देववाणी (१5)
पूर्वाग्रह
मैं जो लिखता हूँ उसे कितने लोग पढ़ते हैं? क्या उतने लोग भी मुझसे पूरी तरह सहमत हो पाते हैं? जो सहमत होते हैं वे अपने कथन या लेखन में क्या उसे उसी साहस और विश्वास के साथ रख पाते हैं? ठीक उसी समस्या पर पहले से बानी राय को पूरी दृढ़ता से माननेवालों की संख्या के अनुपात में यह नकिंचन (नैनो) गणना में आता है? यह बोध हमें एक और नम्र बनाता है और दूसरी अधिक दृढ, क्योंकि नकिंचनता भी शून्य से असंख्य गुना अधिक होती है।
इससे यह जिम्मेदारी भी पैदा होती है की जिसे हम दो टूक प्रमाणित कर आये हैं उसे भी कुछ दूसरे तरीकों से अपने मित्रों के ज्ञान और विश्वास का अंग बनायें।
जानने के बाद भी पूरा विश्वास न जम पाने के कई कारण हैं:
एक तो है हमारे असाधारण मेधा के भाषाविदों की मान्यता, उनका काम आज के कम्प्यूटर युग में भी अविश्वसनीय मेधा की देन प्रतीत होता है। फिर उनकी किसी मान्यता को तनिक भी डिगा पाना और वह भी एक ऐसे व्यक्ति द्वारा जो खुद भी अपने को भाषावैज्ञानिक न मानता हो, प्रामाणिक लगने पर भी विश्वसनीय नहीं लगता। बात केवल संस्कृत के एक मनीषी की नहीं संस्कृत और प्राकृत के सभी पंडितों द्वारा यह माना जाता रहा है कि वैदिक की संतान संस्कृत है जिसकी संतान प्राकृते हैं और उनसे अपभ्र्रंश पैदा हुई और उससे हमारी बोलियां।
तीसरा कारण तो बिलकुल साफ दिखाई देता है की बोलियों में ऐसे शब्द भरे पड़े हैं जो अपने संस्कृत सम तत्सम रूपों के तद्भव या बिगड़े हुए रूप हैं।
अंतिम कारण यह कि आधुनिक काल में तुलनात्मक भाषाविज्ञान की समस्या इस जानकारी से पैदा हुई कि संस्कृत के संख्यावाचक से लेकर सर्वनाम, संज्ञा और क्रियारूप सभी यूरोप की भाषाओँ से इतने मिलते हैं कि यूरोप की भाषाएं और देवशास्त्र संस्कृत से लिए गए प्रतीत होते हैं. प्रवाह की दिशा इतनी स्पष्ट थी कि जैसा मैक्समूलर मैक्डनल्ड आदि अनेक अध्येताओं ने कहा था, हम भारत में उन्हें जन्मलेते, विकसित होते अपने शुद्ध रूप में देखते हैं जब कि पश्चिम में उनके प्रतिरूपों में इनका ह्रास और विद्रूप दिखाई देता है।
इसलिए उनकी सबसे बड़ी समस्या गोरीजाति की आन और सोलहवीं शताब्दी से उपजी श्रेष्ठता ग्रंथि की रक्षा के लिए इसकी आदिम अवस्था को खीँच तान कर भारत से बाहर किसी ऐसे क्षेत्र में ले जाने की थी जहॉ के निवासी काले न हों. ग्रीक और लैटिन की तुलना तो बाद की चीज़ है. रंग सबसे अधिक हावी था इसलिए नॉर्डिक नैन नक्श की चर्चा पहले आरम्भ हुई।
फिर जब रोमांस भाषाओँ का अध्ययन आरम्भ हुआ तो पता चला की लैटिन के पूर्व रूप तो इसकी बोलियों में हैं।. अब एक नया और बहुत जोरदार तर्क हाथ आया की यदि भारत के वैयाकरणों के अनुसार संस्कृत यहां की प्राचीनतम भाषा है और भारत की दूसरी भाषाएं संस्कृत में विकृति आने से पैदा हुई हैं तो संस्कृत के निर्माण की प्रक्रिया कहीं और घटित हुई होगी जहां से यह अपने परिपक्व चरण के बाद भारत में पहुंची होगी।
जितनी निष्ठां से अधिकांश यूरोपीय भाषाशास्त्रियों ने सामग्री जुटाई और नियमों और अपवादों के तुक ताल बैठाते रहे उसमें हमें नहीं लगता की वे जान बूझ कर फर्जी साक्ष्य तैयार कर रहे थे, अपने हित या गरिमा के अनुकूल पड़ने वाले विचारों को हम क्षीणतम सम्भवना या संदिग्ध साक्ष्य पर भी मान लेते हैं और अधिक बारीकी से परीक्षा नहीं करते, इसीलिए हम मानते हैं कि जिस सद्विश्वास के शिकार संस्कृत के वैयाकरण बने थे उसी के शिकार पश्चिमी भाषाविज्ञानी भी बने।
