Post – 2017-04-10

छानबीन
छिद्रं हि मृगयन्ते स्म विद्वांसो ब्रह्मराक्षसा:

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पहली बात यह की लेखक ने जो सामग्री जुटाई है उससे आप के ज्ञान का विस्तार होता है. मेरे ज्ञान का विस्तार भी हुआ. पर मेरे पास जो बहुत मामूली सी जानकारी है वही, इस लेख के मंतव्य का खंडन करने और यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है की लेखक के मन में खोट है, उसने जो संकेत दिए हैं उससे पाठकों को मूर्ख बनाया गया है और मूर्ख बने पाठकों ने इसका सविमर्श पाठ न करके, इसकी आलोचना किए बिना अपने प्रभाव वृत्त में उस मूर्खता का विस्तार किया है जब कि आंकड़ों और सूचनाओं से उनकी जानकारी का विस्तार हुआ है. यह रोचक स्थिति है कि एक और उसी पाठ्य सामग्री से जानकारी भी बढ़ रही है और आप मूर्ख भी बनाए जा रहे हैं और उस मूर्खता पर गर्व भी कर रहे हैं और उसका दायरा भी बढ़ा रहे हैं और मूर्खता उजागर होने के बाद आपकी विश्वसनीयता भी क्षीण हो रही हैं.

जब हम कहते हैं कि नीयत में खोट होने या किसी तरह का राग, द्वेष, दुराग्रह होने पर जानकर से जानकार आदमी भी सचाई तक नहीं पहुँच सकता तो आधी बात कहते हैं. पूरी बात यह हैं कि वह सचाई तक पहुंचना ही नहीं चाहता और अपने ज्ञान और प्रतिभा का प्रयोग झूठ के प्रचार और प्रसार के लिए करता हैं.

फेसबुक के पाठक कम से कम समय में अधिक से अधिक मैदान मारने के आदी होते हैं और इसलिए शीर्षक या कैप्शन देख कर अपनी राय बना लेते हैं अपनी पसंद नापसंद जाहिर करके आगे बढ़ जाते हैं. अधिक से अधिक लेख कि लम्बाई और चित्रों पर नज़र डाल कर इस बात के कायल हो जाते हैं कि जो कुछ लिखा गया हैं वह तथ्यों, प्रमाणों और उनकी संगति का ध्यान रखते हुए लिखा गया हैं. इससे उनकी धारणा को बल मिलता हैं. परन्तु कारण जो भी हो, परिणाम एक ही होता हैं. मुर्ख बनने, मूर्खता का विस्तार करने और आगे से उसी से मिलते जुलते आरोपों को झटपट मान लेने की प्रवृत्ति का विस्तार और बौद्धिक सतहीपन, जिसमें सोचने समझने की झंझट से मुक्ति और मानने ठानने की रुझान आदत में बदलती जाती हैं.

अब हम इसकी जाँच करेंगे जो किसी पाठक को, उन्हें भी जो हमारे इस छानबीन को देख रहे हैं, किसी भी सामग्री को, जिसमे मेरा लिख भी शामिल हैं इसी निष्पक्षता से जांचते हुए पढ़ना चाहिए. सचाई जानने के लिए यह जरूरी नहीं की आप लेखक जितने या उससे अधिक पढ़े लिखे हों.

१. इस प्रस्तुति में यह दावा किया गया हैं की गोरखनाथ मुस्लिम योगियों की देशभाल करते या सरक्षण देते थे. इस बहाने यह संकेत किया गया हैं कि उनका वर्तमान उत्तराधिकारी इससे उल्टा कर रहा हैं. पर गोरखनाथ के समय में तो उत्तर भारत में इस्लाम का प्रवेश हुआ नहीं था मुस्लिम योगी कैसे पैदा हो गए?

२. जिन अधिकारी विद्वानों का हवाला दिया गया हैं उनमें कोई ऐसा नहीं कहता, कहता यह हैं कि गोरखपंथी जोगियों में कुछ ने शादी व्याह कर लिया, उनके लिए नाथपंथ में जगह नहीं रह गई. वर्ण समाज में उनके लिए पहले भी जगह न रह गई थी इसलिए वे मुसलमान बन गए.

३. मेरी समझ से यह बिंदु भी जाँच की अपेक्षा करता हैं क्योंकि वे इस्लाम का कुछ भी नहीं मानते थे. गीत गोपीचंद और भरथरी का गाते थे. इसलिए अधिक सही यह कहना होगा कि वे पंथ वहिष्कृत और समाज वहिष्कृत का जीवन जीने लगे या हिन्दू न रह गए. पर इस सुझाव को भी मात्र विचारणीय मानता हूँ. बचपन में उनको दूसरे भिखारियों की तरह मानता हूँ जो एकतारा लिए आते थे सूर के पद गाते थे और ब्राह्मण होने का दावा करते थे. जोगी का वेश, बाना, और कंधे से घुटनों के नीचे तक लटकता गुदड़ी का धोकरा सब का रंग गेरुआ. इन दोनों को भीखारी कहना भी उतना ही ग़लत हैं जितना नटों, बाजीगरों, संपेरों, बन्दर का खेल दिखाने वालों को, और यदा कदा आने वाले भांटों को जो पद्यरचना में कुशल और वंश-परम्पराओं की अच्छी जानकारी रखते और उसे बड़े आवेश भरे स्वर में गाते थे, या अल्ल्हा और लोरिकायन गाने वालों को जनशिक्षा और मनोरंजन की प्राचीन परम्परा का हिस्सा मानना अधिक उचित हैं, क्योंकि ये श्रमणों और बटुकों की उस परम्परा से भी अलग थे जो भिक्षा मांगते थे और सीधे भीख का ही गुहार लगाते थे. ये सारंगी पर भरथरी आदि की करुण कथा इतने मार्मिक स्वर में सुनाते थे की महिलाएं दरवाजों की ओट में देहरी में आकर बैठ जाती, उनका गान सुनतीं, फिर उनको किसी बच्चे बूढ़े की हाथ अनाज या पिसान देतीं. ये दोनों याचना नहीं करते थे. कुछ देर सारंगी या एकतारा बजा कर रुकते और कोई आहट न पाकर आगे बढ़ जाते.

