Bhagwan Singh
कल 10:23 अपराह्न बजे · Ghaziabad ·
देवलोक का बुलावा
देवलोक का बुलावा यमलोक का बुलावा नहीं है. मरने के बाद ही देवलोक पहुंचा जा सकता है, देवलोक के देवलोक बनने से हज़ारों साल बाद स्वर्ग की और उससे भी हज़ारों साल बाद यमराज, यमलोक और यमदूत की संकल्पनाओं का जन्म हुआ.चित्रगुप्त की, ब्रह्मा द्वारा टांकी से भालपट्ट पर भाग्यलेख लिखने की कल्पना तो और भी बाद की, लिपि, आरेखन और मुद्राओं आदि पर टंकन के विकास के बाद की है. भौतिक और तकनीकी विकास के अनुरूप ही मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ है और उस विकसित बुद्धि ने नए प्रयोग और भौतिक प्रगति के मार्ग प्रशस्त किए हैं. कहें इनका विकास द्वंद्वात्मक पद्धति से हुआ है.हमारा दसियों हज़ार साल का इतिहास भाषा के माध्यम से ही तैयार किया जा सकता है.
मुंह मत बिचकाइये कि अपनी संस्कृति की चर्चा करते हुए मैंने, वर्ष और संवत्सर के रहते हुए म्लेच्छ भाषा का ‘साल’ क्यों लिख दिया. यह जो सम्वत-सर का सर है न, वही ईरानी प्रभाव में साल बना है, और यह जो म्लेच्छ भाषा का सन है वह चन (जो पानी से उछल कर चन, चान और सन बन गया और एक और तो अंग्रेजी में सूरज का वाचक हो गया और दूसरी ओर काल का जिसे आप त्रिकाल के सनत, सनातन और सनन्दन में मूर्त चिर नवजात, नग्न पर सभी देवों और त्रिदेवों को तुच्छ समझने वाले त्रिविभक्त होकर भी एक कालदेव की बहुत बाद में विकसित अवधारणाओं में देख सकते है) म्लेच्छ भाषा का सन बना है.हज़ार तो सहस्र का तद्भव है ही.(‘मो तों नातो अनेक मानिये जो भावे’ का हिंदी अनुवाद करते हुए इसे इस रूप में पढ़ें ‘अपने उनके नाते अनेक, मानें वह जो सबको भावे’, तो आप को यह मेरी भाषा की सही समझ दे पाएगी). ना इंग्लिश ना फ़ारसी सड़क छाप बकवास. यही आदर्श हमारा, यही अंजाम हमारा!
जिस व्यक्ति ने मुझे देवलोक में, अर्थात कौसानी में आने को आमंत्रित किया था उसका नाम मैं आजतक नहीं जान पाया. वहाँ गया, उससे मिला, पर मिलने वालों में कौन वह था, जिसने मुझे पहली बार, दो महीने पहले, आमंत्रित करते हुए यह प्रस्ताव रखा था कि हम जून में १ से ७ तक कौसानी में एक स्थल पर कुछ बुद्धिजीवियों के साथ एक सप्ताह गुजारने का कार्यक्रम बना रहे है. आप का नंबर बहुत प्रयास से मिला. मैंने इस आवाज को अपरिचित पाकर भी यह न पूछा कि वह व्यक्ति जो मुझे जानता है वह कहीं इस बात से अपमानित न अनुभव करे कि मैं उसे जानता तक नहीं.
मेरे साथ यह ग्रंथि है. मैं उपेक्षा झेल सकता हूँ अपनी उपेक्षा करने वालों की भी उपेक्षा नहीं कर सकता. यदि कोई मेरा अपमान कर बैठे तो उसे झेल लेता हूँ, परन्तु प्रतिशोध में भी उसका अपमान करने की नहीं सोच पाता, अपमानित होने पर उसे जो पीडा होगी उसकी कल्पना से व्यग्र अनुभव करता हूँ. यह असामान्य आचरण है. मैं इसे सही नहीं मानता और इसे समझने में भी विफल रहा हूँ इसलिए आज, पहली बार इसका रहस्य मेरे सामने इस बुलावे के सन्दर्भ में खुला है. मैं इसे आप सबसे साझा करना चाहता हूँ.
मैं उन अपमानजनक स्थितियों से अपने शैशव से लेकर बाल्यकाल तक निरंतर गुजरा हूँ जिनसे मिलती जुलती पर अधिक आहत करने वाली परिस्थितियों से उन्हें गुजरना पड़ा जिन्हे हम अतिदलित कहते हैं. पर शेष शूद्रों की संतानों को भी उन उत्पीड़नों से नहीं गुजरना पड़ता है. कुछ मामलों में अस्पृश्य माने जाने वाले दलितों में भी नही. कारण मेरी पीड़ा और अपमान मातृस्नेह से वंचित और विमाता के प्रतिशोध की ज्वाला से पैदा हुआ था और इसकी सबसे बड़ी विडम्बना यह कि मुझसे बड़े भाई और बहन जो उसके अन्याय पर विद्रोह कर बैठते थे उनसे वह डरने लगी थी. मैं जो इतना छोटा था कि यह मान बैठा था कि मेरी दिवंगत मां ही नाराज हो कर चली गई थी अब वही वापस आई है और उससे मिलते ही पूछ बैठा था, ‘तुम मुझसे नाराज होकर कहाँ चली गई थीं?’ इसे भ्रम या स्मृतिदोष माननेवालों से मै बहस नहीं कर सकता परन्तु मुझे यह भ्रम है कि यह सुनकर वह विचलित हो गई थी. किंचित द्रवित.
परन्तु यही तो इस बात का भी प्रमाण था कि दूसरों की तुलना में मेरी माँ मुझमें अधिक ज़िंदा है और अपने जीवन से अपनी सौत की स्मृति तक को मिटाना उसकी नैसर्गिक ज़रूरत थी. उसे सीधी चुनौती देनेवालों की माँ मर चुकी थी, उनसे वह दूसरे हथियारों से लड़ सकती थी, परन्तु मुझसे वह मुझे मिटा कर निबटना चाहती थी और मैं मिटने से बचने के लिए उसके अन्याय को सहते हुए भी इस भय से कि यदि उसे किसी ने समझाते हुए भी उसके अन्याय की गाथा सुना दी तो वह मेरे प्राण ले लेगी और उसके अपने प्रति व्यवहार से मैं सोचता था कि वह ऐसा कर भी सकती है, वह मेरे साथ क्या व्यवहार करेगी इसकी कल्पना करते ही सोचना बंद कर देता था और आज भी बंद करने जा रहा था कि वे अनुभव याद आ गए .
कई बार सोचता हूँ सवर्णों के अपमान को सहने वाले , आज की भाषा में दलित, अपना अपमान झेल कर भी अपमान करनेवालों का मनसा, वाचा, कर्मणा किसी तरह अपमान करने से बचने वाले क्या विवशता में ही ऐसा करते थे या उसकी पीर को जानने के कारण पूरे जगत को, अपने अपकारी तक को उस वेदना से बचाना चाहते थे, तो सही निर्णय नहीं कर पाता. लगता है पीड़ा ने उन्हें सहज ही साधना की उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया था जिसको मानापमानयोः तुल्यं की अवस्था कहा गया है.