३
कभी अकेले मुक्ति न मिलती यदि यह है तो सबके साथ
स्वतन्त्रता पश्चिमी अवधारणा है. इसके मूल में है गुलामी की प्रथा. यह प्रथा भारत में न थी या थी तो इसका रूप भिन्न था. वहां समाज फ़्रीबॉर्न और स्लेव में यूनानी काल से ही बंटा था. हमारे यहां फ़्रीबॉर्न की अवधारणा सम्भव न थी क्योंकि यहां जन्म ही गत जीवन के कर्म के बंधनों के साथ होता है. ऊपर से मनुष्य अपने मनोविकारों के अधीन होता है जिनसे संघर्ष करते हुए वह आत्मविजय प्राप्त करता है और निस्पृह भाव से कर्म करते हुए कर्मफल को भस्म करके मुक्ति/ मोक्ष/ निर्वाण पाने का प्रयत्न करता है.
स्वतंत्रता वस्तु नही है, जिसे एक बार में कोई भी मूल्य देकर पाया और आगे हस्तांतरित किया जा सकता है, और इस दृष्टि से फ़्रीबॉर्न और स्लेव का विभाजन सतही है और है इतिहास की चीज. गुलाम रखनेवाला स्वामी हो सकता है, स्वतंत्रत नहीं. गुलामों को कोड़े लगाने के लिए भी प्रायः गुलाम रखे जाते थे. कोड़े मारने वाला गुलाम विद्रोह की आग जिलाए रखने वाले विवश गुलाम से अधिक गुलाम हुआ करता था और इसी तर्क से उसका स्वामी भी सरकश तो माना जा सकता है स्वतंत्र नहीं.
यह अनवरत जागरूकता की मांग करता है. असाधारण सम्वेदनशीलता और मानवीयता की मांग करता है. जो मनमानी करने को स्वतन्त्रता मानता है वह चेतना के स्तर पर गुलाम है. स्वतन्त्र व्यक्ति नियमों, विधानों, आप्त मर्यादाओं का सम्मान और निर्वाह करता है, उन्हें तोड़ता और बदलता नहीं है. मेरी बात शायद अटपटी लगे इसलिए उस मनीषी के विचार रखता हूँ जिसकी दृष्टि बहुत साफ थी और जिसने एक साथ गुलामों और उनके मालिकों दोनों को स्वतन्त्र बनाने के लिए इतिहास का अनन्य युद्ध लड़ा था.
1- Those who deny freedom to others, deserve it not for themselves.
2- Freedom is the last, best hope of earth.
3- As I would not be a slave, so I would not be a master. This expresses my idea of democracy.
4- In giving freedom to the slave, we assure freedom to the free – honorable alike in what we give, and what we preserve.
किसी व्यक्ति की हैसियत, आर्थिक, पदीय, या बौद्धिक कारणों से जितनी ही ऊँची है कानून का पालन करने की जिम्मेदारी उसकी उतनी ही बढ़ जाती है और नियमों को तोड़ने पर उसे उससे अधिक कठोर दंड मिलना चाहिए जो प्राचीन विधानों में था, परन्तु दण्डनीय आचरण करने वाला व्यक्ति अपने को स्वतंत्र कैसे कह सकता है. जो व्यक्ति झूठ बोलता है, करों की चोरी करता है, मिलावट करता है, कामचोरी करता है, जो किसी भी कारण से डरता हो, सच का सामना न कर सकता है वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता.
जैसे जिंदगी में मौत के क्षण होते हैं जिनमे हम समय काट रहे होते हैं जी नही रहे होते – हमारे आलस्य के क्षण, बोरडम के क्षण, चकल्लस के क्षण – वैसे ही स्वतन्त्रता की भौतिक परिस्थितियां सुलभ होने के बाद भी, हम प्रायः विवश और गुलाम की तरह काम करते, सोचते, और जीते हैं.
किसी ऐसे देश में जिसे सैकड़ों साल तक गुलाम या पराधीन बन कर जीना पड़ा हो उसमे हम सब ऐसी शिथिलता के शिकार होते है जिसमे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है. यह संघर्ष किसी बाहरी शक्ति से नहीं अपने आप से करना होता है.
पश्चिमी स्वतंत्रता हो या हमारी आत्मविजय, दोनों कठिन चुनौतियाँ तो है ही जब तक अपने तक या कुछ लोगों तक सीमित रहती हैं तब तक हम यह दावा राजनितिक रूप से स्वतन्त्र देश में भी नहीं कर सकते की हमारा समाज स्वतंत्र है. और ऐसे समाज में कोई अकेला स्वतंत्र होने का प्रयत्न करते हुए भी वयापक स्तर पर उस दैन्य से मुक्ति नहीं पा सकता जो गुलामी का सबसे दुखद तौक है.
व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक चेतना में परिवर्तन के संघर्ष से अनिवार्य रूप से जुडी है. यदि यह है तो सबके साथ. और इसीलिए जब सुधी जनों को गुलामों की तरह सोचते, आचरण करते देखते हैं तो उन्हें टोकने को भी बाध्य होना पड़ता है.
इसका एक ही उपाय है,उन्हें याद दिलाना उत्तिष्ठ, जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत.