Post – 2017-03-13

भाषा

इतिहास की पहुंच लेखन के आविष्कार की अवस्थाओं तक है, पुरातत्व प्रकृति के साथ मनुष्य के प्रभावकारी हस्तक्षेप से पहले नहीं जाता, परन्तु भाषा की पहुंच मानवजाति की उस आदिम अवस्था तक है जब मनुष्य अपनी रीढ़ सीधी कर रहा था।

अतः भाषा हमारे अतीत के अन्वेषण को जिस प्राचीनतम अवस्था तक पहुंचा सकती है, वहां तक भूगर्भविज्ञान की पहुंच तो मानी जा सकती है, साहित्य और पुरातत्व की नहीं।

भाषा पुरातत्व की सही समझ भारत की बोलियों और वैदिक की समझ के बिना असंभव है, कारण इसके निर्माण में सभी की भूमिका है जो सामाजिकता और जातीयता की निर्माण प्रक्रिया को समझने में तो सहायक होती ही है, इतिहास और नृतत्व की दूसरी समस्याओं को समझने में भी सहायक है। यहां हम इसके आद्यरूप को अंकुरित, वर्धित, रूपान्तरित और विकसित हो कर उस परिपक्व चरण तक पहुंचते देखते है जिसके बाद मानक भाषा का प्रसार पूरे भारोपीय क्षेत्र में होता है। इसके प्रभुत्व के कारण उन देशों और क्षेत्रों की भाषाएं दब कर रह गई जिनको हम उनके उपस्तर में तो देख सकते हैं, और जिनके कारण उनमें ऐसे विभेद पैदा हुए जिनको उन क्षेत्रों की उपबोलियों के अध्ययन से समझा जा सकता है और इनकी समानताओं में भी कतिपय विचित्रताएं है जिनका समाधान भारतीय भाषाओं के माध्यम से तो हो सकता है, परन्तु अपनी पड़ोसी भाषाओं से नहीं। अतः उनके माध्यम से हम उनकी विकास प्रक्रिया को नहीं समझ सकते। उनके माध्यम से हम उनकी विकास प्रक्रिया को नहीं समझ सकते।

भारत में भी हम अपनी आधुनिक और मध्यकालीन भाषाओं की भिन्नताओं को इसी नियम से समझ सकते हैं।

यह विचित्र लगेगा कि ऋग्वेदिक भाषा संस्कृत की तुलना में भारतीय बोलियों के अधिक समीप है और आधुनिक भाषाएं अपनी बोलियों की तुलना में संस्कृत के अधिक निकट हैं।

इतिहास की वे समस्यायें जो भाषावैज्ञानिक आधार पर खड़ी की गईं और जिनको अपने अनुकूल परिणाम के लिए भाषाविज्ञान को ही तोड़ मरोड़ कर उसके सांस्कृतिक सारतत्व को नष्ट कर दिया गया उन्हें भाषातत्वों के सही विवेचन और उस पूर्ववर्ती अवस्था की खोज से ही दूर किया जा सकता है जिसकी ओर अभी तक किसी का ध्यान इसलिए नहीं गया कि हमने नए विचार और अनुसंधान के काम को पाश्चात्य जगत पर छोड़ दिया है और उनसे अनमेल पड़ने वाली या उनके द्वारा उपेक्षित दिशाओं में काम करने को न अपने वश का मानते हैं, न जरूरी समझते है। इसे बदल कर कहें तो पहल के मामले ने पश्चिम ने औपनिवेशिक अनुभव वाले देशों मे अधिक सक्रियता दिखाई है जिससे वह इनकी मानसिकता को नियन्त्रित किए रहे।

हमने एक सर्वमान्य सत्य को भुला कर वैयाकरणों की व्याख्या के आधार पर भाषाविज्ञान का आरंभ किया जब कि आरंभ उन ध्वनियों की खोज से करना था जिनसे इस जादू को देखा जा सकता है जिससे कोई अर्थ किसी ध्वनि से जुड़ा और एक ओर तो उसका अर्थविकास – अर्थविस्तार, अर्थसंकोच या स्थिरीकरण – हुआ और दूसरी ओर उनमें ध्वनिगत परिवर्तन करते हुए एक विशद शब्द शृंखला का जन्म हुआ, जिनके बहुनिष्ठ घटकों के आधार पर धातुरूपों और उनके अर्थ का निर्धारण वैयाकरणों ने किया, इसलिए ऊपर से बहुत व्यवस्थित प्रतीत होते हुए भी उनके निरूपण में बहुत गड़बड़ियां रह गईं।

हम भाषा के जिस भिन्न सिद्धान्त की बात कर रहे हैं उसकी पुष्टि ऋग्वेद में परिलक्षित भाषा सिद्धान्त से होती है जब कि पाणिनीय व्याकरण से इसे समझने में बाधा पड़ती है। भाषा श्रुत ध्वनियों का यथासंभव वैसा ही उच्चारण करने की प्रक्रिया है इसलिए समस्त भाषाएं अपने प्राकृतिक परिवेश में विद्यमान ध्वनियों से उत्पन्न होती और अनेक मामलों मे अपने भौगालिक स्थिति से प्रभावित होती है। प्रकृति में मनुष्य की छेड़छाड़ के साथ यांत्रिक ध्वनियाँ का प्रवेश होता है और विचारों के पारस्परिक विनिमय में वृद्धि के लिए पूर्वसर्गों, परसर्गों, अन्तःसर्गों आदि को अपनाया जाता जहां से आगे बढ़ने का जोखम हमारे वैयाकरणों ने नही ली अतः ब्याकरण को समझ कर भी हम किसी भाषा की अंतरात्मा तक नहीं पहुँच पाते । हम पाते हैं कि कुछ पहलू पकड़ से छूट रहे हैं.