Post – 2017-07-06

लाख समझाओ मगर

“तुम जिन का साथ दे रहे हो वे नहीं चाहते कि उनके काले कारनामों की और किसी की नज़र जाय, इस लिए तुम चाहते हो कि बुद्धिजीवी कूप मंडूक बना केवल अपने क्षेत्र तक सिमटा रहे और वे तब तक मनमानी करते रहें जब तक पूरा सत्यानाश न हो जाए. तुम अपने बौद्धिक वर्ग से भी विश्वासघात कर रहे हो और अपने देश के साथ भी छल कर रहे हो, इसका पता है तुम्हे?”

मैं चुप रहा, इससे उत्सहित होकर वह कुछ और आवेश में आ गया, “सत्ता का विरोध करने का अधिकार हमें संविधान ने यूँ ही नहीं दिया है, तुम उसे स्वतन्त्रता का दुरूपयोग कह कर दबाना चाहते हो, यही फासिजम है और हम इसका पुरे दमखम से विरोध करते हैं और आगे भी करेंगे.”

मैं मुस्कराने लगा तो वह चिढ गया, “तानाशाहों को फ़ौज से डर नहीं लगता, विचारों से और विचारकों से डर लगता है और इसीलिए वे सबसे पहले बुद्धिजीवियों का सफाया करते हैं, यह तुम्हें पता है या नहीं?”

मैंने मुस्कराते हुए ही पूछा, “तुम्हारी बात पूरी हो गई?”

“पूरी ही मान लो.”

“मैं तुमसे पूरी तरह सहमत हूँ.”

वह मेरी सहमति से भी घबरा गया, “देखो, तुम फिर कोई बदमाशी करने वाले हो लेकिन आज मैं तुम्हारी एक न चलने दूँगा.

“यह तो मैं जानता हूँ, न तो खुद चलोगे न किसी को चलने दोगे, और इस जड़ता प्रगतिशीलता की संज्ञा भी दोगे. बुद्धि का ऐसा दिवाला केवल भारतीय सेकुलरिस्टों में ही पाया जा सकता है जो लीग के अधूरे काम को पूरा करने की योजना पर काम करते आये हैं और अपना चहरा छिपाने के लिए सेकुलरिज्म का बुरका ओढ़ लेते है. नाम और काम में कोई संगति ही नहीं.”

“फिर जरा अपना चेहरा तो दिखाओ. अभी अभी तुम मुझसे सहमत किस बात पर थे?”

“बताता हूँ. बीच में बोलना नहीं. पहली बात यह कि बुद्धिजीवी विशेषज्ञता के नाम पर कूपमंडूक बन कर नहीं रह सकता. मेरा सारा लेखन, जिस भी विधा या क्षेत्र में हो, पूरा विरोध, प्रतिरोध और फरेब को उजागर करने का लेखन है.तुमसे मेरी यह बात चीत तक, व्यक्तिगत जीवन में भी मेरे लिए अन्याय का विरोध और अन्यायी को पराजित करना सोचने और लिखने जितना ही महत्वपूर्ण है. परन्तु ये बुर्कापोश बुद्धिजीवी अपने लाभ और हित को सर्वोपरि मानते रहे हैं, इसे उन्हें निकट से देखो तो पता चल जाएगा. मैं बार बार कहता हूँ कि जिन शब्दों का वे प्रयोग करते है, उनका पूरा अर्थ भी नहीं जानते.”

“यह तो तुम्हीं कह सकते हो और तुम्ही मान सकते हो. दूसरा कोई पागल तो मिलेगा नहीं.”

“मैं बताऊँगा तो समझ जाओगे, मानो भले नहीं. पहली बात बौधिक का विरोध हुड्गंद मचाने के रूप में प्रकट नहीं होता, तुम्ही कहते हो तानाशाह फ़ौज से नहीं विचारों से डरता है. हुडदंग विचार नहीं है यह मानोगे? हुडदंग को कुचला जा सकता है, वह बंदर घुड़की हो तो उसकी उपेक्षा कर के अपनी मौत मरने को छोड़ा जा सकता है परन्तु विचारों को शक्ति से न तो दबाया जा सकता है न उपेक्षा से काल कवलित किया जा सकता है. तुम कैसे बुद्धिजीवी हो जिसके पास विचार के नाम पर दंगा, फिकरेबाजी, चुगलखोरी के अलावा कुछ है ही नहीं. पहले दिन से लेकर आज तक किसी चूक या अनीति का मार्मिक विश्लेषण तक नही.

“अब दूसरी बात समझो. सता के अनेक रूप हैं और बुद्धिजीवी उन सभी का विरोध करता है इनमे राजसत्ता सबसे बाद में आती है परन्तु तुमको इस शब्द का अंतिम अर्थ ही पता है क्योंकि तुम सता के लिए प्रयत्नशील दलों के पालतू का काम उनके तंत्र का अंग बन कर और अपनी स्वतन्त्रता की कीमत पर कर रहे हो. यह सत्ता का विरोध नही हुआ सत्ता के द्वंद्व में एक सत्ता का सेवक बनाना हुआ. बुद्धिजीवी विचार सत्ता के बल, समाज को कायल बना कर सत्ता के गलत निर्णयों के विषय में जागरूकटा पैदा करके करता है. तुम्हारी बुद्धि का दिवाला यह कि तुम इतनी गलत बातें करते हो या इतने गलत तरीके अपनाते हो कि तुम्हारी नासमझी उस सत्ता को ही मजबूत करती है जिसको मिटाने का दम भरते हो फिर भी तुम न इसे समझ पाते हो न आदत से बाज आते हो. उलटे जिस समाज को आंदोलित करना है उसे नासमझ करार दे कर अपनी ग्लानि कम करते हो.

“तानाशाह बुद्धिजीवी से इसलिए घबराता है कि वह अपनी शक्ति के लिए सत्ता के दूसरे रूपों से समर्थन और औचित्य जुटाता है जो इतिहास और परंपरा की गलत समझ से जुडा हो सकता है, वर्तमान की गलत व्याख्या से पैदा हो सकता है, अपने राष्ट्रीय हितों के विपरीत काम करने वाले विश्वासों, योजनाओं या इतर देशों से जुडा हो सकता है. सबकी एक ही काट है उनकी सही व्याख्या, वस्तुपरक विवेचन यह तुम नही कर पाते हो.

“संविधान ने हमें जो भी अधिकार दिए हैं वे अमर्यादित नहीं हैं. सत्ता का विरोध करना हमारी स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है और यदि संविधान में इसका उल्लेख ना हो तो भी इसका हमें नैसर्गिक अधिकार है परन्तु इसकी समझ और उससे जुदा दायित्वबोध ही न हो तो उसी संविधान ने सत्ता को समाजहित में मनचलेपन को नियंत्रित करने के जिम्मेदारी और शक्ति भी दी है. उसे दमन कह कर अपना बचाव नहीं किया जा सकता.

“जो तुमने कहा उससे मेरी सैद्धांतिक सहमति है. जो तुम करते हो वह उन्हीं सिद्धांतो के विपरीत है इसलिए मै जत्थाबंद मुर्खता की आत्मविनाशी सट्टेबाजी का और बौद्धिकता को इस अधोगति में पहुंचाने का विरोध करता हूँ, “”