तीसरे खंड का आमुख
वैचारिक राजनीति सत्ता की राजनीति से अलग होती है। पुराने मुहावरे में कहूँ तो दोनों में सोम और सुरा जैसा अंतर है. एक अमृत दूसरा विष. कला साधना, जिसमें आवेग और मनोज्ञता की प्रधानता होती है, बौद्धिकता का भरम पैदा कर सकती है, परन्तु उसकी भूमिका भिन्न है. अनुभव, ज्ञान, चिंतन और दायित्वबोध के बिना भी उसमें कीर्तिमान स्थापित किये जा सकते है क्योंकि न केवल इल्म से शायरी नहीं आती, बल्कि इल्म अक्सर उसमें मश तरह बाधक होता है जैसे भावुकता और आसक्ति वस्तुपरक चिंतन में बाधक होता है. बुद्धिजीवी वर्ग को परिभाषित करते हुए यह अंतर अक्सर नहीं किया जाता, जब कि इसके बिना विचारक और कला जीवी या कलाकार कि भूमिका स्पष्ट नही हो सकती . कलाकार सही माने में व्यक्तिगत ख्याति और लाभ से प्रेरित होता है और इसी को मानदण्ड बना कर अपना महत्व या कद आंकता है. उसमें प्रदर्शनप्रियता प्रधान होती है. उसकी भूमिका रंजक की होती है विचारक की भूमिका शिक्षक और चिकित्सक की होती है. वह कुछ हासिल करने के लिए नहीं, अपितु जो अनगढ़ और अनिष्टकर है उसे बदलने या निर्मूल करने के लिए कृतसंकल्प होता है। कलाकार की आग सर्जनात्मक उद्भास या इल्युमिनेशन के क्षण से रचना पर्यन्त रहती है, परन्तु चिंतक के भीतर दहकती आग अहर्निश दहकती रहती है, उसके जाग्रत क्षणों में भी और सपनों में भी। इस अन्तर को समझे बिना दोनों की बेचैनी तक का नहीं समझा जा सकता।
सभी चिन्तक अपने अपने ढंग से एक संग्राम में जुटे रहते हैं और यदि उनके विचारों को समाज ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो पाता तो अपने अपने ढंग से अपने औजारों को बदलते और तेज करते रहते हैं पर थक कर बैठते नहीं। सामाजिक चेतना में उनके लेखन से कितना बदलाव आया और कितने समय तक आता रहेगा, इसका उन्हें ज्ञान नहीं हो सकता। कलाकार को इसका पता लगे हाथ चल जाता है. पर उसका हस्तक्षेप व्यर्थ नहीं जाता।
मार्क्स ने गलत कहा था कि अभी तक दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या की है, जरूरत इसे बदलने की है। सचाई यह है कि दार्शनिक अपने ढंग से सामाजिक चेतना और मानसिकता को बदलते हैं। वे चेतना में परिवर्तन के माध्यम से भौतिक और सामाजिक यथार्थ को बदलते हैं और अभीष्ट की सिद्धि के लिए उन्हें अपने अपने औजारों और हथियारों का इस्तेमाल करने को प्रेरित करते हैं। मार्क्स इसके विपरीत औजार और हथियार से चेतना को बदलना चाहते थे। तरीका कितना सही या गलत था यह निर्णय इतिहास पर छोड़ा जा सकता है। बुद्धिवाद, जिसे हम प्रायः भाववाद कह देते हैं, और भौतिकवाद में यही अन्तर है। भाववाद के जैसे नमूने मार्क्सवादी चिन्तन और आचार में मिलते हैं, वैसे बुद्धिवादियों में भी न मिलेंगे।
मेरी लड़ाई झूठ और हिंसा के विरुद्ध रही है। परिस्थितियों के दबाव में यह लड़ाई मेरे होश संभलने से पहले आरम्भ हो गई थी। उसी से मैंने जाना कि बल प्रयोग और हिंसा की आवश्यकता अन्याय करने के लिए या पहले से चले आ रहे अन्याय को जारी रखने के लिए पड़ती है। इसका सहारा लेने वाला कोई भी अभियान या उपक्रम मुझे अनैतिक लगता रहा है और इसके कारण सामाजिक आर्थिक समानता का पक्षधर होते हुए भी मुझे साम्यवादी आचार विकर्षक लगता रहा। व्यावहारिक राजनीति भी मुझे इसी कारण विकर्षक लगती रही और उससे दूरी बना कर रहना अपने नैतिक और वैचारिक अस्तित्व को बचाने का उपाय प्रतीत होता रहा ।
जितने दो टूक ढंग से मैं आज यह बात कह रहा हूं, उतना स्पष्ट बोध,पहले कभी न रहा जब कि आचरण में था। कोई व्यक्ति पद, आयु, या अधीति में कितना भी बड़ा क्यों न हो, यदि वह गलत है तो अमान्य है। गलती करने वाला छोटा होता है, हिंसा करने वाला अनैतिक होता है यह मेरी चेतना में गहरे बना रहा है और इसका विरोध करना मेरे लेखन का लक्ष्य रहा है। यहां अपने और पराए का भी भेद मिट जाता है और इसके कारण मुझे ऐसे अग्रजों से विनम्र दूरी बना कर रहना पड़ा जिनका प्रभाव मेरे लिए अग्राह्य हो सकता था। पहले यह दिशाहीन था । किसी लक्ष्य से जुड़ा न था।
1968 में पहली बार मुझे लगा पश्चिम से जुटाया हमारा सारा ज्ञान अन्तर्विरोधी है और अन्तर्विरोधों का कारण वह फरेब है जिसका सहारा यूरोपीय प्राच्यवादियों को पश्चिम के सनातन श्रेष्ठताबोध को शेष संसार पर लादने के लिए लिया गया। तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्रों में पश्चिम की वर्तमान बढ़त के कारण सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से उसकी अग्रता को औपनिवेशिक अनुभवों से गुजरे सभी देशों के पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी वर्ग अपनी चेतना में उतार चुका है यह मेरे लिए एक सांघातिक अनुभव था और उसके बाद मैं एक ही विचार को अलग अलग विधाओं और माध्यमों से रखता आया हूं। कविता हो या उपन्यास या इतिहास या भाषाविमर्श या आधुनिक सरोकार सभी में विधागत भेद अवश्य है परन्तु सरोकार की भिन्नता नहीं। इस खंड के लेखों में भी वे ही समस्यायें अपने बदले हुए रूप में आती हैं। मैं अपने विचारबन्धुओं और पाठकों तक अपना सन्देश किस सीमा तक पहुंचा पाता हूं और उसकी सोच में कितना बदलाव आ पाता है यही मेरे लेखन का एकमात्र प्राप्य है। इसी से उसका मूल्यांकन भी जुड़ा है।