Post – 2017-04-01

‘कभी अकेले मुक्ति न मिलती’ का अंकशास्त्र

मैं आपको अंकगणित का एक सरल प्रश्न देता हूँ जिसमे सिर्फ जोड़ना और घटाना है, गुना और भाग तक का झमेला नहीं:

1. इस देश कि कुल जनसँख्या लीजिये.

2. उसमें से शिशुओं और बच्चों की अनुमानित संख्या घटा दीजिये .

3. बचे हुए लोगों में से ऐसे लोगों की अनुमानित संख्या घटा दीजिये जो कोई ऐसा काम करते हैं जिसमे कानून या बदनामी का डर लगा रहता हो जैसे चोरी, लूट, मिलावट, करवंचना, दहेज़, रिश्वतखोरी, आदि. इस डरे हुए आदमी को जो अपने बारे में सच तक नहीं बोल सकता क्या आप स्वतंत्र कह सकते हैं ? यदि हाँ तो अपना तर्क दें, यदि नहीं तो इनकी कुल संख्या का अनुमान करिये और इसे बाकी संख्या में से घटा दीजिये.

4. जो बच रहे हैं उनमे से ऐसे लोगों को घटा दीजिये जो जाति और धर्म को अपने विचारों पर हावी होने देते हों और उनके अनुसार अपने निर्णय बदल देते हों.
बचे हुओं में शिक्षित और अशिक्षित में विभाजन कीजिये. शिक्षितो में कितनों ने अपने विवेक से काम लिया है कितनो ने बहुमत के दबाव में अधिक लोगों को रुचने वाले ख्यालों से अनुकूलन कर लिया है.

5. यही कसौटी अशिक्षितों पर लागु करे. जिन्होंने अपने विवेक से काम लिया उनको हम स्वतंत्र मानें और दोनों खानों के आंकड़ों का अपनी संख्या में प्रतिशत निकालें तो पाएंगे अनपढ़ों में स्वतंत्र लोगों का प्रतिशत पढ़े लिखे लोगों की तुलना में बहुत आगे होगा. पढ़े लिखों में अल्पपठित लोगों का प्रतिशत बहुपठित लोगों की तुलना में खासा प्रभावशाली होगा.

परन्तु इनकी कुल संख्या अस्वतन्त्र लोगों की तुलना में इतना दयनीय होगा कि भीड़ का दबाव प्रायः इनके फैसलों को भी प्रभावित करता होगा. यह है कभी अकेले मुक्ति न मिलती यदि यह है तो सबके साथ का गणित. पास हुए या फ़ैल किसी को बताये बिना किसी कोने में दर्ज करलें और अपने को स्वतंत्र बनाने के लिए संघर्ष करें.