Post – 2017-04-11

आत्मविजय और स्वाभिमान

हम किसी लेन देन में जितना देते हैं उससे अधिक पाने की कोशिश करते हैं तो बेईमानी करते हैं। हम जब चालाक बनने की काशिशि करते हैं, तो ही मूर्ख बनते हैं। यदि हम परिश्रम न करेंगे या कम से कम परिश्रम से अधिकतम पाना चाहेंगे तो बेईमानी से बच नहीं सकते। इन कसौटियों पर देखें और अपना मूल्यांकन करना चाहें तो आप पाएंगे कि बेईमानी, चालाकी, उससे अनिवार्य रूप से जुड़ी मूर्खता और मिथ्याचार हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन चुका है । मुझे विश्वास है कि इस निष्कर्ष से हमारे अधिकांश पाठक सहमत हो जाएंगे और इसका दोषी अपने आसपास के सभी लोगों को मानने को तैयार हो जाएंगे और इसके साथ ही अपने कर्तव्य को पूरा मान लेंगे। यह देखने का प्रयत्न नहीं करेंगे कि इसमें वे स्वयं भी शामिल हैं और यदि इस गर्हित स्थिति से निकलना है तो इसे अपने आप से आरंभ करना होगा।
ये आत्मानुशासन से जुड़े सवाल हैं। हम आदर्श के रूप में जिन पंक्तियों को दुहराते हैं , उनमें से अधिकांश को अग्रणी समाजों के सभ्य और सुशिक्षित नागरिक अपने जीवन में उतार चुके हैं जब कि वे हमारे लिए डींग हांक कर अपनी क्षुद्रता को छिापने के ओट हैं। हमारा पहला वाक्य अस्तेय के सिद्धान्त से प्रेरित था और दूसरा सत्य के पालन से प्रेरित था जिनके आढ़ती होने का हम दावा करते हुए पुरानी किताबों के पन्ने दिखाते फिरते हैं और उपदेश के रूप में दूसरों को मुफ्त बांटते रहते हैं।
प्रश्न यह नहीं है कि उन समाजों के सभी लोग उन गुणों से लैस हैं और हमारे देश में इसका सर्वाथा अभाव है। सचाई यह है कि उनमें इन गुणों पर खरे उतरने वालों को संख्या अधिक है, इन गुणों की कद्र अधिक है, इसलिए इन गुणों से संपन्न लोग निर्णायक स्थितियों में हैं अतः इन प्रवृत्तियों को बढावा देते हैं और अपने को सुयोग्य बनाने के क्रम में वहां इनको अपनानो का पर्यावरण तैयार होता है। हमारे यहां स्थिति ठीक इससे उल्टी है इसलिए निमम्मों, परजीवियों, धूतों की संख्या भी अधिक है, वे निर्णायक पदों पर भी पहुंचे दिखाई देते हैं और उनके द्वारा ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है इसलिए यहां उन्हीं गुणों को हतोत्साहित करने की प्रवृत्ति पैदा होती है। अयोग्य व्यक्ति आपने से योग्य व्यक्ति को अपने अधीन सहन नहीं कर सकता क्योंकि उससे वह खम खाता रहेगा। उसे अयोग्य लोगों की मंडली चाहिए वे ही उसकी अयोग्यता को जानते हुए भी उसकी तारीफ करेंगे क्योंकि इसी के बल पर वे उससे कुछ पा सकेंगे।
मैं शोध और सेमिनारों के जश्न और उसी अनुपात में बौद्धिक गिरावट की चर्चा के प्रसंग में पहले ही यदि आज के एक बहुत महत्वाकांक्षी संचार माध्यम द्वारा प्रचारित और प्रशंसित लेख का दृष्टान्त देते हुए यह दिखाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया था तो इसलिए कि मैं इसके माध्यम से यह तो दिखाना ही चाहता था कि हम पढ़ना और देखना और सुनना तक भूल गए हैं, अपितु अपने अल्प को बहु बहनाने की कितनी बेताबी में है और यह प्रवृत्ति किसी एक संस्था या संस्थान या विभाग तक सीमित नहीं है। इसकी व्याप्ति बहुत अधिक है। इस स्थिति में किसी अन्य को दोष देने से अच्छा है हम यदि इस स्खलन को समझ पा रहे हैं तो सबसे पहले अपने को बचाएं। अपने आचार और व्यवहार में इन प्रवृत्तियों पर काबू पाएं और ठीक उल्टा आचरण करने का अभ्यास डालें। अधिक देकर कम पाने पर न खिन्न न हों। इस बात पर गर्व करें की हमने दिया अधिक है लिया कम है। मैं ऋण लाद कर नहीं ऋण बाँट कर, उऋण होकर विदा लूँगा ।
यदि हमें भारतीयता पर गर्व है तो यह वंदे मातरं कहने से व्यक्त न होगा, उन मूल्यों को आचार और व्यवहार में उतरने से चरितार्थ होगा । फेस बुक पर समय काटने या फब्तियां कसने से पूरा न होगा, अपने कार्यक्षेत्र में अधिक ऊँचे कीर्तिमान तय करके उन्हें हासिल करते हुए नए कीर्तिमानों की और बढ़ने से होगा। आप दौड़ में शामिल हैं पर वह दौड़ गलत है. दौड़ का मैदान बदलना होगा। प्रदर्शन की जगह आत्मदर्शन और आत्मतुष्टि की दौड़ में शामिल होना होगा। यह आत्मतुष्टि थोड़े में संतोष का निग्रहवादी पाठ नहीं है, अपितु इस स्तर का, इस निष्ठा और समर्पण भाव से ऊँचे लक्ष्यों तक पहुँचने की दिशा में अपने प्रयत्न और श्रम से तुष्टि है । यह काम किसी हैसियत का आदमी कर सकता है। जहाँ कोई है वहां से एक एक कदम आगे की मंजिल तक पहुँचने की होड़ में मरियल और बीमार आदमी तक शामिल हो सकता है।
यह पीड़ा इस तरह क्यों हावी हो गई की मैं उपदेशक की मुद्रा में आ गया इसे आप समझ सकते हैं। आप फेसबुक से ही चाहें तो समझ सकते हैं की जिन्हें आप समझदार मानते आये हैं वे तक किस स्तर पर उतर कर अपनी बात रखते हैं। शुरुआत उन्हें दोष देने की जगह इससे कर सकते हैं कि जैसा मैं लिख रहा हूँ क्या उससे अधिक अच्छा नहीं लिख सकता.? आपको लग सकता हैं मैं आज भी अपने विषय से भटक गया। पर मैं इसे कई बार दुहरा चुका हूँ की मेरी लड़ाई उस मानसिकता से हैं जो पराधीनता में लम्बे समय तक रहने और उससे समायोजित हो जाने से पैदा होती हैं। मेरी लड़ाई अपने आप से भी हैं, आप से भी हैं, दूसरों स। ।