Post – 2017-04-12

देववाणी (दो

देववाणी की दूसरी विशेषता यह थी कि इसमें वचन भेद न था.
एक लइका जाई
दस लइका जाई,
के जाई,
के के जाई,
सब जाई
यह कहना ठीक न होगा कि ये प्रयोग भोजपुरी में चलते है पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि आज भी किसी अंचल में किसी स्तर पर नहीं चलते होंगे। यह अवश्य सच है कि यदि कोई ऐसा प्रयोग कर बैठे तो वह सुनने वाले को खटकेगा नहीं और अर्थ संचार में बाधा नहीं पड़ेगी।

राजवाड़े जी यह सुझाव देने के साथ कि रानटी में, वचन की जगह संज्ञा से पहले संख्या वाचक शब्द प्रयोग में आता था यह भी सुझाते हैं कि संस्कृत में तीन ही वचन होने का कारण यह है कि उस समय संख्या का विकास तीन तक ही हो पाया था।

जैसा कि उन्होंने बताया है उन्होंने बहुत छोटी अवस्था में संस्कृत सीखते समय अपनी जिज्ञासा यहीं से आरम्भ की थी कि यदि एक के बाद दो के लिए अलग वचन का विधान है तो उससे बाद वचन विभक्ति तीन के लिए हुई और इस नियम से चार के लिए अलग विभक्ति होनी चाहिए थी जो नहीं है. इससे वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ऐसा इस लिए हुआ होगा कि वे उस चरण तक तीन से बड़ी संख्या से परिचित नहीं थे।

उनका यह सुझाव उनके ही पहले सुझाव से मेल नहीं खाता कि वे सबसे पहले वचन के लिए संज्ञा से पहले संख्या वाचक शब्द का प्रयोग करते थे।

यह सच है कि विकास के आदिम चरणों पर गणना का विकास तीन से आगे नहीं बढ़ा था और तब तीन समस्त के लिए प्रयोग में आता था. तीनो लोक, तीनों आकाश (त्रिदिव) समस्त लोक और समस्त आकाश के बोधक थे। बाद में संख्याओं की वृद्धि के क्रम में चार, पांच, छह, सात, आठ, दस सभी समस्त और फिर अपनी सटीक संख्या के द्योतक हुए। तथाकथित आधुनिक आर्य बोलियों में और साथ ही प्राकृतों में भी द्विवचन नहीं मिलता। एक वचन और अनेक वचन (बहु वचन) ही हैं. ऐसा ह्रास या लोप के कारण नहीं है। मुंडा में गिनी जाने वाली अधिकांश बोलियों में एक वचन, द्विवचन और बहुवचन का प्रयोग आज भी चलता है जब कि लम्बे समय से ये बोलिया अपनी पडोसी आधुनिक ‘आर्य’ भाषा के दबाव में रही हैं. उदाहरण के लिए खड़िआ में, हो में, आज भी एकवचन, द्विवचन, बहुवचन प्रचलित है।

खड़िआ

एक वचन द्विवचन बहुवचन
कूऽढीङ (मेला) कूऽढीङकियर (दो मेले) कूऽढीङकी (बहुत से मेले)

जोल (तेल) जोलकियर (दो तेल) जोलकी (बहुत से तेल)

ऐसा नहीं हो सकता कि अपने पूरे प्रसार क्षेत्र में आधुनिक आर्य भाषाओँ और प्राकृतों अपभ्रंशों में द्विवचन का लोप होजाय और संस्कृत की यह विशेषता मुंडारी में अपना ली जाये।

इस लिए अधिक निरापद यह प्रतीत होता है कि देववाणी में एक वचन और बहुवचन (एक और अनेक) का प्रचलन किसी अन्य भाषा के सम्पर्क में आने के बाद हुआ। संभवत: उसी के प्रभाव से संस्कृत में तीन वचन आये। बोलचाल के स्तर पर यह एक-अनेक वचनों तक सीमित रहा, परन्तु संस्कृत या देवसमाज के अभिजात स्तर पर इसे पूरी तरह आत्मसात किया गया। यहां से ही संस्कृत के उस पूर्वरूप का सम्बन्ध जनसाधारण से कटना आरम्भ हुआ। द्विवचन द्रविड़ बोलियों में नहीं पाया जाता इसलिए यह अनुमान करना अनुचित न होगा कि संस्कृत ने यह प्रभाव मुंडारी की किसी बोली से लिया।

हम इसे उस चरण का हस्तक्षेप मान सकते हैं जब कृषि कर्म में जानवरों का उपयोग होने लगा और इस लिए उन्हें फंसा कर कृषि उत्पाद के बदले कुछ जानवरों को पकड़ और साध कर वे देवों को बेचने लगे।

कुइपर ने संस्कृत भाषा में दो प्रपुख स्रोतों की भूमिका बताई है और यह सुझाव दिया की द्रविड़ प्रभाव की तुलना में मुंडारी प्रभाव अधिक प्राचीन है:
On the basis of the lexical and syntactic evideñce found in the language of the Rigveda, historians and the linguists believe that ‘the Rigvedic society consisted of several different ethnic components, who (sic) all participated in the same cultural life’ (Kuiper 1991:8). Therefore the term Aryan was not used as a racial term: it referred to a people who were basically a pastoral community keeping herds of cattle as its economic mainstay. The Dravidian Languages Bhadriraju Krishnamurti, Cambridge Language Surveys 203,p.35

इसलिए हम मानते हैं कि यह प्रभाव निश्चित रूप से मुंडारी की कोई बोली बोलने वाले समुदाय के देव समाज से संपर्क बढ़ने और क्रमश: उसका अंग बन जाने का परिणाम था और इन देवभाषियों के पहाड़ी क्षेत्र से नीचे उतरने के बाद आरम्भ हुआ होगा।

द्विवचन लातिन और ग्रीक में भी पहुंची यद्यपि यूरोप में भी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की ही तरह एक और अनेक बचन ही प्रचलित हुए। यह साम्य बहुत रोचक है। इसके दो फलितार्थ हैं। एक तो यह कि संस्कृत भाषा में वचन सूचक विभक्तियों के विकास के बाद इस भाषा का प्रसार देशान्तर में हुआ। दूसरा यह कि संभवतः जिस समय भारतीय समाज का एक छोटा सा अभिजात वर्ग ही संस्कृत का आपसी व्यवहार और साहित्यिक रचनाओं के लिए प्रयोग करता था उसी समाज का शेष भाग जिसमें स्त्रियां, बच्चे, सेवक और संपर्क में आने वाले दूसरे लोग थे प्राकृतों की तरह दो वचनों से काम चलाते थे और यूरोप में भी यह प्रभाव दो स्तरों पर पहुंचा एक अभिजात वर्ग और दूसरा उनके सहायक और परिजन जिनो लिए वे वीर का प्रयोग करते थे और जिसकी अधकचरी समझ के कारण यूरोप में कुछ समय तक आर्य जनों की जगह वारोस का प्रयोग होता रहा। यह निवेदन करते हुए हम यह भी याद दिलाना चाहेंगे कि ये मात्र एक खयाल है और इसका एक अन्य आधानर यह है कि यूरोपीय भाषाओं में केवल संस्कृत के ही नहीं, द्रविड और मुंडारी के शब्द भी पहुंचे थे। अर्थात अभिजात और इतर जन दोनों की मिली जुली भूमिका थी।