Post – 2017-04-23

देववाणी (बारह)

आदिम समाज रचना

जिस भाषा को हम देववाणी कहते आ रहे हैं उसे देउबानी कहा जाता था और जो लोग इसे बोलते थे उन्हें देव नही देउ कहा जाता था। ठीक इसी तरह ब्रह्म को बरम कहा जाता था क्योंकि न तो भोजपुरी में व की ध्वनि है न ण की और न ही इसमें असवर्ण अर्थात एक अक्षर का किसी दूसरे से संयोग होता है। इसमें राजा राव बनने की जगह रउआं बन जाता है। ब्राह्मण को बाभन और ब्रह्म बरम कहा जाता है। उच्चारण की जिन आदतों को इतने लंबे टकराव के बाद भी नहीं बदला जा सका वे इस अंचल में बद्धमूल मानी जा सकती हैं।

हमारे सामने कुछ समस्यायें हैं। हमारे प्रस्ताव के अनुसार स्थाई खेती (किसी एक मुकाम पर टिक कर खेती), से पहले खेती का उपक्रम करने वाले समुदायों को सभी जगहों से भगा दिया जाता था। कारण उनकी झूमखेती में वनसंपदा की भारी हानि होती थी। इसके कारण वे जगह जगह भागते फिरे थे। इसकी छाप देवली, देवस्थली, देवास, देवघर और कई अंचलों में प्रचलित उपाधिनामों में बची हुई है। नेपाली का देउबा भी इसी कोटि में आता है, बंगाली का देव भी और झारखंड का बीर सिहं जू देव भी।

अपनी चर्चा में आगे बढ़ने से पहले हमें कुछ परेशान करने वाले सवालों का सामना करना होगाः
1- आज न भी रह गए हों तो कल तक झूम खेती करने वाले इस देश में हुआ करते थे जिन्होंने स्थाई कृषि की दिशा में कदम न बढ़ाया और उनकी भाषा देववाणी नहीं कही जा सकती। ऐसा क्यों हुआ कि कुछ समुदायों ने झूम खेती (अर्थात जंगल जलाओ, और उसकी राख में कुछ दिनों तक खेती करो और उर्वरता घट जाने पर वहां से अलग चले जाओ) की तरकीब से आगे बढ़ना पसन्द नहीं किया? क्या इस अहंकार के कारण कि झूम खेती उन्होंने आरंभ की, दूसरों ने उनसे नकल की। अपनी नकल करने वालों की नकल करने का अपमानजनक काम वे नहीं कर सकते? यदि हां तो देवों को हम खेती का जनक नहीं मान सकते।
2- एक दूसरा प्रश्न असुरों के प्रतिरोध और हिंसा का जैसा सामना देवों को करना पड़ा ओर वे देश देशान्तर में भागते रहे वैसा विरोध इन्हें क्यों नहीं सहना पड़ा?
3- एक तीसरा प्रश्न जो प्रश्न से अधिक एक संभावना है वह यह कि उनकी नकल करने वाले अकेले देव ही थे और कोई नहीं? यदि कुछ अन्य ने इस युक्ति को सीखा तो वे स्थाई खेती की ओर बढ़े या नहीं ओर बढ़े तो कब और कैसे। क्या यह संभव नहीं कि स्थाई खेती अपनाने वाले इस देव समाज का गठन कई समुदायों के मिलने से हुआ हो? क्या यह संभव है कि देव, ब्राह्मण (तेउआ, भरम / बरम) दो भिन्न भाषाई पृष्ठभूमियों के लोग रहे हों जिनमें से एक की बोली में आग के लिए ती का प्रयोग होता था और दूसरे में भर का।
हम एक ऐसे क्षेत्र में काम कर रहे हैं जहां मार्गदर्शन के लिए कुछ नियम तो हैं पर आकड़े आधे अधूरे ही हैं।

