समझ के फेर से भयो है हेरफेर ऐसो
काशीनाथ विश्वनाथ राजवाडे ने संस्कृत भाषेचा उलगडा या संस्कृत भाषा के रहस्यों का उद्घाटन में अष्टाध्यायी के सूत्रों के विश्लेषण के आधार पर लगभग पन्द्रह हजार पहले प्रचलित एक बोली के लक्षणों का पता लगाया था जो नितान्त अविकसित थी और जिसे उन्होंने रानटी या जंगली भाषा की संज्ञा दी थी। इसके अगले विकास को उन्होंने अतिजुनाट या अत्यन्त प्राचीन भाषा का नाम दिया था, और फिर उसके विकसित रूप को जुनाट या प्राचीन भाषा की संज्ञा दी।
ठीक इतने ही पहले, यूरोप के अनेक भाषाविज्ञानियों ने भारोपीय भाषा के पूर्वरूपों की तलाश करते हुए एक भाषा की कल्पना की जिसे उन्होंने लगभग समस्त भाषा परिवारों की जननी सिद्ध किया और इसे हमारी भाषा या नोस्त्रातिक लैंग्वेज का नाम दिया।
पश्चिमी जगत में विचारों का कारोबार और इसलिए उनका विज्ञापन उसी जोरशोर से होता है जैसे सौख्य प्रसाधनों और दूसरे बिकाउू सामानों का और उनके संचारमाध्यमों में लगभग किसी से पीछे न रह जाने की चिन्ता में उन्हें जल्द से जल्द झपटने की उसी तरह की होड़ मचती है जैसे हमारे संचारमाध्यमों में सनसनी पैदा करने वाली उटपटांग घटनाओं और कथनों की ‘देखिए इसे सबसे पहले हम आपको बता रहे हैं, कहीं जाइयेगा नहीं, ब्रेक के बाद हम फिर लौटते हैं, आपको एक एक पल के डवलपमेंट की खबर हम देंगे’ के चीत्कार के साथ मचती है। हमारे विद्वान इनको झटककर लल्दी से पेश्तर, जितना हाथ लग सकता है, जुटा कर दूसरों से आगे और अद्यतन जानकारी से लैस सिद्ध करने पर जुट जाते हैं और भारतीय भाषाओं में भी उन अपरीक्षित या वाहियात विचारों की पैठ हो जाती है। कुछ समय बाद पता चलता है कि वह कनस्तर का संगीत था जो अब एक मत से बेसुरा मान लिया गया है। मेरे कहने पर यह बात किसी की समझ में नहीं आएगी इसलिए जिनकी बात मानने की आदत पड़ चुकी है उनके शब्दों में ही देखें:
The Nostratic hypothesis has received much attention not only in professional academic circles but in the popular press as well and have been featured in Atlantic Monthly, Nature, Science, Scientific American, US News and World Report, The New York Times and in BBC and PBS television documentaries. Yet, despite all the ink spilt and all the buzz generated by this hypothesis, it remains outside consensus, in the sense that linguists who do not work on this hypothesis rarely accept it.
Jul 6, 2011 by Asya Pereltsvaig
इसके बाद भी हमारा बुद्धिव्यवसायी इस बात पर लज्जित नहीं होता कि जिसे उछाल कर वह सिर चढ़ा था उसके कूडे़दान में फेंक दिये लाने के बाद उसे भी कूड़ेदान में फेंकने के दिन आ गए हैं। वह बातें गढ़ सकता है, विचार पैदा नहीं कर सकता। वह अपने बचाव में कह सकता है कि जब उस विचार के कूड़ेदान में फेंक दिए जाने के बाद पश्चिम उस पर लज्जित नहीं अनुभव करता तो वह लज्जित क्यों अनुभव करे। वह अपनों से उूपर उठने और मालिकों की निगाह में आने के लिए पश्चिम का छायापुरुष बन कर रह गया है । यह गुलामों से भी अधम स्थिति है। गुलाम व्यक्ति परिस्थितिजन्य विवषताओं के कारण होता है, छायापुरुष वह अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण होता है। गुलाम विद्रोह कर सकता है। छायाएं और छायापुरुष विद्रोह नहीं करते। गुलाम अपनी अधोगति पर ग्लानि अनुभव करता है, छायापुरुष गुलामों के लिए भी गर्हित अवस्था में पहुंच कर छायापुरुषता पर अभिमान करता है। भारत जब पराधीन था तो उसमें पष्चिमी दबाव की पहचान भी थी और उसके विरुद्ध विद्रोह भी था। उसके बाद हमने उस दबाव को अनुभव करना और उससे विद्रोह करने का आत्मबल खो दिया और उस दौर से बुरी अवस्था में पहुंच कर उन्हीं मूल्यों, मानों, ओर सरोकारों के वितरक बन गए जिनके विरुद्ध तब विद्रोह किया जाता था। क्या कोई बता सकता है कि हमारी बौद्धिक गुलामी कब और क्यों आरंभ हुई और किनके कारण और उनसे हम कब मुक्ति पाएंगे और कैसे?
