Post – 2017-04-09

इतिहास की खोज और सेमिनारों की उपलब्धि

सेमिनारों को हम विद्वानों का महाभोज कहें या पूर्वाग्रहों का ढिढोरा इस पर बहस हो सकती है पर इस सवाल पर बहस नहीं हो सकती की इनसे मेरा मोहभंग हुआ है. ये अक्सर फरवरी या मार्च में आयोजित होते हैं. पुस्तकों की सरकारी खरीद मार्च में की जाती है. इनका ज्ञान या अनुसन्धान से कम और बचे हुए सरकारी अनुदान का पैसा खर्च करने से अधिक सम्बन्ध होता है. मुझे आरम्भ में इसका लाभ यह अवश्य मिला कि मैं आर्यों के आक्रमण में पैनी कलम और पंचर दिमाग लेकर लड़ते रहने वाले या उनके जत्थे को देश-विदेश से इम्पोर्ट करने वालों को यह समझा सकूं कि आप मिथ्या प्रतीति से ग्रस्त हैं. लोगों को मेरी बात पर हैरानी होती कि बात तो सही है पर ऐसा किसी ने पहले कहा क्यों नहीं. मगध विश्वविद्यालय कि इतिहास और पुरातत्व विभाग के आचार्य और कौशाम्बी की खुदाई करने वाले डी पी सिन्हा मेरे प्रशंसकों में थे पर इसका एक कारण यह था कि ‘तुम जब भी आते हो एक नई बात कहते हो. मजे की बात यह की मैं कभी कोई नई बात कहता ही नहीं. मैं मौलिकता को अध्येता कि लिए दुर्गुण मानता हूँ. मैं कोई ऐसी बात नहीं कहता जिसे पहले किसी ने कहा न हो या जिसके आंकड़े बहुविदित न हों और फिर भी किसी ने उसका वही निष्कर्ष किसी ने पहले निकाला हो जो मैं निकालता हूँ.
यदि किसी ने पहले किसी बात को सिद्ध कर दिया है तो उसे दुबारा लिखने की क्या जरूरत. उसका हवाला देना ही काफी है. सच यह है कि बहुत कम लोग होते हैं जो वह अकादमिक स्वायत्तता अर्जित कर पाते हैं जिसमें वे सभी तरह के प्रलोभनों, दबावों और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचारणीय विषय और वस्तु को उसकी अपनी रगत में देख सकें. यह मुक्तावस्था जिस साधना से आती है उसको प्रतिभा और ज्ञानसम्पदा या पद और प्रतिष्ठा से अर्जित नहीं किया जा सकता इसलिए वस्तुसत्य से आप लुकाछिपी का खेल खेलते रहते हैं. पूरी अनदेखी संभव नहीं. आप नंगे हो जाएंगे. पूरी ईमानदारी के परिणामों का सामना करने का सहस नहीं. इसलिए आप मिलावट करते हैं. अपनी और से कुछ डाल देते हैं और लगभग उसी चालाकी से जिससे खानेपीने की चीज़ों में मिलावट की जाती है और जो पोषक की आड़ में विषाक्त का कारोबार किया जाता है. यदि इससे बचा जा सके तो उसी विवेचन के चमत्कारी परिणाम हो जाते हैं.

