Post – 2017-04-08

राजनीतिक हितबद्धता और इतिहास की समझ

जोंस ने ऐतिहासिक समझ की कमी से पैदा आत्मग्लानि से यूरोप को बचाने के लिए जो तरीका अपनाया था वह अधकचरा था। उसमें अपने विचारों को हिन्दुओं के बीच स्वीकार्य बनाने के लिए उन्होंने लफ्फाजी से काम लिया था पर वह हमें भा गई थी और यूरोप में उसका भारी विरोध हुआ था। जेम्स मिल का इतिहास जोन्स की खाल उधेड़ने की कोशिश है जिसमे अपनी खाल बचाने की कोशिश तक नहीं दिखाई देती।

उनकी चमड़ी उधेड़ने का काम बहुत निर्ममता से मैक्समूलर ने what India can teach us किया परन्तु यदि आप मैक्समुलर के अपने काम मो देखें तो वह धर्म और विश्वास के दायरे से आगे नहीं बढ़ता जिसका अर्थ है दूसरे सभी धर्मो, विश्वासों और मान्यताओं की कुछ इस तरह व्याख्या करना जिससे उनको हीन या, आधुनिक समाज के लिए अव्यवहार्य सिद्ध करते हुए ईसाई प्रचारकों को अपने मत की श्रेष्ठता सिद्ध करने का अवसर पैदा किया जा सके। विल्सन जिनके विषय में इस तरह का दुष्प्रचार था कि वह अपने कपड़ों के नीचे जनेउू पहनते हैं, उस बोडेन चेयर के पहले प्रमुख बने थे जिसकी स्थापना कर्नन बोडन ने संस्कृत साहित्य का अनुवाद आदि करके ईसाई प्रचारकों को सामग्री सुलभ कराना था ।

ध्यान रहे कि विल्सन के उत्तराधिकारी बनने के दो दावेदारों में एक मैक्समुलर भी थे, जिनके जर्मन मूल के कारण उनका चुनाव न होकर मोनियर विलियम्स का हुआ जिनको हम उनके संस्कृत अंग्रेजी कोश के कारण जानते हैं। इसकी भूमिका में उन्होंने स्वयं लिखा था कि इसका संकलन और संपादन भारत में काम करने वाले ईसाई धर्मप्रचारकों की सहायता के लिए किया गया था। मुझे यह देख कर हैरानी होती रही है कि लगभग सभी प्राच्यविदों का काम भारतीय कर्मकांड, पूजा, जादू मंत्र, पुराने विश्वास आदि पर केन्द्रित रहा, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, आदि पर कम से कम ध्यान दिया गया। व्याकरण पर अच्छा अधिकार अवश्य भारतीय संस्कृतज्ञों से अपने को अधिक योग्य सिद्ध करने के लिए किया जाता रहा। आज तक पश्चिमी अध्येताओं की सीमा यही बनी रह हुई है, इसका केन्द्र अवश्य यूरोप से खिसक कर अमेरिका में चला गया है। पहली नजर में अत्यन्त सदाशयतापूर्ण और भारतकेन्द्रित प्रतीत होने वाले और हमारे विचारकों को मुग्ध करने वाले कामों के पीछे जो सोच काम कर रही थी वह थी धार्मिकता को उभर कर उसका इस्तेमाल करना और राजनीतिक और आर्थिक शोषण की ओर से ध्यान हटाए रखना।

मैक्समुलर के हिंदुत्व प्रेम पर कुछ लोग इतने मुग्ध थे कि उन्हें मोक्षमूलर कह कर अपना आभार प्रकट करते थे। उनके द्वारा रचित संस्कृत साहित्य के इतिहास का शीर्षक था ए हिस्ट्री ऑफ़ ऐन्श्येंट संस्कृत लिटरेचर सो फार एज इट इलस्ट्रेट्स दी प्रिमिटिव नेचर ऑफ़ दी रिलिजन ऑफ़ दी ब्राह्मणाज। इन विद्वानों का कुछ विस्तार से उल्लेख हमने १९७३ में प्रकाशित अपनी पुस्तक आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता में उस चरण पर अपनी समझ के अनुसार किया था। सच कहें तो इससे मेरा ऐसा मोह्भंग हुआ कि उसके बाद से मैं यद्यपि तथ्यों के मामले में उन पर संदेह नहीं करता, पर निष्कर्ष यदि प्रीतिकर हों तो भी, उन्हें यथातथ्य स्वीकार न करके ध्यान इस पर देता हूँ कि उपलब्ध आंकड़ों में से किनको छोड़ा या सन्दर्भहीन प्रस्तुत किया गया है और इनमें कितनी अंत:संगति या विसंगति । इतने से ही परिणाम इतने चमत्कारी निकलते हैं कि लेखक की मान्यता का तो खंडन हो जाता है, उसकी नीयत की खोट भी उजागर हो जाती है।
मैंने यह प्रश्न पहले उठाया था कि यदि अधिकांश काम उन देशों के शोधकर्ता ही कर रहें हैं जिनके इरादे संदेहास्पद हैं तो सन्दर्भ के लिए हमारे पास क्या बचता हैं। एक बार बहुत पहले झिड़की भरे लहजे में कहा था कि अधिकांश लोगों को लिखना तो दूर पढ़ना भी नहीं आता हैं। इसमें यह भी जोड़ सकते हैं सुनना तक नहीं आता हैं। या तो वे पहले वाक्य पर ही अपनी राय बनाकर टूट पड़ते हैं, सुनने का धीरज खो देते हैं, या अनवधान हो जाते हैं, या उल्टा अर्थ लगा बैठते हैं।

