Post – 2017-07-05

अहंकारवश नहीं

‘‘तुमसे जवाब मांगता हूं तो तुम नसीहत देने लगते हो कि हमें क्या करना चाहिए। दूसरी कलाविधाओं के लोग जिस तरह विचार विमुख रहते हैं, उसी तरह साहित्यकार को भी बनाना चाहते हो। और मुझसे कहते हो यह समझ कर आना वह समझ कर आना। तुममें इतना अहंकार कैसे आ गया कि तुम सबको सिखाते रहो पर उनसे कुछ भी सीखने को तैयार न होओ। जब मैं कहता हूं इस इतने संवेदनशील विषय पर क्यों नहीं लिखते तो जानते हो मैं क्या करता हूं? मैं सीधे तुम्हारे ऊपर यह आरोप लगाता हूं कि तुम भी ऐसी गतिविधियों का मौन समर्थन करते हो। बोलो अपने बचाव में कुछ कहना है?’’

जाहिर है मुझे घेरने की लगातार कोशिशों के बाद वह खीझ कर मुझे शूली पर चढाने की पूरी तैयारी के साथ आया था।

मैंने अपना गुनाह कबूल करते हुए कहा, “तुम दोस्त होने के नाते मेरा कुछ लिहाज कर गए। मैं गोरक्षा के नाम पर की जा रही गुंडागर्दी पर चुप रहकर उसका ही मौन समर्थन नहीं कर रहा हूँ, सरे राह औरतों की इज़्ज़त उतारनेवालों, लोगों को ज़िंदा जला देने वालों पर, परिवार को बंधक बना कर पति और पिता की आँखों के सामने उनकी पत्नियों और बेटियों की इज़्ज़त उतारनेवालों के विरोध में न लिख कर उनका भी मौन समर्थन कर रहा हूँ, आये दिन सबसे पहले सुनाए जानेवाले गैंगरेप के किस्सों पर चुप रहकर उनका भी मौन समर्थन कर रहा हूँ, अभी बशीरहाट में जो कुछ होरहा है, उस पर भी मौन, जिसमे मुर्दे को अन्त्येष्टि तक जाने के रस्ते तक नहीं मिल रहे और मैं मौनरह कर इनका समर्थन कर रहा हूं। मेरे गुनाहों का तो कोई अंत है ही नहीं, और तुम दोस्ती में इतने सारे अपराधों में मेरी भागीदारी के बावजूद, सिर्फ गोरक्षा के नाम पर चल रही गुंडागर्दी पर मौन रहने का अपराधी बता रहे हो। इतना पक्षपात ठीक नहीं । इससे अच्छा तो यह होता की तुम पूछते मौन क्यों हूँ?”

वह कुछ सकपका तो गया पर संभल कर बोला, “उसी का मौक़ा तो दिया है ।”

“तो सुनो। मैं इसलिए मौन हूँ कि कानून और व्यवस्था का काम लेखक के जिम्मे नहीं है। यदि मैं हंगामा करूं तो जिनकी यह जिम्मेदारी है उनका काम बढ़ जायेगा। पुरानी समस्या में मुझे समझने, समझाने और चुप रखने की समस्या उस समस्या से भी अधिक उग्र हो जाएगी जिससे मूल समस्या को हल करने में उसे बाधा पड़ेगी।

“यदि सभी लोग पूरी निष्ठा से केवल अपना काम करें तो दुनिया अधिक सुथरी दिखाई देगी। यदि अपना काम छोड़कर दूसरों का काम करने लगें तो कोई काम सही न होगा और समस्यों के भीतर से समस्याएं पैदा होंगी और उनकी बाढ़ आजायेगी, जैसा कि तुम्हारी अतिसक्रियता से हुआ है और इस अतिसक्रियता के पीछे किसी की पीड़ा से कातर होने का भाव नहीं है। घटिया सौदेबाजी है। राजनीतिक लाभ है। चिताओं पर रोटी सेंकने का कमीनापन है, अन्यथा तुम चीत्कार भरते या नहीं पर तुम्हारी नज़र में यातना के सारे रूप आते और तुम अपने आप से सवाल करते, “यह समाज किसने बनाया जिसमें जघन्यतम हिंसा मनोरंजन का स्थान ले चुकी है और मनोरंजन की जिम्मेदारी लेने वाले इसी का कारोबार कर रहे है। और तब शायद मेरी तरह तुम्हे भी लगता इन गुनाहों कि कुछ जिम्मेदारी हम पर भी है क्योंकि हम अपना काम ठीक से नहीं कर सके, मानव चेतना और सुरुचि निर्माण का काम नहीं कर सके। दूसरों के काम में भी खलल डालते रहे। हमने साहित्य-संगीत-कला-विहीन करके अपने समाज को पुच्छ-विषाण-हीन पशुओं के समाज में बदल दिया। इतना समझ में आजाय तो कल आना यह जानने के लिए कि तुम्हे हल्ला मचाने की जगह सोचने की सलाह मैं अहंकारवश नहीं, व्यग्रतावश देता हूँ।