शास्त्रज्ञता और शास्त्रवादिता
शास्त्र का एक अर्थ शस्त्र भी है। यह अज्ञान का ही उच्छेदन नहीं करता, दूसरे के रहस्यों को जान कर हम उसका सर्वनाश तक कर सकते हैं और वह भी उसके हितू बन कर। पश्चिम के विद्वान आपकी सेवा के लिए आप की भाषा से लेकर संस्कृति तक को जानने का प्रयत्न नहीं करत।वे आप की हर चीज को इतनी अच्छी तरह जानना चाहते हैं जितनी अच्छी तरह आप भी नहीं जानते और इसके साथ ही इस प्रयत्न में रहते हैं कि आप स्वयं उन क्षेत्रों का अध्ययन न करें और जानकारी के मामले में उन पर निर्भर रहें। कहें जिस तरह वे हथियार बनाते हैं, उसका कारोबार करते हैं, कुछ खींच तान कर उसे आपको बेचते या बेचने से इन्कार कर देते हैं, आपके क्षेत्र में तनाव पैदा करके उनकी बिक्री का पर्यावरण तैयार करते हैं, आपका शत्रु यदि उन हथियारों को खरीदने की स्थिति में नहीं है तो उसे किसी बहाने अपना हथियार खरीदने के लिए अपनी शर्तो पर झुकने को मजबूर करते हुए आर्थिक सहायता भी देते हैं जिससे आप अपनी सुरक्षा के लिए चिन्तित हो कर आयुधबाजार के खरीदारों की कतार में खड़े हो सकें और देर सवेर उसके गाहक बन सकें। वे अपने हथियारों का अंबार जुटाते हैं परन्तु उनका परीक्षण करके उनका विज्ञापन और अपनी शक्ति का विज्ञापन करते हुए, बिना बोले, इस विज्ञापन के माध्यम से ही, यह सन्देश भेजने का प्रयत्न करते हैं कि जो हमसे टकराएगा वह चूर चूर हो जाएगा। परन्तु जब उत्तर कोरिया जैसा कोई माचिस के आकार का देश चुनौती देता है कि मैं तेरी धज्जियां उड़ा सकता हूं तो आक्रामकता का गरूर ‘बचें तो कैसे बचें’, में बदल जाती है और मिसाइलरोधी मिसाइलों के विज्ञापन का रूप ले लेती है। मैं उत्तर कोरिया के बारे में जो कुछ जानता हूं उसके कारण उसके शासक से घृणा करता हूं, पर जिनके प्रचार से यह जान पाता हूं, उन पर विश्वास न होने के कारण, केवल उसके आपराधिक बताए जाने वाले कारनामों पर ध्यान देता हूं और उसके प्रतिफलन या परिणामों का आकलन करता हूं तो घृणा जिज्ञासा में बदल जाती है। मेरे बच्चे अमेरिका में हैं. उनका आग्रह है कि मैं उनके पास जाऊं. नहीं जाना चाहता, इसलिए उन्हें मेरे लिए स्वयं आना पड़ता है. मैं अपने काम के कारण कहीं जाना नहीं चाहता। परन्तु एक बार इस सचाई को जानने के लिए समस्त असुविधाओं के होते हुए उत्तर कोरिया जाने का मन करता है कि उसके बारे में प्रचारित बातों में सचाई का अंश कितना है। इसका प्रयास कभी न किया । इसका कारण यह कि मेरी इच्छा जानने के बाद जिस उत्तर कोरिया का दर्शन कराया जाएगा, वह एक दूसरे झूठ से प्रेरित और चालित होगा।
