देववाणी (एक)
राजवाडे जी ने जिस आदि भाषा का सुझाव दिया है
उसमें कारकचिन्ह या विभक्ति के प्रत्यय नहीं लगते थे. यह प्रवित्ति क्षीण रूप में भोजपुरी में, विशेषत: इसके मुहावरों में बनी रह गई है :
1. बढ़े न मोटाय बैगन बतिये कहाय. (यदि बैगन की तरह शरीर की बाढ रुक जाए और आदमी मोटा भी न हो तो क्या उम्रदराज होने के बाद भी वह बच्चा ही कहलाएगा? )
2. हम बोला तुम सुना. (मैने कहा तुमने सुना).
अर्थभेद बलाघात और स्वराघात से होता था। इस तरह यही कथन क्या मैंने कहा? क्या तुमने सुना था और हां मैंने ही कहा तुमने सुना तो सुना भी था का व्यंजक भी हो जाएगा।
अपने भावों और सरल विचारों को प्रकट करने की दृष्टि से देववाणी संस्कृत या अपने ही बाद के चरणों की भाषा की तुलना में अधिक प्रभावशाली थी। अन्तर एक था कि यह जटिल विचार और चिन्तन के उपयुक्त न थी। संवेदनात्मक स्तर पर भी यह अधिक सूक्ष्म मनोभावों को प्रकट करने में समर्थ न रही होगी। राजवाडे का मानना है कि यह समासप्रधान थी जिसमें कारक के स्थान पर शब्दविन्यास काम आते थे, या कुन्देन्दुतुषारधारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना जैसे प्रयोग चलते थे जिसके अवशेष आज तक सामासिक प्रयोगों में बचे रह गये हैं ।
इसका प्रयोग आज तक सभी भाषाओँ में होता है परन्तु संस्कृत में अधिक नहीं होता जब कि वैदिक में इस पर इतना ध्यान दिया जाता है कि माना जाता था कि तनिक भी चूक से अर्थ का अनर्थ हो सकता है और यदि मंत्र पाठ में चूक हो तो परिणाम उलटे हो सकते हैं. यह प्रधान कारण था कि सभी को वेदपाठ की अनुमति नहीं थी. पाठ संगीत प्रधान था और संगीत की तरह वेदपाठ का अभ्यास भी किसी वेदपाठी या उपाध्याय के निर्देशन में ही सीखा जा सकता था. अक्षरों के साथ मात्राओं के अतिरिक्त स्वराघात और बलाघात को इंगित करने वाले विकारी चिन्हों का प्रयोग किया जाता था. इसके बाद भी स्वरों के आधी, तीन चौथाई और चौथाई मात्राओं का विधान प्रातिशाख्यों में मिलता है. सच कहें तो शिक्षा का अर्थ एजुकेशन नहीं उच्चारण का अभ्यास था. उच्चारण दोष से अनर्थ का उदाहरण देते हुए इन्द्रशत्रु में बल के अंतर् से आई त्रुटि का हवाला दिया जाता है. दूसरे शब्दों में कहें तो सामासिक भाषा में स्वराघात और बलाघात का महत्व अधिक था. अपने विकास क्रम में संस्कृत ने विभक्तियों का प्रयोग आरम्भ किया अतः साहित्यिक संस्कृत में स्वराघात और बलाघात का अधिक महत्त्व न रह गया और यह इसके कारण दुरूह भी हो गई तथा उस संगीत से कट गई जो बोलियों में बची रह गई है और जिसके कारण संस्कृत के विद्वान भी संस्कृत को अवरुद्ध और नीरस भाषा (खारा कूप जल) और बोलियों को मधुर और प्रवाहमय (देसिअ बयना सब जग मिट्ठा, या भाषा बहता नीर ) मानते थे । हम कह सकते हैं कि देववाणी संस्कृत की तुलना में अधिक प्रवाहमय, अधिक सरस और अधिक मर्मग्राही तो थी ही अधिक सरल भी थी, परन्तु यह सरलता उस भाषा भाषी समाज तक ही सीमित थी. व्याकरण जितना भी कठिन हो, संगीत की तुलना में अधिक कठिन नहीं होता है, किसी मानक भाषा को सीखना, अपनी बोली से भिन्न किसी बोली को सीखने से अधिक आसान है । और यह कठिनाई इसके अपने संगीत की भिन्नता के कारण होती है ।