देववाणी (तीन)
[मैंने भाषा पर लिखने का दुस्साहस फेसबुक पर इसलिए किया कि विविध बोलियों से परिचित मेरे मित्र मेरी गलतियों की ओर जो उदाहरणों में, दूसरी बोलियों के विषय में या भोजपुरी के दूसरे अंचलों के विषय में हो सकती हैं और जिसके डर से ही अब तक इस विषय को हाथ लगाने से बचता रहा हूं, उनकी ओर संकेत करेंगे। वह प्रशंसा से अधिक जरूरी है और मेरी प्रस्तुति को अधिक निखोट बनाने में सहायक होगा। आप इसमें अपनी भूमिका निभाते चलें।]
रानटी अर्थात देववाणी की एक अन्य विशेषता यह थी कि इसमें लिंग भेद नहीं था। भोजपुरी में और उससे पूरब की बोलियों में भी लिंगभेद नहीं मिलता। कहते हैं एक बार जब डा भगवानदीन (यह जैनेन्द्र जी के मामा थे और इतनी प्राणवान हिन्दी लिखते थे कि मैं उनको हिन्दी के श्रेष्ठतम गद्यकारों में गिनता हूं) जब रवीन्द्रनाथ से मिलने गए तो अन्य बातों के अलावा रवि बाबू ने विनोद में हिन्दी के विषय में कहा था, जिस भाषा में मूछ और दाढ़ी स्त्रीलिंग हो और स्तन पुलिंग उस भाषा को कोई कैसे सीख सकता है?
आपने देखा होगा जिन्दगी भर हिन्दी क्षेत्र में गुजारने के बाद भी बगाली हिन्दी बोलते समय लिंग की गलतियां करता है और यदि उसे सुन कर लोग मुस्कराने लगें तो वह हैरानी में सोचता है उसने ऐसी कौन सी बात कह दी जिस पर किसी को हंसी आए।
ऐसी ही हंसी श्रोताओं को लालू यादव की भोजपुरी ठाट वाली हिन्दी सुन कर आती है और जिसका वह अपने कथन को प्रभावशाली और साथ ही हास्यकर बनाने के लिए प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों में अन्य बातों के अतिरिक्त स्त्रीलिंग और पुलिंग में अभेद भी होता है। जनाना लोग जाएगा, लड़की जाएगा, लड़का जाएगा।
इसका उपहास करने वाले यह नहीं जानते होंगे कि लिंग विधान का सेक्स से संबन्ध नहीं अहंता से संबन्ध है और अपनी अस्मिता के प्रति सचेत लड़कियां प्रायः अपने लिए पुलिंग क्रियाओं का प्रयोग करती हैं। संस्कृत में यदि कोई चीज सबसे गड़बड़ है तो वह है लिंग व्यवस्था जिसमें कई बार एक ही शब्द के दो लिंग एक साथ होते हैं और नपुंसक लिंग में लिंगबाह्य सत्ताओं का लिंग कभी पुलिंग होगा, कभी स्त्रीलिंग और कभी नपुंसक लिंग।
इस अराजकता का कारण यह है कि देववाणी की अवस्था में इसमें लिंगभेद नहीं था। स्त्रियों और पुरुषों की सामाजिक हैसियत में भी भेद न था। लिंग के मामले में मुंडारी में समाहित बोलियों में भी अनिश्चितता पाई जाती है परन्तु द्रविड़ में यह बहुत स्पष्ट है। उसमें स्त्रीलिंग, पुलिंग और हेय लिंग जिसे अमहत लिंग कहते हैं प्रयोग में आते हैं। यदि द्रविड के अमहत को जिसमें छोटे जन, निर्जीव वस्तुएं और मानवेतर प्राणी आते हैं यथातथ्य अपनाया गया होता तो न तो संस्कृत में लिंग की इतनी गड़बड़ी पाई जाती, न ही हिंदी को संस्कृत से यह गड़बड़ी विरासत में मिली होती। यह हिन्दी सीखने वालों के लिए भी कठिनाई पैदा करती है।
इसका ऐतिहासिक समाजशास्त्र में फलितार्थ यह है कि द्रविड़ भाषी समाज का संस्कृत के विकास में उतना निर्णयकारी प्रभाव नहीं पड़ा जितना मुंडारी समुदाय का या तो संस्कृतभाषी समाज में विलय होने वाले द्रविड़ समुदाय की संख्या अपेक्षाकृत कम थी, अथवा सहयोगी के रूप में उनकी भूमिका मुंडारी समुदाय की तुलना में कम थी।
मुंडारी में परिगणित बोलियां भी द्रविड़ प्रभाव में आईं और उनमें भी स्त्रीलिंग, पुलिंग और अमहत का भेद कहीं कही देखने में आता है, परन्तु नियमितता का अभाव है। कुछ में यह प्रभाव आज तक नहीं आ पाया। उदाहरण के लिए खड़िया के विषय में आर.पी. साहु बताते हैं, ‘‘खड़िया संज्ञाओं ओर सर्वननामों में लिंग बोध करने के संकेत नहीं हैं, और न ही विशेषण ही स्त्रीलिंग पुलिंग भेद दर्शाते हैं। क्रिया भी एक लिंग की होती है। कहने का तात्पर्य यह कि खड़िया में लिंग भेद नहीं होता।
किसी भिन्न समुदाय से ग्रहण की गई थाती को व्यवस्थित करने में व्यवस्थागत विचलन पेश आती ही है। वह संस्कृत में भी लक्ष्य की जा सकती है और ऐसी मुंडारी बोलियों में भी जिन्में लिंग विधान पाया जाता है।