Post – 2017-06-17

सफाई दर सफाई

पहाड़ पर बैठ कर जितनी उूंची बात की जा सकती है उतनी उूंची बात मैंदान में सोची तक नहीं जा सकती। इसे मानने वाले सरेराह मिल जाएंगे। सभी को पता है कि ऊंचे विचारों की खोज में हमारे साधु-सन्त पहाड़ों पर चले जाते थे और किसी गुफा में तब तक पड़े रहते थे, जब तक ऊंचा विचार मिल न जाए और जब मिल जाता था तो लौटने से डरते थे कि मैदानी उचक्के उसे उनसे लूट न लें। परन्तु इस बात की ओर कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि पहाड़ से जिधर भी देखो, तरह तरह की गहराइयां ही दिखाई देती हैं, इसलिए पहाड़ पर बैठ कर जितनी गहरी बात सोची जा सकती है वह भी मैदान में कुएं में झांक कर भी संभव नहीं। कूपमंडूक बन कर तो कदापि संभव नहीं जो संस्कृत में पारंगत जगत के लिए दिवंगत होने पर होता है जिसमें ‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्’ का दर्दुर जाप आरंभ होता है। इसका व्यक्तिगत अनुभव न होता तो मैं इसे आपके साथ साझा भी न करता।
हुआ यह कि विचार संसद में जिसका नाम ‘सांस’ इसलिए रखा गया था कि पहाड़ पर दमे और टीबी के मरीज सांस की तलाश में ही आते हैं। आ नेवाले मित्र िवचार लादे चढ़ाइयां चढेंगे तो उनकी सबसे पहली जरूरत दम मारने की होगी। सांस बची तो आस बची, और यदि निराशा ही हाथ आई तो उससे बाहर आ ने का रास्ता निकालने का विषय तो मिल ही जाएगा। मैं सदा से वर्मा जी की दूरदर्शिता का कायल रहा हूं इस बार सीढिया चढ़ते चढ़ते हो गया क्योंकि सीढ़ियां मैं बाद में चढ़ा सांस पहले चढ़ गई।

लोगों के पास बहस करने के लिए ढेर सारी जानकारियां और ढेर सारे मुददे थे। मेरे पास पिछले एक दो साल से मोदी के सिवाय कोई मुद्दा ही नहीं। गलत कह गया। क्षमा करें।

मैं तो तरह तरह के विषयों पर इतनी लंबी पोस्ट लिखता हूं कि उन्हें पढ़ने वाले बेहोश हो जाते हैं। समझदार लोग बेहोशी से बचने के लिए मेरे लिखने से पहले ही लाइक करने के लिए तैयार रहते हैं। उनको अस्पताल का खर्चा नहीं उठाना पड़ता।

कभी कभी मैं मोदी पर भी उतने ही उदार भाव से उतनी ही लंबी पोस्ट डाल देता हूं। पर जब सोचने के लिए मशहूर लोगों की वाल पर यह जानने के लिए जाता हूं कि वे आजकल क्या सोच रहे हैं तो यह देख कर हैरानी होती है कि वे मोदी छुट किसी दीगर मुद्दे की पुट तक नहीं आने देते और दिन में मोदी पर दसियों बार बोलने के बाद भी कहते कुछ नहीं हैं।

वे जो कुछ लिखते हैं वह उन्हीं की परिभाषा से मसखरी, छेड़छाड़, फिकरेवाजी आदि का वह रूप होता है जिसके लिए आज कल मेरी जानकारी में एक नया शब्द आया है जिसे ट्रालिंग कहते हैं और जिसे असभ्य आचारण माना जाता है। निराशा का यह आलम कि एक झटके में जो सभ्यता के मानदंड तय करते थे वे उन्हीं मानदंडों पर कसे जाने पर अराजक और असभ्य सिद्ध होरहे हैं ।

मैं इस आशा में गया था कि कम से कम इस मौके पर यह जान पाऊंगा कि यदि मोदी गलत हैं तो क्यों और कितने, इसका पता तो चल ही जाएगा। बात के केन्द्र में तो सांस थी पर सुबह शाम, जब सांस लेना कम और चाय की चुस्की लेना अधिक रास आता था, जंभाई लेते, जो बेबात का दौर होता था उसमें मोदी भी आ ही जाते। पर कटाक्ष ट्रालिंग के दायरे में ही, व्यक्तिगत आचार और व्यवहार को ले कर, भाई के साथ, पत्नी के साथ, कोट और पैंट के साथ वह आदमी किस तरह की तुच्छता के नमूने पेश करता है।

प्रधान के पद पर बैठे किसी व्यक्ति का ऐसा निजी आचार सामाजिक विमर्श का विषय नहीं होना चाहिए, कम से कम मनस्वी लोगों के बीच चर्चा का विषय नहीं होना चाहिए, जिसका असर सार्वजनिक जीवन पर न पड़ता हो या नगण्य पड़ता हो,। उदाहरण के लिए नेहरू जी के जीवन व्यवहार से यह तो पता चलता है कि उन्होंने अपनी जैव आवश्यकताओं का जिम्मा किसे सौंप दिया था और उसकी जैव आवश्यकताओं की पूर्ति का क्या प्रबन्ध किया था इसे आलोचना का विषय जघन्यतम और क्षुद्रतम सिद्ध किए जाने वाले जनसंघ और उसके जनक संघ ने भी न बनाया जब कि उच्च आदर्शों पर पले दल और बुद्धिजीवी मोदी पर केवल ओछे आरोप लगाते रहे हैं।

