प्राच्यविमुखता का इतिहास – 50
हम पिछली चर्चा में किसी अंग्रेज मिशनरियों की नजर से हिन्दू समाज को देख रहे थे, साथ ही यह भी बता रहे थे कि जो कुछ वे देख रहे थे वह मिथ्याप्रतीति या हैल्युसीनेशन नहीं था, जिसके लिए उनको दोष दिया जा सके या उन्हें सिरफिरा कहा जा सके। वे उसे देख रहे थे जिन्हें हम अपनी चेतना में घट्ठे पड़ जाने के कारण देख कर भी देख नहीं पाते थे। वे हमे उस रूप में नहीं देख पाते जैसे हम अपने को देखने की आदत डाल लेते हैं. कोई भी अजनबी हमे पहली बार आश्चर्य की तरह देखता है और आहत अनुभव करता है।
आहत हमें होना चाहिए, क्योंकि ये हमारे समाज की विकृतियां हैं, जिनको किसी दूसरे को नहीं, हमें सहना पड़ता है। जिन्हें हमारे अपनों को भोगना पड़ता है। जो दूसरा इस पर आहत अनुभव करता है और इसके लिए हमारी भर्त्सना करता है, वह सच कहें तो उस घट्ठे की निष्प्राण कोशिकाओं और संवेदी तन्त्र को पुनर्जीवित करके हमारी मदद करता है। हमारी चेतना को झकझोर कर उसमें सक्रियता पैदा करता है, परन्तु यह इतना कठिन काम है कि कुछ संवेदनशील और असाधारण चेतना संपन्न व्यक्तियों की ही चेतना इन घट्ठों से मुक्त हो पाती है, दूसरे इसका विरोध करते है। संस्कृति के भीतर भी अपसंस्कृति के इतने कोने और इतने रूप होते हैं कि उनकी पहचान करना तक एक चुनौती है।
यदि स्वीकार बाद भी यह भय हो कि अपने दोषों को जानने के साथ ही हम लुगदी में बदल जाएंगे तो हम उस सोच को भी समझना चाहेंगे। यह सोच इसलिए पेदा होती है कि दबंग तबको, देशों और संस्कृतियों ने भौतिक रूप में पराजित जनों के मनोबल को तोड़ने के लिए, उनकी कमियों को बार बार दुहरा कर, उनको जलील किया है। ऐसी स्थिति में अपनी कमियों पर पर्दा डालना एक रक्षाकवच है।
ऐसे लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए यह निवेदन करना जरूरी है कि आत्मग्लानि और आत्मालोचन में अंतर है। यदि कोई आत्मग्लानि से बचना चाहता है, तो उसे एक ओर तो मैं गांधी जी की स्वतन्त्रता की परिभाषा की याद दिलाना चाहूंगा कि स्वतन्त्रता में गलती करने की छूट भी शामिल है, क्योंकि मालिक स्वयं हजार गलतियां करता रहे, उसकी ओर कोई उंगली नहीं उठा सकता, परन्तु यदि उसके सेवक से उसकी सेवा के क्रम में एक प्याला भी टूट जाए तो वह उसे अपमानित कर सकता है।
गलती मनुष्य से होती है, इससे कोई बच नहीं पाता, परन्तु गलती कभी प्रभुओं की नहीं मानी जाती, और सेवक की चूक को ले कर भी आसमान सिर पर उठा लिया जाता है। इसलिए यदि स्वामी को गलती करने का अधिकार है, उसकी चूक को क्षम्य माना जाता है तो जो गलतियां स्वभावतः हो जाती हैं तो उनका सभी को अधिकार होना चाहिए।
जो गांधी को दार्शनिक नहीं मानते उन्हें पता लगाना चाहिए कि स्वतन्त्रता की ऐसी परिभाषा उनसे पहले के किसी दार्शनिक ने की है क्या?
परन्तु हमें क्या इस स्वतन्त्रता के चलते यह मान लेना चाहिए कि गलती गलती है ही नहीं? हम गललियां करते रहेंगे और इनसे बचने का उपाय भी न करेंगे।
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं, हम देखने वालों की नजर देख रहे हैं। दाग का यह शेर मुझे बहुत प्रिय है परन्तु दूसरी पंक्ति को मैं कभी कभी इस रूप में भी पढ़ना चाहता हूॅं कि ‘मैं खुद को भी उनकी नजर से देख रहा हूं । जिस व्यक्ति और समाज में आत्मनिरीक्षण की यह शक्ति नहीं है उसमें आत्मबल पैदा नहीं हो सकता। परन्तु जिस तत्व का आधुनिक जगत में अभाव है वह आत्मबल ही है।
आज तक यह समाज मानवता के नियम से चलता ही नहीं रहा; प्रभुत्व के नियम से और प्रभुओं की जरूरतों के अनुसार चलता रहा है। इसमें सबसे दुर्लभ वस्तु स्वतन्त्रता ही है।
पूंजीवाद हो या समाजवाद इन्होंने गुलाम संस्कृतियां पैदा की है। पूंजीवाद में तो पूंजीवादी देशों का शीर्ष पुरुष भी पूंजीवादियों का गुलाम होता है और अपनी जगह पर तभी तक रह पाता है जब तक वह इस गुलामी की शर्तें पूरी करता है। वह आजादी का अर्थ तक नहीं समझ सकता।
समाजवादी देशों में इतनी भी आजादी नहीं होती कि कोई यह पूछ सके कि समाज की तुम्हारी परिभाषा क्या है, और इस डर से प्रश्न पूछने तक की आजादी से वंचित कर दिया जाता है। आजाद व्यक्ति की कल्पना साम्यवाद का सपना था, जो उस तन्त्र के कारण ही सफल नहीं हो सकता था। यह सपना गांधीवाद का भी था जो सफल हो सकता था, परन्तु छद्म पूंजीवाद ने उसे सफल न होने दिया.
