हम महान हैं यह कहते ही आप तुच्छ हो जाते हैं. हम महान थे, इसे कहने से अच्छा है हम अपना खाता खोलकर हिसाब सामने रख दें, वही तय करे जब हम वहां थे तो दूसरे कहाँ थे. हम स्वयम न बताएं कि हमने किससे क्या लिया और किसने हमसे क्या पाया, अपितु यह सवाल करें कि जिसे उसने हमें दिया उसे उसने कैसे पैदा किया या किससे पाया और ऐसा ही हिसाब हम स्वयम पेश करें कि हमने उसे कितने लंबे समय में किन चरणों से गुजरते हुए उस पूर्णता तक पहुंचाया जिस पर वे दूसरों तक पहुंचीं, या यदि उन्हें हमने नहीं सिरजा, फिर भी दूसरों को दिया तो उसे हमने किससे पाया था तो इतिहास की असंख्य गुत्थियों का हल निकल आये.
सत्ता के भूखे भाषा के तथ्यों, विचारों का उपयोग ध्वंसक रूप में करते हैं, परंतु वे अपने अस्त्र का प्रभावकारी उपयोग करने के लिए ज्ञान और विज्ञान को नए रूप में परिभाषित भी करते हैं –
जो तुम मानते थे वह विश्वास था,
जो तुम जानते थे वह गलत था,
जो हम कहते है वह सत्य है.
जो इसे नहीं मानता वह या तो पिछड़े दिमाग का है, या देशप्रेम से कातर है या अनभिज्ञ है,
और इन तीनो स्थितियों में से किसी में विश्वसनीय नहीं है इसलिए अंतिम प्रमाण हमारा कथन है.
हम जानते हैं और इसके लिए उनके कृतज्ञ अनुभव करते हैं कि उन्होने जाबाज़ बौद्धिकों का एक ऐसा अखिल यूरोपीय दस्ता तैयार किया जो अपना सर्वस्व लुटाकर भी यूरोपीय वर्चस्व के लिए कुछ भी कर सकता था, और किया भी इस निष्ठां और समर्पण भाव से कि हम उसके सामने नतशिर रह जाते हैं.
इस कर्म में उन्होंने जिस चीज़ को नष्ट किया वह था ज्ञानशास्त्र. इसके कारण उनकी कृतियाँ मनोविकृतियों का दस्तावेज बन गईं. पर गौर करें तो वे अपने जहाज के साथ एक कप्तान की गरिमा के साथ नहीं डूबे, जहाज को डूबने दिया और स्वयम चूहों की तरह अपने को बचाने के लिए उछल कूद मचाते रहे. तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाविज्ञान पहले विज्ञानं से शास्त्र बना और फिर भी वे अपने को भाषा विज्ञानी के रूप में प्रस्तुत करते रहे जब कि उनकी सारी मसन्यताएँ संदिग्ध करार दे दी गई थीं.
हम जानते हैं कि आरम्भ किसी भी जैव, पार्थिव, या सामाजिक सत्ता का हो वह सूक्ष्म होता है और अपने विकास के क्रम में वह रूपांतरित भी होता है और इतना विराट हो जाता है कि जहाँ हम इसे स्पष्ट देख पाते है वहां भी इस परिवर्तन पर चकित ही रहते हैं. यह लार्वा के तितली बनने की क्रिया हो या बट बीज के महाकार बनने का. एक सूझ के अविष्कार और फिर उनकी शृंखला बनने का क्रम हो या आंदोलन और क्रन्तिकारी परिवर्तन का.
इतने सारे यूरोपीय विद्वानों में से क्या किसी की समझ में यह सच नहीं आया जो इतनी मगजमार किताबें लिख चुके थे फिर भी यूरोप में पहुंची किसी भाषा के कल्पित रूप को होल्डाल बना कर पेश करते रहे और इस सचाई को भूल गए कि कोई आरम्भ सर्व समावेश से नहीं होता, यह उसकी परिणति होती है. वे संस्कृतोपम यूरोपीय भाषाओँ के बीच पूर्व-पर का निरूपण करते और समस्या से भागते रहे और फिर भी हम उन्हें सर चढ़ाये रहे और आज भी चढ़ाये हुए हैं.