उनके वे ही निर्णय कार्य, विचार और संबंध जिनका देश और समाज के हितों पर प्रभाव पड़ता है, आलोचना का विषय होना चाहिए। यह प्रधान को होश में लाने के लिए, उसे नियन्त्रित करने और सही राह पर लाने के लिए और यदि वह न सुधरे तो उसके विरोध में जनचेतना उभारने में काम में लाया जाना चाहिए। पर ऐसा करने के स्थान पर समझदार और जिम्मेदार लोग तक ट्रालिंग में पूरा का पूरा दिन लगा दे रहे हैं, यह सोच कर चिन्ता होती है।

मोदी की वकालत के बाद भी दर्जनों बातों को लेकर मेरे मन में सन्देह है। मैं इन क्षेत्रों का अधिकारी व्यक्ति न होने के कारण इस आशा में रहता हूं कि इनका सही सही और गंभीर विवेचन कोई अन्य करेगा। जब किसी ने ट्रालिंग का दायरा पार न किया तो केवल एक सवाल मेरे मन मे उभरा और वह था स्वच्छता अभियान का। इसका आरंभ मेरी समझ से गलत हुआ है। दूसरे भी सवाल हैं। उन्हें उठाएंगे तो रास्ते से भटक जाएंगे।

मोदी की नीयत पर मुझे आज भी भरोसा है, उनकी सूझ पर भी, उनके संकल्प पर भी, परन्तु उनकी जल्दबाजी से मुझे डर लगता है। अच्छे इरादे से, पूरी निष्ठा से, आरंभ किए गए कामों में यदि अधिक उतावलापन दिखाया जाय तो उसके परिणाम उल्टे ही नहीं होते, उसकी भावी संभावनाओं को भी समाप्त कर देते हैं। इसका एक उदाहरण है आपातकाल में जारी परिवार नियोजन है। यह आज भी भारत की सबसे बड़ी समस्या है परन्तु जल्दबाजी के कारण संजय ने इसे डरावना बना दिया।

क्या पूरी सावधनी से उच्चतम मानकों का निर्वाह करते हुए शौचालय न बनाए गए तो वे भूजल को उसी तरह विषाक्त नहीं कर सकते हैं जैसे झटपट में, मलशोधन का प्रबन्ध किए बिना बड़ी नदियों में गन्दे और विषाक्त जल के मिलने से पैदा हुआ जिस पर अरबों खर्च करने के बाद भी कोई गोचर परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा।

मैं केवल यह सुझा रहा था कि इनी ज्वलंत और ऐसी दूसरी ज्वलंत समस्याओं पर यदि आपकी नजर नहीं जा रही, दिन रात मारण मन्त्र का पाठ कर रहे हैं तो आप कैसे माक्सवादी हैं? हमारे बीच एक अधिवक्ता भी थे जिन्होंने अनगिनत नहीं तो भी बहुत सारे पीआईएल डाले हैं और सबमें जीत पाई है। मैं समचुच चिन्तित था इसलिए कहा, इस पर भी एक पीआइएल डाल दें कि सही मानकों के निर्वाह की क्या व्यवस्था की गई है। जब तक सरकार इसे सुनिश्चित न करे तब तक उसे धीरे चलना चाहिए। सावधानी के साथ। उन्होंने कहा, करूंगा पर आपको पक्षकार बनना होगा। मैं तैयार हो गया। उसका मजमून भी मुझे ही बनाना होगा। कर सकता हूं पर क्या यह पोस्ट उसका आधार नहीं बन सकती। मैं सचमुच उस स्थिति की कल्पना से सिहर उठता हूं जब पेय जल आहार सेअधिक मंहगा हो जाएगा। लोग भूखों नहीं प्यासों मरेंगे। पानी की बोतलबन्दी का कारोबार अपने चरम पर होगा परन्तु ऐसा जल नदियों के उूपरी स्रोतों में ही सुलभ होगा इसलिए इतनी बड़ी मात्रा में बोतलबन्दी से जलधाराएं तब सूखने लगेंगी। कुछ लोग जो आरोपों का आविष्कार करने में ही सारा दिन लगा देते हैं उनमें से किसी को यह नहीं सूझा कि यह आरोप लगाए कि मोदी यह जल्दबाजी पानी की बोतलबन्दी करने वाली कंपनियों के दबाव में कर रहे हैं। रही पी आइ एल डालने की बात तो जो कुछ मैं ज्ञानचक्षु से देख पाया उसे मंजूर कराने के लिए रजिस्ट्रार को लिफाफा पहुंचाने की नौबत आ सकती है जो मेरे लिए संभव नहीं, इसलिए मैं इसका निर्णय अपने विद्वान अधिवक्ता के स्वविवेक पर छोड़ता हूं।