कुछ सवालों के जवाब आपको तलाशने होंगे, उनके परिणाम मुझे बताने होंगे जिससे मेरी समझ भी सही हो, पर इसके लिए आप को यह भी समझना होगा कि काशीनाथ विश्वनाथ राजवाडे क्यों उपेक्षित रह गए। उनमें एक स्वतन्त्र व्यक्ति का स्वाभिमान था। उन्होंने अपना लेखन मुख्यतः अपनी मातृभाषा मराठी में किया। उनके बाद पैदा हुए किशोरीदास बाजपेयी जो राजवाडे को नहीं जानते थे, उन्होंने अपने तरीके से संस्कृत की जातक कथा को जिस तरह आदिम से परिष्कृत और मानक के रूप में स्थापित और बोलियों को संस्कृत से भी अधिक प्राचीन सिद्ध किया वह सरकारी भाषाविज्ञानियों के लिए समस्या बनी रही। इन दोनों की ओर दो कारणों से ध्यान नहीं दिया गया। पहला यह कि वे भाषाविकास की प्रक्रिया के मर्मज्ञ थे जिसका पश्चिमी जगत को ज्ञान तो था, पर वह इस पर परदा डाल कर रखता था। दूसरे इस कारण कि इनका काम अपनी भाषाओं में था और हमने अपनी भाषाओं को कभी इतना सम्मान भी नहीं दिया कि उनमें आने वाले किसी नए विचार का अवलोकन तक कर सकें। मुझे भाषा की समस्याओं को समझते पैंतीस चालीस साल हो चुके थे पर राजवाडे जी के काम का परिचय न था।
रामविलास जी के अवदान – भाषा और समाज- का उसके प्रकाशन के तीस साल बाद तक पता न था। रामविलास जी से परिचय अजय तिवारी ने कराया, और राजवाडे से उससे पांच साल बाद स्वर्गीय राजमल बोरा जी ने जो अकाल कवलित हो गएने परिचित कराया। उन्होंने पुस्तक की एक छायाप्रति मुझे सुलभ कराई और मैं अभिभूत हो गया। प्रकाशकों से बात की कि वे उसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराएं, विलंब होते देखकर कुछ अधिकारी व्यक्तियों से अनुरोध किया और अन्ततः पुस्तक का अनुवाद सुना एन.बी.टी ने प्रकाशित किया पर इसकी जानकारी मिलने पर जब पुस्तक मेले में उसे प्राप्त करना चाहा तो पता चला वह प्रकाशित तो हुई है, मेले में उसकी प्रतियां नहीं लाई गई हैं। मैं यह नहीं जानता कि इसके अनुवाद और प्रकाशन के पीछे मेरे आग्रह का कितना हाथ था पर उसके प्रकाशन के बाद भी सही विज्ञापन एन.बी.टी द्वारा भी न दिए जाने के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं है। हमारे बुद्धिजीवी दासता में सबसे आगे हैं और यह वेदना छलक कर एक समानान्तर पोस्ट के रूप में बाहर आ गई। मैं अपने को लेखक बनाने के लिए नहीं, लिखता, परिस्थितियों के दंश को झेल न पाने और इनसे बाहर आने में आपके सहयोग की आकांक्षा के दबाव में ऐसा करना पड़ता है।
परन्तु पश्चिम के कचरे को भी हमारे यशस्कामी आगें बढ़ कर बटोरते हैं परन्तु उस अनुशासन से जुड़े लोग पाश्चात्य अनुशासन में उसको स्थान मिलने तक संयम से काम लेते हैं इसलिए उन्होंने नोस्त्रातिक की बात तो दूर, तुलनात्मक भाषाविज्ञान को ही दरकिनार कर दिया। यह उनके लिए काजल की कोठरी है। कल हम इन दोनों की आलोचना और मूल्यांकन करेंगे।