Post – 2017-05-13

टिप्पणी दो
ऋग्वेद के समय तक देव समाज में पानी, चमक तथा चाँद को मन कहने वाला समाज इतने पहले मिल चुका था कि इस समाज को यह भूल चुका था कि प्रकाश, और जल और चाँद के लिए स्वतंत्र रूप में मन का प्रयोग होता था. मन तो गुजरात के खदिर की दो जल धाराओं मनहर और मनसर और मानसरोवर को छोड़कर जलार्थकता की याद दिलाने को कहीं बचा ही नहीं। ऋग्वेद में एक स्थल पर – चन्द्रमा अप्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि । में पानी के भीतर इसके निवास और उसी के आकाश में गतिमान होने का हवाला अवश्य है, पर इस पुरे सन्दर्भ पर ध्यान दिए बिना अर्थ करते हुए सर घूम जाए। ज्ञान और प्रकाश की याद तो मन, मति, मणि, मनका में फिर भी बचा है। अंग्रेजी मून, और मंथ का तो तब पता न था।