ऐसा हमारे पूर्वाग्रहों के कारण होता हैं। पढ़ने में चूक छपे हुए शब्द, व्यक्ति या ग्रंथ के साथ जुड़ी आप्तता में विश्वास के कारण होता हैं और इसीलिए किसी भी देश में क्रन्तिकारी सन्देश लेकर आने वाले सिखाते रहे हैं कि किसी पर विश्वास मत करो, हर चीज़ और व्यक्ति पर संदेह करो, तभी अपनी आँखों से देख सकोगे, वह चाहे वह बुद्ध हों या मार्क्स या स्वामी दयानन्द। इसके विपरीत आपके दिमाग को अपने नियन्त्रण में रखने को आतुर लोग श्रद्धा, आस्था, विश्वास को वरीयता देते रहे हैं, वह धर्म के नाम पर हो, परम्परा के नाम पर हो, या विचारधारा के नाम पर हो ।

इसीलिए मैं यह कई रूपों में दुहराता रहा हूँ कि विचारक के पास विचार के समय धर्म, देश, विचारधारा, अपना-पराया कुछ भी जुड़ा हैं तो वह अपनी साख नहीं बचा सकता और जिसकी साख खत्म हो गई उसके पास सबकुछ होते हुए कुछ नहीं रह जाता। मार्क्सवादियों का सबसे घिनौना हथियार असहमत जनों की साख खत्म करना रहा हैं और अपने आतंक और संख्या बल में मदांध होने के कारण इसका उन्होंने इतनी बेशर्मी से इस्तेमाल किया कि अपनी ही साख गवां बैठे। वह अब अपने माक्र्सवादी होने का दावा करने वाले लेखकों तक सिमट कर रह गई है और वहां भी तभी तक बची रहेगी जब तक सामूहिक आतंक या विरादरी बद्र होने का दबाव बना हुआ है और लोग अपनी आखों से देखना और अपने दिमाग से काम लेना आरंभ न करके समबो लुभाने वाले फिकरो की खोज या आविष्कार करने में लगे हुए हैं।

फेसबुक पर इसके नमूने बहुत आसानी से मिल जायेंगे जिसमे खासे जिम्मेदारी के पदों – प्रोफेसर, सम्पादक, ऊँचे पदों से कार्यमुक्त अधिकारी – पर काम कर चुके लोग भी ऊपर बताई सीमाओं के कारण हलके स्तर के विनोद करते या ऐसे विचार पेश करते हैं कि उनके ज्ञान, प्रतिभा और निजी काम को याद करते हुए उनके इस आचरण पर हैरानी होती। पर अन्धें बहरों का दायरा यदि वहीं तक सिमट कर रह जाता तो उससे बाहर निकल कर सुकून पाया जा सकता था। इसके ही नमूने इनको गालियां देने और कोसने वाले भी देते हैं। बटवारा इतना साफ है और बीच का बफरलैंड तक इस तरह नदारद है कि सोच कर घबराहट होती है।जब तक सोच के केन्द्र में व्यावहारिक राजनीति रहेगी हमारे समाज में बुद्धिजीवी पैदा हो ही नही सकता, पैदा हो तो अकेला पड़ जाएगा और उसकी चीख सही कानों तक पहुंच ही न पाएगी।