हम पहले प्रश्न को लें तो इसकी दुहरी संभावनाएं हैं और यदि यह काम किसी ने पहले किया हो और उसी चरण पर ठहरा रह गया हो तो हमें इससे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वन्य अनाजों का उपयोग मनुष्य बहुत पहले से कर रहा था। पीछे का इतिहास बहुत धुंधला है और जब हम स्थायी खेती के आरंभ की बात कर रहे हैं तो झूम खोती उसमें विशेष महत्व नहीं रखती।

दूसरे प्रश्न के उत्तर में हम कह सकते हैं कि जातीयताओं का निर्माण स्थाई बस्ती के बाद की बात है। हम जिस अवस्था की बात कर रहे हैं उसमें यह तो संभव है कि एक ही तरीके को अनेक ने धीरे धीरे अपना लिया हो, परन्तु स्थाई खेती के साथ भूमि की उर्वरता का बना रहना एक जरूरी शर्त थी। दूसरी जरूरत ऐसे क्षेत्र की सुलभता थी, जिसमें किसी दूसरे से टकराव की तत्काल कोई नौबत न आए। जिन दो समुदायों का हम हवाला दे रहे हैं उनमें से कोई एक ही इस दिशा में बढ़ा हो। ये अपेक्षाएं पहाड़ी ढलान के सुरक्षित इलाके में पूरी हो जाती थीं, जिसमें उूपर से बह कर आने वाली मिट्टी के कारण भूमि की उर्वरता बनी रहती थी।

कई हजार साल बाद पुरानी यादों को दुहराते हुए बताया गया है कि देवों की पहली जरूरत यज्ञ को संस्थित करने या स्थाई बनाने की थी और उसके बाद दूसरी जरूरत दूसरों को खेती की ओर प्रेरित करने या यज्ञविस्तार की, जिससे उनकी संगठित शक्ति बढ़े, इसलिए जिस भी समुदाय ने स्थाई खेती आरंभ की वह दूसरों को इसके लिए प्रेरित करने और उसकी सहायता करने को स्वयं उत्सुक था, जिसमें नस्ल या भाषा की समस्या उसी सीमा तक बाधक थी जितनी प्राथमिक अवस्था में वाचिक संचार के लिए जरूरी है।

अन्तिम प्रस्ताव इसलिए कि आग के लिए तमिल का एक शब्द ती है। यह ती देववाणी में दी बना पर तिथि, तिग्म, तेज, तिक्त आदि में बना रहा, यह संकेत हम पहले कर आए हैं। ती ही टी, टिकठी, टीका, टिप्पणी, टीकुर – सूखी जगह, टिकरी, टिकुली, टिमटिमाना, आदि में है। इसके अतिरिक्त आज से बहुत पहले, आर्य द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता में मेरा सामना भोगपुरी की ऐसी लोरियों से हुआ जिनका अर्थ तमिल की सहायता से ही समझ में आता था। हम बचपन में उन्हें मात्र उनकी लय के कारण दुहराते थे – ओक्का बोक्का तिन तलोक्का लैया लाची चन्नन काटी – जब कि स्थाननामों आदि से इसका कोई संकेत नहीं मिलता कि वहां कोई समुदाय द्रविड भाषी भी था। अतः इसे नितान्त आदिम अवस्था की लेने देन मानना होगा, भले यह स्थिति स्थाई खेती के आरंभ के हजार दो हजार साल बाद आई हो।

ब्रह्म को बरम तक तो ठीक है पर भरम करने के पीछे एक कारण यह है कि बाद के आचार्यो ने ब्र/ भ्र दोनों को अग्नि और प्रकाशसूचक माना है। भ्र का बर रूप अघोष अल्पप्राण प्रेमी समुदाय के प्रभाव में बना हो सकता है। भोजपुरी में भभाना, भउरा, भड़भूजा, भूजा, भूजल, आदि प्रयोग और आग लगने के लिए आग भड़कने का प्रयोग होता है । इनमें से कुछ प्रयोग तो हिन्दी में भी चलते हैं। इसे इस चरण पर हम मात्र उूहापोह मानें तो अधिक निरापद होगा।