न होने की स्थिति में दंगे कराते रहेंगे तो अच्छा है देश बट जाय और लोग अपनी अपनी जगह शांति से रहें। यह सभी मान रहे थे कि यह फैसला भावावेश का है, इसलिए यह टिक नहीं पायेगा और जल्द ही मुसलमान भी अपनी भूल समझ कर पूरे देश को एक रखने के पक्ष में हो जाएंगे, इसलिए कांग्रेस के नेता चाहते थे कि लोग अपना घर द्वार छोड़ कर मारे मारे न फिरें। यह मियादी बुखार कुछ दिन के बाद उतर जाएगा। जिन्ना इस फितूर को सचाई बनाना चाहते थे इसलिए हिन्दुओं और मुसलमानों की आबादी के अदलबदल के हिमायती थे। विभाजन पर सहमति कांग्रेस के नेताओं की भी थी, इसलिए यह सुनिश्चित करना उनका काम था की जहां भी जो रहे वह सुरक्षित और ससम्मान रहे। इसकी गारंटी उन्हें उन मुसलमानों को भी देनी थी जो भारत में रह गए थे।
“इस बिंदु पर दोनों के नज़रिये में एक अंतर था। पटेल पाकिस्तान में रह गए हिन्दुओं की सुरक्षा और सम्मान की कीमत पर ही मुसलामानों को सुरक्षा और सम्मान की गारंटी देना चाहते थे और यह चाहते थे की भारत में रह कर वे फिर अपने पुराने हथकंडे की हिन्दुओं के साथ वे शांति से रह ही नही सकते, उसे त्याग कर मेल मिलाप से रहने की आदत डालें। नेहरू इस मामले में दुहरे मानदंड अपना रहे थे। उनका मानना था कि भारत सेक्युलर और लोकतान्त्रिक देश है जब कि पकिस्तान बना ही धार्मिक आधार पर है इसलिए वह हिन्दुओं के साथ जैसा बर्ताव करता है, वैसा बर्ताव हम मुसलमानों से भारत में नहीं कर सकते।
“इस सेकुलरिज्म के खोल के पीछे एक गहरी सचाई थी कि यदि मुसलमानों और दलितों का समग्र समर्थन उन्होंने सुनिश्चित नहीं किया तो कांग्रेस के भीतर हिंदुत्व की ओर झुकाव रखने और पटेल के जैसे को तैसा तरीके को सही मानने वालों की संख्या अधिक थी और आजिज आकर पटेल कभी भी तख्ता पलट सकते थे। इसलिए उनके सेकुलरिज्म में ही इस्लामिक रुझान या उनको पसंद न आने वाले निर्णयों से कतराना शामिल था। इससे मुस्लिम कठमुल्लावाद को वीटो पावर मिल गया।
“एक बार यह नुस्खा कारगर लगा तो वह आम रास्ता बन गया। नेहरू की इस चतुराई से भारतीय मुस्लिम अलगाववाद को प्रोत्साहन मिला। जो लोग पिछले दिनों जे एन यू में भारत की बर्वादी के नारे सुन कर हैरान रह गए थे उन्हें नहीं मालूम कि नेहरू काल में हंस के लिया है पाकिस्तान लड़ कर लेंगे हिंदुस्तान के नारे लगते थे और आज क्रिकेट मैच में कुछ कश्मीरी लड़कों को पाकिस्तान की जीत पर नारे लगाते देख कर यकीन नहीं कर पाते, उनको पता नहीं कि नेहरू काल में यह पूरे भारत में होता था और ऐसा न करने वाला मुसलमान अपवाद था, और मुमकिन है उन परिवारों और उनके रिश्तेदारों तक सीमित रहा हो जिनके बच्चे भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी थे। सेकुलरिज्म को मुस्लिमपरस्ती का पर्याय बनाने में जेएनयू का नहीं स्वयं नेहरू का ही हाथ रहा है। परन्तु नेहरू के समय में भारतीय इतिहास और संस्कृति पर वैसा हमला नहीं हुआ था जैसा सत्तर के दशक से आरम्भ हुआ जिसमे प्रतिरोध और क्षोभ पैदा किया और मनमोहन सिंह के मुंह में यह जुमला ठूंस कर कि भारत के संसाधनों पर पहला हक़ माइनोरिटी का है, अंतिम जुमले के कि इस पर पहला हक़ ईसाईयों का है, विज्ञापित होने से पहले पासा ही पलट गया।
“पर ध्यान दो इस अंतर पर कि न तो अपने कथन, कार्य और व्यवहार से वाजपेयी सरकार ने यह कहा कि इसके संसाधनों पर पहला हक़ हिन्दुओं का है, न ही नरेंद्र मोदी सरकार ने, यह हिन्दू मिजाज से मेल नहीं खता। मनमोहन और सोनिआ जुग को नेहरू के बोए बीज का फल कह सकते हो तो नरेंद्र मोदी युग को पटेल कि विरासत का विस्तार। जोड़ कर रखनेवाला कील से काम लेता है या रस्सी से यह परिस्थिति पर निर्भर करता है, पर मनमानी की छूट नहीं देगा। सब लोग मनमानी करते रहे और इसे ही स्वतंत्रता की परभाषा बना दें तो इसका परिणाम अराजकता, भ्रष्टाचार और विनाश होता है जिसके कगार पर देश को छोड़ कर वे गए हैं।
“यदि मेरे कहने में कुछ कमी रह गई हो तो तुम मेरे कल की पोस्ट पर मेरे एक मित्र नलिन चाौहान के द्वारा सुझाया एक लिंक देख सकते हो।“