फैलने की आदत है, फैल गया। कहना यह था कि जो काम आयुध निर्माता अपने तरीके से करते हैं वही काम तीसरी दुनिया के देशों के लिए ज्ञान का उत्पादन करने वाले करते है। वे इस बात का प्रबंध करते हैं कि वे देश जिस तरह अपनी सामरिक जरूरतों के दबाव में उसके अस्त्र-शस्त्र का गाहक बने रहते और उनके इशारे पर लड़ते झगड़ते रहते है, उसी तरह ज्ञान के क्षेत्र में उनकी गहरी जानकारी का इस्तेमाल वह आपको नियंत्रित करने, आपके घर में कलह पैदा करने में सफल रहें।और आप उन समस्याओं के समाधान के लिए उनकी किताब, उनके ज्ञान. उनकी सलाह या अपने अध्येताओं की आप्तता के विषय में उनके अनुमोदन या उपहास को अपने निर्णय का आधार मान लेते हैं तो आप बिना किसी प्रतिघात के, उनके सम्मुख ध्वस्त हो जाते है।
हथियार प्रकृति के अनमोल दायों को विषाक्त करके दूसरों के दमन, उत्पीड़न, मानवता के संहार की योजना का अंग है जिससे उनका अपना समाज भी कुशिक्षित होता है।
कुशिक्षित समाज, दिगभ्रमित होता है पर ज्ञान के लिए उन्हीं स्रोतों पर निर्भर होता है इसलिए उसके दो रूप हो जाते हैं. एक है पश्चिमी देशों के सामान्य जनों की मानसिकता के निर्माण का जिसके मन में यह विश्वास पैदा किया जाता है की ये सभी देश कितने दुष्ट हैं, कितने जाहिल हैं, उनका बौद्धिक स्तर कितना गिरा हुआ है की वे किसी क्षेत्र में ऐसा एक भी विद्यां पैदा नहीं क्र सकते जो नई सैद्धानिकी दे सके, और इनको सही करने के लिए इनके साथ जो कुछ भी किया जाय वह ठीक है. दूसरा रूप उस ज्ञान पर पलने वाले भारत जैसे देशों में देखने को मिलता है जहाँ इसकी दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं . पहली है पश्चिमी ज्ञान पर अधिकाधिक निर्भरता और दूसरी अपने जातीय अंधे कुँए से आज की समस्याओं के समाधान की कोशिश ।
यह अन्धशास्त्रवाद का रूप ले लेती है। इसमें अपने वेदों पुराणों, कुरआन और हदीस में जो कुछ लिखा है वह अकाट्य बन जाता है। यह इतना हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण होता है की हमारी चेतना को आत्मनिर्भर बनाने की जगह पश्चिमी विषाक्त विचारों को स्वीकार्य बनाने का काम करता है. आत्मविमुखता पैदा करता है। इसका एक नमूना कल एक प्रतिक्रिया में देखने को मिली. वेद में कुछ भी गलत नहीं लिखा है। सच यह है की पूरब का ज्ञानशास्त्र हो या पश्चिम का मुक्ति दोनों से चाहिए। यह मुक्ति कहीं से टपकेगी नहीं, इनके आलोचनात्मक पाठ से और समस्याओं की पूर्वाग्रह मुक्त विवेचना से ही आ सकती है। वेद में ऐसा कुछ नहीं है जो पुनर्विचार की अपेक्षा न रखता हो। जो ऐसा नहीं कर सकते वे ज्ञान की बंद गली के बादशाह हैं। उनके पास विचार नहीं होता पर विश्वास अडिग होता है। मूर्ख उतना खतरनाक नहीं होता जितना शास्त्रजड़. वह सीखने और सोचने की क्षमता तक खो चुका होता है और मां के गर्भ से पैदा होने के बावजूद अपने को ब्रह्म के मुख से पैदा हुआ मान कर अपने को दूसरों से जन्मना श्रेष्ठ मान सकता है. वे मुस्लिम मुल्लों की आलोचना कर सकते हैं पर यह भूल जाते हैं की वे स्वयं हिन्दू मुल्ला हैं और उनका वश चले तो हिन्दू समाज को वही बना दें जो मुस्लिम समाज को उनके मुल्लों ने बना रखा है.