आज हमारी चिन्ता के केन्द्र में यह सवाल नहीं है कि मोदी या जोगी कितनी गलतियां कर रहे हैं, सच तो यह है कि अपनी गलतियों के बाद भी वे इतनी ततपरता से काम कर रहे हैं और उसकी कौंध में उनसे कोई छोटी मोटी चूक हो भी जाय तो जनता उसे देखने तक के लिए तैयार नहीं। सारी चिन्ता अपनी साख खोते संचारमाध्यमों और बुद्धिजीवी कहे जाने वालों की हजार लाख की परिधि तक सिमट कर रह जा रही है क्योंकि दशकों के बाद पहली बार गुंडातन्त्र और माफ़ियातंत्र के उस डरावने भविष्य से राहत अनुभव हो रही है जिसमें राजनीति सबसे घटिया पर सबसे अधिक लाभदायक जुए के खेल में बदल चला था और हमारा बुद्धिजीवी उसमें या तो इतना सुकून पा रहा था उसे किसी बात से शिकायत ही नहीं थी, या इतना घबराया हुआ था कि उसकी समझ में नहीं आरहा था कि इससे बाहर निकलने का क्या रास्ता हो सकता है । इस निराशा के बीच से बाहर निकलने का रास्ता निकालने वाले प्रकट हुए, पहली बार देश के लिए काम करने वालों की सरकार ही नहीं दिखाई दे रही है अपितु राजनीतिक आचरण का पूरा चरित्र इतना बदल चला है कि यह विश्वास पैदा हुआ है कि पुराने और घटिया तरीकों से कोई समर्थन हासिल नहीं कर सकता।

इस स्वागतयोग्य स्थिति के बीच चिन्ता का सबसे बड़ा कारण है कटाव करती धारा के दबाव में विकल्प का लगातार भहराते जाना और किसी स्वस्थ और टिकाऊ विकल्प का बढ़ता अभाव कि एकाचारी तन्त्र कायम होने की सम्भवना पैदा हो जाय जो लोकतन्त्र के लिए खतरे की बात है। बुद्धिजीवियों को चुटकुलेबाजी बन्द करके इस पर ध्यान देना चाहिए कि पैशुनि सोच कि जगह स्वस्थ और तर्क और प्रमाणसम्मत आलोचना के माध्यम से क्या ऐसे विकल्प को खड़ा करने में क्या उनकी कोई भूमिका हो सकती है। यह राजनीति की बात हुई जिसकी मेरी अपनी जानकारी सन्तोषजनक नहीं है।

मेंरी चिन्ता भारतीय सामाजिक चेतना के भावी स्वरूप को लेकर है। हमने देखा कि धार्मिकता का उभार हमारे देश के हित में नहीं है इसे उभारने का काम वे करते रहे हैं जो हमे बौद्धिकता के रास्ते से हटाकर भावुकता में ग्रस्त रखना चाहते रहे हैं और इस हद तक सफल भी थे कि विज्ञान के छात्र भी इसके शिकार होते रहे और आज भी हो रहे हैं।

चिंता यह कि एक ऐसा दल जिसकी चेतना का निर्माण ही धार्मिक सरोकारों को उभारते हुए हुआ, वह मुस्लिम भावुकता को खुराक देकर बढ़ाने वाले बुद्धिजीवियों की मूर्खतापूर्ण सोच के बीच क्या समाज को भावुकता के भटकावों से मोड़ कर तार्किकता और वैज्ञानिकता की दिशा में आगे बढाने की दिशा में सफल हो सकती है। अभी तक के अनुभव इस विषय में आश्वस्त नहीं करते। यह अनायास नहीं है कि आपके परामर्शदाता मंडलों में उसी हिन्दुत्व को खूराक देने के कारण महत्व पाने वाले विदेशी स्थान पाएं जिनके पूरे इतिहास में भितरघात के अतिरिक्त कुछ तलाश करने में कम से कम मैं विफल रहा और जिसे १९७३ से लगातार दुहराता रहा हूँ। व्यक्तिगत रूप से इन विद्वानों से मेरे अच्छे सम्बन्ध हैं। मैं उनको इस विषय में सचेत भी कर चुका हूँ कि इतिहास और समाज के विषय में यह नजरिया हमारे ही नहीं मानवता के हिट में नहीं है और परोक्षत: संघ के समर्थन से आयोजित एक सेमिनार में यह भी निवेदन कर चुका हूँ कि हिन्दू इतिहासदृष्टि या भारतीय यथासदृष्टि जैसी कोई चीज उसी तरह सम्भव नहीं जैसे हिन्दू रोगनिदान या हिन्दू विज्ञानं जैसी कोई चीज नहीं हो सकती पर यह दुर्भाग्य की बात है कि वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वाले भी आजतक वैज्ञानिक इतिहास नहीं लिखना चाहते। अपने दुराग्रहों को सही सिद्ध करने के लिए वे विज्ञानं की परिभाषा तक बदल देते हैं।