देववाणी (तैंतीस)
घालमेल
चन्द्रमा का अंतिम शब्द है मन या मस। मैं स्वयं दुविधा में हूँ कि ये दो शब्द है या एक ही शब्द को दो भाषाई समुदाय अपनी ध्वनिसीमा के कारण दो तरह से बोलते रहे।
इनका सबसे रोचक पहलू संस्कृत व्याकरण में मिलता है। इसमें चंद्रमा को नपुंसक माना गया है परन्तु रूपावली में एक नई समस्या सामने आती है. दूसरे नपुंसक लिंगी शब्दों की रूपावली में प्रथमा एक वचन में नपुंसकलिंगी रूप आता है। उदहारण के लिए फलं की रूपावली है फलं फले फलानि परन्तु चंद्र्मन की रूपावली आरम्भ होती है चंद्रमा चन्द्र्मसौ चन्द्रमस: । यदि ध्यान दें तो पाएंगे कि एक समुदाय के लोग चंद्रमा को पुलिंग मानते थे। दुसरे इसे नपुंसक लिंग मानते थे। नपुंसक रूप एक ग़लतफ़हमी का परिणाम लगता हैं ।
मन जैसा हम कह आये हैं स्वत: चन्द्रमा के लिए प्रयोग में आता था। चन – चं +और (तर-) / दर – द्र = चन्द्र चलन में आचुका था। लगता हैं उसके बाद मन बोलने वाला समुदाय मुख्या धारा का अंग बनकर द्विभाषी बना और मन का जन की तरह मन: मनौ मना: रूप चलता रहा. यह एक संभावित कारण लगता है।
जब हम देववाणी से संस्कृत की दिशा में आये बदलावो की बात कर रहे हैं तो ऋग्वेद काल से पहले पांच हजार या इससे भी लम्बी अवधि में आये परिवर्तनों के जहाँ तहाँ से जुटाए, मिटने से बचे रह गए, पदचिन्हों के सहारे उस विकास यात्रा को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं । इस अवधि में कई तरह के मेल मिलाप हुए हैं और फिर भी उन्ही समुदायों के कुछ लोगों ने दूसरे समुदायों में मिल कर उन्हें भिन्न रूप में प्रभावित किया हैं और जहां तहाँ हर तरह के मेलजोल से बचते रहे हैं ( गो मेलजोल से बच कोई नहीं पाया हैं। उस प्रक्रिया पर बात करने से भटकाव होगा) । इन्हीं में उस आशंकाओं के किवारण के सूत्र भी छिपे हैं।
हमने कहा एक समुदाय मन को चन्द्रमा के लिए प्रयोग में लाता था और उसमें मन पुल्लिंग था और गहरे मेल मिलाप के बाद जब सभी के शब्दों के मेल से रूप बने तो एक जो पुल्लिंग मानता था उसने चंद्रमस चन्द्र्मसौ चन्द्रमसः जारी रखा और दूसरा समुदाय चंद्रमन की नपुंसक रूपावली चलाता रहा। उसकी रूपावली तो न चल सकी, शब्द के रूप में चन्द्रमन चलता रहा जिसमें मन बचा रहा और चन्द्रमस केवल रूपावली में दृष्टिगोचर होता हैं।
संस्कृत में मस/ मास =चन्द्रमा तो लुप्त हो गया पर उसके एक चक्र के लिए मास बचा रहा। फ़ारसी में माह और मह और महीना तीनो सुरक्षित हैं और संस्कृत में भी इन आशयों में बहुत पहले प्रयोग में आने को प्रमाणित करते हैं जब की हम देख आये हैं की मन अनेक बदलावों के बाद अंग्रेजी मून और मंथ, मेन्सुरेशन में तथा मन या ज्ञान पक्ष में मेन्टल/ माइंड आदि में सुरक्षित हैं।
