देववाणी (पांच)
देववाणी के स्वरप्रेम के एक रोचक पहलू ‘कवन गली गए श्याम है’. आधे पौन घंटे तक मुग्ध भाव से संगीत का रस लेने के बाद जब संगीत समाप्त होता है तो क-व-न—ग-ली-गए-श्sss- श्याssssम म पर ही. गली का पता ही नहीं चल पाता. गरज की स्वरण प्रधान भाषाओं की संगीतात्मकता में अर्थ-संचार मंद पड़ जाता है और भाव संचार अधिक गहन हो जाता है.
हमारी भाषाओँ का चरित्र एक साथ कई चीजों से प्रभावित होता है:- उसका अपना चरित्र, भाषा-परिवेश, दूसरे भाषा-भाषियों का किन्हीं भी कारणों से हमारे समाज में विलय या उनका प्रभावशाली स्थिति में होना, तकनीकी प्रगति और उस क्रम में ज्ञान, संवेदन, और अभिवक्ति में आया परिष्कार और भाषासंपदा में वृद्धि के अतिरिक्त हमारी भौगोलिक स्थिति की भी भूमिका होती है. यह अंतिम तथ्य हमारे स्वाभाव, हमारे आदर्श, हमारे सामाजिक व्यवहार, कहें भौतिकता और मानसिकता दोनों को प्रभावित करता है.
यदि हम हिन्दी के पूर्वी सिरे से पश्चिमी सिरे तक जायं तो भाषा में ही वह मन्थरता और मिठास पश्चिम की दिशा में बढते हुए कम होती और उच्चारण में क्षिप्रता और कथन में त्वरा ही नहीं आती जाती है जिसे हमने स्वर की प्रधानता, गेयता और माधुर्य के रूप कमी और परुषता में वृद्धि के रूप में चिन्हित किया था, जलवायु भी आद्रताबहुल से शुष्कता की ओर बढ़ती चली जाती है, स्वभाव की मस्ती और बेफिक्री घटती जाती है और अधिक से अधिक कम से कम समय और आयास में पाने की जल्दबाजी बढ़ती जाती है। अन्तमुर्खता और परलोकवादिता कम हो कर भौतिकता और उपभोगवादिता बढ़ती जाती. पूर्व में अंतर्मुखता और अध्यात्मवादिता अधिक मिलेगी, बहिर्मुखता और वस्तुपरकता कम.
यह अकारण नहीं है की ऋग्वेदिक समाज को हम अधिकाधिक धन, प्रजावृद्धि, शत्रुविजय, क्षेत्रविस्तार के लिए प्रयत्नशील पाते हैं परन्तु जब शताब्दियों तक चलने वाली प्राकृतिक आपदा के चलते जिसमेँ सरस्वती सूख जाती है, दूसरी नदियां भी क्षीणतोया हो जाती हैं और उधर से भागने वाले विदेह माधव को पूर्वी हिंदी क्षेत्र में शरण लेनी पड़ती हैं तो वेदज्ञ वेदान्तज्ञ बन जाते हैं, दुनियादारी बोझ लगने लगती हैं, यज्ञ से प्राकृतिक शक्तियों को तुष्ट करके उनसे अपनी मनोकामनाएं पूरी करने का दम भरने वाला समाज मनोकामनाओं को ही नियंत्रित करने और ब्रह्म और आत्म के सवालों से उलझने लगता हैं, पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं भौतिक ज्ञान और चिंता को वह व्यर्थ और अज्ञान का ही एक रूप मानने लगता हैं, भूत ही चिंता करने वाला आत्म की चिंता करने लगता हैं, शत्रु विजय करने वाला इन्द्रियविजय करने लगता हैं.
यह भी अकारण नहीं हैं कि बंगाल पुनर्जागरण में तंत्र-मंत्र अंत: साधना की एक समांतर धारा चलती हैं, राममोहन रॉय से लेकर रवीन्द्र तक, सबमें उपनिषदीय आध्यात्मिकता बनी रहती हैं, रामकृष्ण, विवेकानंद, अरविन्दघोष सभी आध्यात्मिकता को भारत की अपनी निजी विशेषता मानते हैं और पश्चिम की ओर आने पर दयानद सरस्वती वेदों को अपना प्रेरणा स्रोत बनाते हैं और दावा करते हैं की भारत ज्ञान विज्ञान में सर्वोपरि था और उनका जोर समाजसुधार, स्त्रीशिक्षा, स्वतंत्रता प्राप्ति, पश्चिमी समाज की अनुकरणीय विशेषताओं को अपनाने और सभी दृष्टियों से आगे बढ़ने पर होता हैं. शिक्षा के क्षेत्र में भी वह बंगाली चिंतकों की तरह पश्चिमी शिक्षा पद्धति के सामने घुटने नहीं टेकते, अपितु प्राचीन जमीं पर एक नए सामंजस्य की चिंता करते हैं.
भाषा के सन्दर्भ में भोजपुरी या उससे भी पहले की देवभाषा में स्वर और संगीतात्मकता को भी इस विशद परिप्रेक्ष्य में देखना उचित होगा. इसमें बात स्वर प्रधानता पर ही समाप्त नहीं होती, अपितु स्वरों में भी अ और आ दूसरे स्वरों पर भारी पड़ते हैं जिसे भाई – भइया, माई – मइया, आजी – अजिया, बहिन – बहिनी, बहिनी, बहिनिया में देखा जा सकता हैं. पर इससे भी रोचक हैं देस- देसवा, परदेशी – परदेसिआ, करम- करमवा जैसे प्रयोग.
जहाँ पश्चिम की बोलियों में स्वरों को क्षिप्रता के तकाजे से खा जाने की बेताबी हैं वहाँ पूर्व में उतने से ही संतुष्ट न होकर अतिरिक्त स्वर जोड़ने पर ही अनुराग और आत्मीयता पैदा होती हैं.
इसका एक कारन क्या यह हो सकता हैं की आदिम कृषि के चरण पर जंगली जानवरों या लुंचन कारियों के संकट के समय लम्बी गुहार लगा कर सहायता के लिए दूसरों को बुलाने के क्रम में यह प्रवृत्ति पैदा हुई हो? कारण और पूर्व में बढ़ने पर अकार का ओकर भले हो जाय, ये प्रवृत्तियां नहीं पाई जातीं.