Post – 2017-04-14

देववाणी (चार)

देववाणी की एक अन्य विशेषता जिसका उल्लेख राजवाड़े जी ने किया है वह यह कि इसमें शब्द स्वरान्त होते थे। कोई शब्द हलन्त नहीं होता था।

इसका रहस्य यह है कि यद्यपि आहार संग्रह के चरण पर मानव यूथ दूर दूर तक, जहां भी फल और कन्द आखेट या मछियारी की सुविधा हुई, बढ़ जाते थे अतः कोई भी आदिम या विकसित भाषा ऐसी नहीं है जिसमें अनगिनत अन्य भाषाओं के कुछ लक्षण न तलाशे जा सकें, अपन्तु एक चरण पर आपसी तकरार से बचने के लिए उन्होंने भूमि का आपस में बटवारा करना आरंभ किया।

यह परिसीमन प्राकृतिक लक्षणों को ध्यान में रखते हुए किया गया और इसके बाद एक का दूसरे में प्रवेश वर्जित ठहराया जाने लगा। यहां तक कि यदि एक के द्वारा घायल शिकार भाग कर दूसरे क्षेत्र में पहुंच जाय तो भी वह उसे पकड़ने के लिए उस दायरे में नहीं जा सकता था। यह देश की अवधाराणा का आदिम रूप था और इसे मैंने अन्यत्र भी रेखांकित किया है कि क्षेत्रीय सीमा को मर्यादा कहा जाता था जिसका अर्थ बाद में बदल कर शिष्टाचार या परंपरा आदि हो गया परन्तु पुराना अर्थ वह सीमा है जिसे लांघने पर दूसरा उसके प्राण ले सकता है या अपनी जान दे भी सकता है। मर्यादा उसी मूल से निकला है जिससे मृत्यु और मर्त्य (जो बहादुरी का अर्थ देने वाला मर्द बन गया)। देश की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर करने की मानवीय प्रवृत्ति का जो रूप आज है वह उसी का विकास है। पहले इस पर जान देना सबका कर्तव्य था । बहुत बाद में, कहें खेती आरंभ होने पर इसके लिए कुछ तरुणों को नियुक्त किया जाने लगा क्योंकि अव यह खतरा मनुष्यों से ही नहीं पशुओं आदि से भी था जिसमें भैंस से लेकर हिरनों तक के झुंड का सामना करने में जान की बाजी लगानी पड़ती थी। यहां से क्षत्रिय वर्ण का उदय हुआ।

खैर, इस तरह स्थायी बस्ती से बहुत पहले स्थायी क्षेत्र अस्तित्व में आए और घुमक्कड़ी पर अंकुश लगा। इसके परिणाम स्वरूप भाषा के आंचलिक लक्षणों का विकास हुआ जिसे रामविलास जी ने ध्वनियों के पृथक केन्द्रों के रूप में पहचाना था और एक बहुत महत्वपूर्ण स्थापना दी थी कि जिस वर्णमाला से हम परिचित हैं उसका निर्माण पारस्परिक संपर्क बढ़ने के फल स्वरूप हुआ है फिर भी सभी ध्वनियां सभी में प्रवेश नहीं पा सकीं, इसलिए आज भी संस्कृत के विद्वानों द्वारा भी उन वर्णों में से कुछ का शुद्ध उच्चारण नहीं हो पाता, जो हमारी वर्णमाला के अंग हैं। उच्चारण के अलग से प्रशिक्षण या शिक्षा की आवश्यकता इसलिए भी पड़ती थी।

अब यदि हम उत्तर भारत में पश्चिम से पूर्व की ओर चलें तो पाएंग पश्चिमी बोलियां व्यंजनप्रधान हैं औ कुछ में स्वरलोप या स्वर विचलन की प्रवृत्ति है जिसका परिणाम यह कि जो शब्द अकारान्त होते हैं, जिन शब्दों के अन्त में हल का चिन्ह नहीं है, उनका उच्चारण भी हलन्त के रूप में होता है और यह केवल हिन्दी में नहीं होता, संस्कृत में भी होता था। पूर्व की ओर बढ़ते हुए अन्त्य वर्ण के स्वरण में क्रमिक वृद्धि होने लगती है। भोजपुरी क्षेत्र तक आते आते अकारान्त शब्द का अन्तिम वर्ण एक मात्रा, डेड़ मात्रा या पौने दो मात्रा का या कहें आकार तो नहीं पर उसके निकट पहुंच जाता है । बंगाल पहुंचने पर यह इतना बढ़ जाता है कि अकार का शुद्ध उच्चारण संभव ही नहीं रह जाता, यह ह्रस्व ओकार बन जा जाता है जिसके लिए हिन्दी वर्णभला में लिपिचिन्ह नहीं है परन्तु द्रविड़ में है। बंगला का यह ओकारत्व ओरोबिन्दो, रोबिन्द्र आदि से समझा जा सकता है।

भोजपुरी में कहें तो शब्द स्वरान्त ही नहीं किंचित स्वरित रूप में पाया जाता है जिसके लिए मल्लिका अर्थात गोरखपुर, बलिया, आजमगढ़ मे कुछ मामलों में अवग्रह या खंडाकार के चिन्ह का प्रयोग करना उचित प्रतीत होता है। काशिका में यह पौने दो मात्रा तक पहुंच जाता है इसलिए वे शब्द को अकारान्त रखने की जगह आकारान्त कर देते हैं।
जाब = जाउूंगा,
मल्लिका – जाबS बनारसी – जाबss = जाओगे?

हम कह सकते हैं कि देववाणी में शब्द अजन्त या स्वरान्त ही नहीं होता था, अन्त्य स्वर सुश्रव्य होता था। इस अंतर के कारण पश्चिमी, विशेषतः हरयाणवी हिंदी बोलता है तो उसमें वेग बढ़ जाता है, पूरबी हिंदी भाषी की गति मंद होती है, लगता है वह गा रहा है. पश्चिमी प्रखरता के कारण कर्ण कटु लगता है, पूर्व की और बढ़ते हुए स्वरण के प्रभाव से माधुर्य या संगीतात्मक बढ़ जाती है।