उसके बिना पूरी दुनिया गुलामी के वेश परिवर्तन के साथ गुलाम बने रहने को बाध्य है।
विचित्र बात है कि विषमता की उत्पत्ति के कारणों का जैसा सुथरा विवरण पुराण में मिलता है वैसा मार्क्स में भी नहीं मिलता। अधिक विचित्र बात यह कि जिसे गांधी समझ पाते हैं उसे मार्क्स तो समझ ही नहीं सकते थे, पश्चिमी शिक्षा में सने नेहरू को भी न दीखा। इसकी व्याख्या करने भी चलूं तो कई पाठकों को बगुला चले हंस की चाल
ऐसी हालत में क्या बात आगे बढ़ाई जा सकती है?
कल तय करेंगे, परन्तु यह समझ पैदा होने के बाद कि अपनी व्याधियों और विकृतियों की मौजूदगी और उनकी प्रकृति को जानना उनसे मुक्ति की पहली शर्त है।
परन्तु जो आत्मग्लानि से उबर न पा रहे हों, उनके लिए यह बताना जरूरी है कि ऐसी विकृतियां और संवेदनहीनताएं और व्याधियां सभी समाजों में होती हैं। हम केवल दूसरे की कमियों को लक्ष्य कर पाते हैं, उन पर आहत होते हैं, परन्तु अपनी कमियों को लक्ष्य नहीं कर पाते। यदि ऐसा हो पाता तो विश्वमानवता के मानदंड अपना पाते। जिनको अब तक मानसिक ग्लानि के कारण मेरा कथन समझ में नही आ रहा हो, वे यह समझ कर प्रसन्न हो सकते हैं कि वे मानदंड भारतीय आदर्श के अनुरूप ही हो सकते हैं।
भौतिक प्रगति सभ्यता का मानदंड नहीं है। यह शक्तिसंपन्नता का प्रमाण है। विज्ञान संपन्न रावण, जिसने सभी देवों या प्राकृतिक शक्तियों पर अधिकार कर रखा है वह अत्याचारी राक्षस है, और उसके विरुद्ध, उसके अन्याय के विरुद्ध संग्राम करने वाला राम सभ्यता का रक्षक। सभ्यता की रक्षा के लिए अवतार लेने वाला, लोकहितकारी व्यक्ति जो बाद में गांधी का आदर्श भले न बना हो, उसकी राज्यव्यवस्था गांधी का सपना थी।
इसके साथ आप की पीड़ा को दूर करने के लिए यह भी बताएं कि भारत जैसा विशाल देश अपराध के मामले में, इंग्लैंड से इतना पीछे था कि भारत से कालापानी की सजा पाने वाले अंडमान का छोटा सा द्वीप भी पूरा न बसा सके, इंग्लैंड जैसे छोटे से द्वीप के कालापानी की सजा पाने वालों ने आस्टेलिया का महाद्वीप आबाद कर दिया।
हमें दूसरों की नजर में उठने के लिए न तो अपनी व्याधियों को छिपाने की जरूरत है, न अपनी विशेषताओं का कीर्तन करने की। पर यह सोचने की जरूरत तो है ही कि यदि बालिकाबध अपराध मान लिया गया तो भी क्या आज बेटी बचाओ की चीत्कार क्यों लगानी पड़ रही है? आज भी भ्रूण के लिंग परीक्षण का कारोबार कैसे चल रहा है? आज भी नाबालिग बच्चियों के सेक्स का अंतर्राष्ट्रीय अपराध कैसे चल रहा है जिसमें अपने को सभ्य कहने वाले देशों के टूरिस्ट इसी प्रयोजन से अनेक एशियाई देशों की यात्रा करते हैं जिस सेक्स टूरिज्म में भारत भी शामिल हो चुका है? आज भी अनाथ बच्चों का अपहरण करके मेडिकल रैकेट कैसे चल रहा है जहां अंग प्रत्यारोपण के लिए विदेषियों के लिए भारत चिकित्सा की धुरी बन गया है और असंख्य बच्चे हर साल गायब होते हैं जिसका केवल एक नमूना निठारी कांड में सामने आया था और हमने मान लिया कि पुलिस ने एक अपराधी को पकड़ लिया तो अपराध समाप्त हो गया। अपने को बचाने के लिए अपने को जानना जरूरी है और अपने को जानने का एक रास्ता रोगवैज्ञानिक परीक्षणों का सामना करना है।
हम अपने विषय पर तो आ ही न सके। आगे कुछ सुनने समझने का धीरज आप में भी न बचा होगा। अस्तु!