इतिहास और पुरातत्व और नयी वैदिक अधीति ने उस तस्वीर को उलट दिया। और अब भाषा शास्त्रीय विवेचन को फिर उसी ज़मीं से आरम्भ करना होगा। भाषाशास्त्र में हमारे सारे अध्य्यन उसी अवधारणा के तहत किये गए हैं। नामवर जी का रामविलास जी से कुछ विरोध इस कारण भी रहा हो सकता है कि वह शुक्ल जी को द्विवेदी जी से बड़ा आलोचक मानते थे जो गुनाह मैं भी करता हूँ, पर असली कारण जिसे वह खुल कर कह नहीं सकते थे, यह था कि अपभ्रंश पर नामवर जी का काम भी अन्य सभी लोगों की तरह उसी ज्ञानव्यवस्था में किया गया था. नामवर जी का अपभ्रंश पर संस्कृत जैसा ही अधिकार है। मैंने उन्हें अपभ्रंश पढ़ते न सुना होता तो विश्वास नहीं कर सकता था। उनका यह शोध भी उस परिदृश्य में बहुत माने रखता है पर भ्रामक अवधारणाओं के दबाव में किए गए काम सचाई सामने आने पर स्वप्न में किए गए काम की तरह व्यर्थ हो जाते हैं।
अब हम एक उदाहरण से झूठ, अर्धसत्य और सत्य को समझते हुए इस पूरे उलझाव का निराकरण करने का प्रयत्न करेंगे। विज्ञान ऋग्वेद में जजान, जज्ञान, संज्ञान आदि रूपों में प्रयुक्त हुआ है। उदाहरण के लिए आग के लिए एक प्रयोग है – सद्यः जज्ञानः हव्यः बभूथ । 10-6-७ इसका अर्थ है (हे अग्नि ) तुम जन्म लेते ही हव्य हो गए. हव्य का अर्थ विषयांतर के डर से नहीं करूंगा, परन्तु जज्ञान का यहां अर्थ जनन (जन्म लेते ही ) से है न कि ज्ञान से। यही स्थिति तो नहीं, पर मिलती जुलती स्थिति दूसरे प्रयोगों के साथ है। उनसे यह लगता है कि यह जानने के क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग हो रहा है न कि भाववाचक संज्ञा के रूप में।
ऐसा एक ही प्रयोग है जो दशवें मेंडल के इकहत्तरवें सूक्त के देवता अर्थात वर्ण्यविषय के रूप में है। हम जानते हैं कि सूक्तों के ऋषि और देवता का निर्धारण उस संपादक ने ऋचाओं की रचना के हजार दो हजार साल बाद किया था इसलिए यह नहीं सोच सकते कि ऋग्वेद के रचना काल में भाववाचक संज्ञा के रूप में ज्ञान का विकास हो चुका था। संस्कृत में यह प्रचलित है। प्राकृत में यह नाण हो जाता है और बोलियों में यह स्वतंत्र नहीं मिलता पर अनाड़ी में मिलता है.
हम इस भ्रम के शिकार हो सकते हैं कि बोलियों में संस्कृत के प्रयोग प्राकृत के माध्यम से आए। ऐसा ही भ्रम हम अपभ्रंश के संन्दर्भ में भी पाल सकते हैं। पर ध्यान इस बात पर देना होगा कि संस्कृत का ज्ञान भोज. में नाण से ग्यान कैंसे बन गया। अब एक दूसरी समस्या यह कि संस्कृत का ज्ञान अधिक पुराना है या भोज. का ग्यान । यह उलझालने वाला सवाल है। पर इसके भीतर भी एक रहस्य छिपा हो सकता है इसकी पड़ताल तो करनी ही होगी। इसे निम्न रूप में बयान कर सकते हैं:
1- हमे यह न भूलना होगा कि जब हम देववाणी को बनचर भाषा से उठी अवस्था की भाषा मानते हैं तो उसमें भाववाचक ही नहीं जातिवाचक शब्दों का भी अभाव रहा होगा। बौद्धिक विकास निम्नतम से कुछ ही ऊपर रहा होगा। ऐसे में यदि ज्ञान के लिए उसकी भाषा में शब्द न रहा हो तो उसने अमूर्त संकल्पनाओं के लिए शब्द अपनी पहुंच के साधनों से अपनी ध्वनिमाला के अनुरूप ढालते हुए ही लिए होंगे। ऐसी स्थिति में ज्ञान शब्द और उसका भाववाचक आशय उसमे सीधे संस्कृत से या प्राकृत के माध्यम से आ सकता था। परन्तु यदि यह प्राकृत के माध्यम से उसकी ध्वनि व्यवस्था में ढलकर नाड़ रूप में आया तो ग्यान कैसे पहुंचा?
२- दूसरा सवाल जब जातिवाचक और भाववाचक संज्ञाएँ नहीं थीं तो इनको प्राथमिक अवस्थाओं में कोई समुदाय किस युक्ति से बोधगम्य बनाता था? इसका उत्तर बहुत महत्व का है पर इसे हम कल समझने का प्रयास करेंगे।