इसे समझने में शायद आप को कठिनाई हो इसलिए इसे एक उदाहरण से समझाना उचित होगा. मेरे एक मित्र जो एक पत्र के लम्बे समय तक सम्पादक रहे हैं, लम्बे समय से एक ऐसे चैनल के विचार मंच पर दूध को दूध और पानी को पानी नहीं रहने देते क्योंकि इसी पर उस चैनल का नीरक्षीर विवेचन का कारोबार चलता है हाल में एक लेख शेयर किया जिसके शीर्षक का अर्थ था कभी गुरु गोरखनाथ मुस्लिम योगियों की देख भाल करते थे.
वीडियो का कैप्शन अंग्रेजी में है BEFORE THE RISE OF HINDUTV GORAKHNATH NURTURED MUSLIM YOGIS
https://thewire.in/119102/before-the-rise-of-hindutva-gorakhnath-nurtured-muslim-yogis/
लेख हिंदी में है जिसका शीर्षक है सांप्रदायिकता और जातिवाद के ख़िलाफ़ शुरू होने वाले गोरखनाथ पीठ से कभी बड़ी संख्या में मुसलमान और अछूत मानी जाने वाली जातियां जुड़ी थीं.
मित्र की पदीय हैसियत, विश्व भ्रमण का अनुभव, व्यापक सम्पर्क, एक तीखे तेवर वाले चैनल पर दूध को पानी और पानी को दूध करने की महारत के कारण उसके जुमलों पर आने वाली टिप्पणियां सैकड़ों तक और पसंदगी कई हज़ार तक कुछ घंटों के बाद ही पहुँच जाती है पर पिछले तरह दिनों से लगातार चल रहे इस साझेदारी पर ५०० से भी कम पसंदगी देखकर हैरानी हुई तो मूल लेख पर नज़र डाली और पाया इसे पांच हज़ार सात सौ लोगों ने शेयर किया है. यदि बुद्धिजीवियों के शेयर मार्किट में एक शेयर का औसत मोल ५०० तो नहीं पर १०० भी मानें तो यह ५लाख ७०हजार को पसंद है. मुझे जानकारों ने बताया कि दस पढ़ने वालों में कोई एक पसंद ज़ाहिर करता है. सादा गणित से इसे ज़ेरेनज़र करने वालों की संख्या ५७ लाख हो गई. विश्वास करे कि मैंने आजतक लेख, पुस्तक और ‘मैं भी हूँ, तुम भी हो, दोनों है आमने-सामने’ जिसका अंग्रेजी अनुवाद है ‘फेस बुक’ पर पोस्ट किये मेरे सभी आवेदनों के पाठकों की संख्या इस कीर्तिमान तक नहीं पहुँच पाई होगी. ऐसे लेखक के सामने मेरी हैसियत क्या है. यदि मैं इसकी आलोचना करूं भी तो वह कितने लोगों तक पहुंच पायेगी और उनमें से कितने लोग मेरी बात के कायल होंगे.
संख्या का दबाव विराट लगते हुए भी दूसरे दबावों के सामने तुच्छ होता है या इसमें दूसरे दबाव भी शामिल होते है. यहॉ तो केवल लाखों और करोड़ों का सवाल है नए सत्य तक पहुँचने वाले वैज्ञानिक के सामने तो समस्त के सामने खड़ा होकर अपनी बार कहनी होती है. यदि आप सत्य का अनुसन्धान कर रहे हैं तो आपको संख्या से नहीं अतर्क्य से डरना चाहिए, असत्य से डरना चाहिए और अपनी
मेरे सामने सदा से यह समस्या इससे हजारगुना बड़ी होकर उपस्थित रही है और मैंने अपने प्रमाण देते और पहले की मान्यताओं का पुनः पाठ किया और उसमें वर्तमान असंगतियों को इंगित करते हुए अपनी बात कही. जो गलत है वह गलत है जिन तक यह सन्देश पहुँच सके पहुंचे. सच और झूठ का मुकाबला पुराना है. ऋग्वेद के अनुसार सही और गलत बातों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती है – सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते. आपको चुनाव करना है की आप सत्य के साथ हैं या संख्या बल के साथ हैं या सत्य के साथ. आप के साथ जो भी गुजरे आप तभी तक है जब तक सत्य आपके साथ है. असत्य का दायरा अंधकार की तरह विराट होता है – तम तम से कभी घिरा था – तम आसीत तमसा गूढमग्रे – यह अधूरा सच है. पूरा सच यह की तमोस्ति तमसा ग्रस्त अद्यपि. परन्तु उसकी विश्लता में छिपी दीनता यह है कि वह जुगनुओं की क्रीड़ा और माचिस की तीली से भी डरता है क्योंकि प्रकाश कि प्रकाश के प्रथम आलोक से ही उसका विस्तार और अंधकार का सकोचन और विनाश आरम्भ हो जाता है.
यह खुह्फहमी हो सकती है और इसी ने मैं जो कुछ नहीँ हूँ वह होने से बचाया है.
अब हम इस लेख को समझने और समझ के औजारों का इस्तेमाल करने के तरीके और तर्क सीख सकते हैं.
परन्तु इस पर आने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि एक ही कथन के अर्थ किन बातों से प्रभावित होते हैं और उनका ध्यान रख कर ही उनका मर्म समझ सकते हैं:
१. कोई बात कब कही गई ?
२. क्यों कही गई ?
३. किसने कही ?
४. कैसे कही गई ?
५, किन शब्दों में कही गई?
६. किनके बीच या किनसे कही गई?
किसी कथन का अर्थ और वक्ता की पहचान, उसके इरादे और योजना की परीक्षा इन कसौटियों पर होने के बाद हम उसके संचार मूल्य का निर्धारण कर सकते हैं.
पहले इन के आधार पर हमने जिस लिंक का हवाला दिया है उसे पढ़ें, उसके बाद उसका सही पाठ क्या बनता है इसे समझने की कोशिश कल करें. उसके बाद हम अपने कथी७ पर लौटेंगे.