४. इसमें आरोप सा हैं कि हिंदुत्व के उत्थान के साथ अब ये नहीं दिखाई देते. एक तो हिंदुत्व यदि शब्द नहीं हैं एक भाव हैं तो हिंदुत्व सिद्धो, योगियों आदि से बहुत पुराना हैं न की बाद का. दूसरे अदृश्य केवल भरथरी के गीत सारंगी पर गाने वाले योगी ही नहीं हुए. एकतारे पर सूर के पद गाने वाले, साँपों का खेल, भालू का खेल, बंदर का खेल दिखाने वाले, बाजीगरी दिखने वाले. आल्हा और लोरिकायन गाने वाले सभी हुए हैं. पूर्वाग्रह के कारण लेखक को न पूरी सचाई दिखी, न ही उसका कारण समझ में आया, कारण की पड़ताल करने चलेंगे तो भटक जायेंगे, इसलिए इतना संकेत पर्याप्त हैं कि इसके मूल में हैं शिक्षा और मनोरंजन कि माध्यमों में बदलाव जिसका प्रभाव लोकगीतों और संस्कार गीतों, लोरियों, दादी नानी की कहानियों, कहारों, धोबियों और दूसरी जातियों के नाच और पैने व्यंग, अहीरों के नाच और दंगल और प्रदर्शन सभी पर पड़ा हैं जिसे सांस्कृतिक समस्या और चरमराती हुई कृषि व्यवस्था के रूप में देखा समझा जाना चाहिए.

५. यह सच हैं की अपनी जीवन शैली में कहीं से मुसलमान न दीखने वाले जोगी, नट, खटीक जिनको हम मुसलमान ही मानते और वे अपने को मुसलमान ही कहते थे, उनके बीच तब्लीगी प्रचार और दबाव के कारण उनका इस्लामीकरण बढ़ा हैं जो एक अलग पक्ष हैं.

६. प्रसंगवश यह याद दिला दें कि सिद्धों की तुलना में नाथपंथी समाज से कटे नहीं रहे अपितु इसमें हस्तक्षेप करने वाले रहे हैं और गोरखनाथ पीठ के जिन दो पूर्ववर्ती महंतों को मैंने देखा हैं – दिग्विजयनाथ और अवैद्यनाथ वे राजनीति में सक्रिय रहे हैं और वह सक्रियता आदित्यनाथ में उनसे कुछ अधिक दिखाई देती हैं. जहां तक साम्प्रदायिकता का प्रश्न हैं इनका हिन्दू महासभा से सम्बन्ध रहा हैं न की संघ या भाजपा से परन्तु निजी आचार सेक्युलर रहा हैं. जिस बम फूटने की बात एक बार योगी ने की थी वह मेरी जानकारी में बस्ती की घटना थी न कि गोरखपुर की. जहाँ तक साम्प्रदायिक दंगों की बात हैं गोरखपुर शहर या पुराने जिले से निकले चार जिलों में कभी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ और और इसका श्रेय गोरखनाथ के महंथों को जाता हैं. इसके विपरीत गोरखपुर की स्थानीय राजनीति वर्णवादी रही हैं, जिसमें ब्राह्मणवादी पहल रहा हैं और महंथ उसके विरोधी रहे हैं जिन्हें इसी कारण क्षत्रियवादी माना जाता रहा हैं, जिससे बचने के चक्कर में मुझे साधनहीन अवस्था में गोरखपुर छोड़ना पड़ा और कोलकाता में सर फोड़ते हुए दिन काटने पड़े थे.

७. योगी के कार्यों, विचारों, कथनों पर विचार और जहाँ वह गलत लगे उसकी सीधी आलोचना होनी चाहिए न कि आड़ लेकर तीरंदाजी. इसे निन्दनीय माना जाता रहा है: कूट्योद्धा हि राक्षसा: पर कथन और कार्य की आलोचना करते समय अवसर और औचित्य का ध्यान रखा जाना चाहिए. मैं उनके चुनावकालीन भाषणों से हताश था. जब दूसरे शंकालु थे तब मैं निश्चित मत का था की जीत भाजपा की ही होनी हैं. तब सभावित मुख्यमंत्रियों में योगी के चयन को मैं उत्तर प्रदेश के हित में नहीं मानता था. इसे लिखा भी था, परन्तु योगी के राजनितिक आचरण ने मेरी आशंकाओं को निर्मूल किया हैं. मुझे कुछ ऐसी बातों से शिकायत अब भी हैं जिनकी अख़बारों और समाचार माध्यमों में तारीफ हो रही हैं, व्यावहारिक राजनीति की समझ कम तो हैं ही यह भी पता हैं कि वहां कोई परिवर्तन वैकल्पिक राजनितिक दबाव से ही सम्भव हैं न कि ‘सुलेखों’ और सुझावों से.