कुछ शंकाओं का निराकरण करते चलें। क्या यह सम्भव हैं की एक ही भाषा में कुछ लोग किसी शब्द का एकलिंग में प्रयोग करें और दूसरे भिन्न लिंग में। हिंदी में बहुत से लोग सामर्थ्य का प्रयोग स्त्रीलिंग में करते हैं, जो गलत हैं। दूसरे पुल्लिंग में जो सही हैं. परन्तु जैसा पतंजलि और भर्तृहरि ने कहा हैं, और जो बात पश्चिमी भाषाशस्त्रियों को कुछ देर से समझ आई, भाषा का निर्माण लोक करता हैं, वैयाकरण नहीं, इसलिए लोकव्यवहार में आने पर सही गलत की और ध्यान नहीं दिया जाता । न तान लोकप्रसिद्धत्वात कश्चित तर्केण बाधते (भर्तृहरि ) ।
संस्कृत में लिंग को लेकर खासी अनियमितता हैं । हिंदी में उर्दू के कारण कुछ अनियमितताएं आई हैं। संस्कृत में लिंग की अनियमितता के पीछे भी यही कारण हैं।हिंदी में तो एक भाषा की संगत का परिणाम हैं की ‘हम तुम्हारे साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने वाले हिंदी और हिंदुत्व से ऊपर उठे सेक्युलर हैं ‘ यह दवा करने के लिए उर्दू की उन गलतियों का भी प्रयोग करते हैं जिससे हिंदी सीखनेवालों की उलझन बढे और उनके लेखन से मुग्धा होकर उन जैसी ग़लतियाँ दुहराने वालों की संख्या बढ़कर सही प्रयोग करने वालों से अनुपात में आगे चला जाय.
एक प्रसंग याद आ गया . मेरे एक मित्र हैं राजकुमार सैनी. मित्र इसलिए हैं की कोई कितना भी बड़ा हो अगर गलत कह रहा हैं उससे भिड़ जाते हैं. मुझ से भी भिड़ गए. हो सकता हैं मैं ही उनसे भिड़ गया होऊं. पचीस साल पुरानी बात हुई. सवाल था सुनहरी मौका का . मैंने कहा यह गलत हैं. सैनी जी डट गए यह प्रयोग तो कमलेश्वर ने भी किया हैं. मुझे ऐसे मौकों पर खास मज़ा आता हैं, मैंने कहा, कमलेश्वर कहानियां बहुत अच्छी लिखते हैं पर उनको हिंदी नहीं आती. सैनी जी भड़कते हैं तो देखते बनता हैं. कहा क्या बकते हैं आप. जब दूसरा आपा खोता हैं तो मुझे खास मज़ा आता हैं. वह उग्र और मैं मुस्कराता रहा. वः अपनी ही उग्रता के शिकार हो कर मेरी बात सुनने को तैयार हो गए . मैंने पूछा मौका स्त्रीलिंग हैं या पुल्लिंग. कुछ देर तक वह समझ ही न सके की मैं कह क्या रहा हूँ.
मैंने दूसरा प्रश्न किया, आप अच्छा मौका कहेंगे या अच्छी मौका. या अच्छा मौका?
उनके मुंह से निकला अच्छा मौका।
मैंने पूछा फिर सुनहरी मौका ठीक है या सुननहरा मौंका?
सैनी जी इतने साफपाक थे की अपनी गलती का अहसास करते हुए जब वह माथा पीटते थे तो उनके मुंह के बल गिरने का धमाका भी सुनने देती थी. इस बार भी ऐसा ही हुआ.
पर सोचिये हिंदी को अपनी छोटी सी जिंदगी में उर्दू से पाला पड़ गया और हम तुम्हारे साथ हैं के चक्कर में इसने आपतोषवाद को भाषा तक पहुंचा दिया हैं. देववाणी को संस्कृत बनने से पहले उन हज़ारों सालों में कितने समझौते या समायोजन करने पड़े इसका कोई हिसाब दे सकता हैं! हम एक कोशिश कर रहे हैं. इसमें दूसरा कोई साथ आ सकता हैं?
मन का प्रयोग भाषा भेद से मत, मथ, मद, मध्, मन, मड और मण आदि कई रूपों में होता रहा लगता हैं फिर ये सभी रूप सामान्य व्यवहार में आने लगे। इनमे भाषों की घोषप्रियता और महाप्राणन की प्रवृत्ति देखी जा सकती हैं। एक दूसरी प्रवृत्ति स्वरभेद की हैं!