Post – 2016-12-22

ये काम किसने किया था ये काम किसका था

मैं दैनन्दिन की घटनाओं पर लिखने से बचता हूं । कारण दो हैं, एक तो समझ की कमी, दूसरे जितनी जल्‍दी लोग अपनी प्रतिक्रियाएं झोंकना आरंभ कर देते हैं, सचाई के दूसरे पहलूू सामने आने पर उसका चरित्र ही बदल जाता है। इसके आने में समय लगता है और तक तक वह विषय बासी हो चुका रहता है । इसलिए मेरे लिए आकड़ों से अधिक प्रवृत्ति या दिशा अधिक सार्थकता रखती है। कुशीनगर में प्रधानमन्‍त्री के व्‍याख्‍यान के समय ही उनकी कायिक भाषा से मुझेे लगा था कि अपने संकल्‍प और सदिच्‍छा के बाद भी वह ऐसी उलझन के शिकार हो चुके हैं जिससे बाहर निकलने का रास्‍ता सूझ नहीं रहा है और जिसकी प्रकृति ऐसी है कि उसका खुलासा सार्वजनिक रूप से नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि उससे समस्‍या अधिक असाध्‍य होती चली जाएगी। मैंने आगे चलकर जनसाधारण को होने वाली कठिनाइयों के दौर के कुछ अधिक खिचने और इस बीच जनता के धैर्य के चुकने की आशंका को देखते हुए केवल यह कामना की थी कि इसके परिणाम शुभ हों अत: बीच की परेशानियों पर किसी टिप्‍पणी की आवश्‍यकता न थी। यह चुटकी लेने और चुटकी बजाने वालों की शगल का हिस्‍सा था जिसकी बानगियांं देखने को मिलती रहीं।

मेरे लिए निराशा का बहुत बड़ा कारण 5000 से अधिक की राशि जमा करने के साथ इस बात का स्‍पष्‍टीकरण देने का फर्मान था कि उन्‍होंने अब तक यह राशि क्‍यों जमा नहीं की । यह मोहभंग का और एक बहुत बड़े संकट का संकेत था, क्‍यों‍कि कोई भी व्‍यक्ति अपने ही आश्‍वासन को बदल नहीं सकता । सरकार तो कदापि नहीं । इससे केवल आर्थिक असुविधा नहीं पैदा होती, सरकार की साख समाप्‍त हो जाती है और इतना बड़ा खतरा मोल लेने वालों की दुर्गति का तो इससे पता चलता था, परन्‍तु इतना अक्षम्‍य कदम उठाने काेे मैं अपने तई सरकार की सबसे बड़ी हार मानता था। यह उस विकल्‍प से अधिक खतरनाक था जिसमें प्रधानमन्‍त्री ने कहा था कि मेरा क्‍या, मैं तो झोला उठाऊंगा चल दूंगा । यह विकल्‍प अपने आश्‍वासन से पहलटने से अधिक खतरनाक था। भीड से बचने के लिए यह सरकार का ही सुझाव था कि कोई जल्‍दी नहीं है, अपने पैसे आप 31 दिसंबर तक जमा करा सकते हैं और उनसे इसके बाद किसी तरह की सफाई की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। यह वादा खिलाफी थी और ऐसे में यदि सरकार किसी आर्थिक संकट में बांड आदि निकालने का प्रस्‍ताव रखती है तो उसकी विश्‍वसनीयता तक समाप्‍त हो जाती है ।

मैंने इसे एक बहुत बड़े संकट के रूप में तो देखा ही पहली बार इसके प्रस्‍तावकों की समझ और नीयत तक पर सन्‍देह पैदा हुआ । अच्‍छा है, दबाव में ही सही इस आदेेश निरस्‍त कर दिया गया। कालाबाजारी और जमाखाोरी समप्‍त करने के इस अभियान के पीछे जनसाधारण का भी उतना ही प्रबल समर्थन न होता तो विविध माध्‍यमों से जिस तरह के उकसावे दिए जा रहे थे उसमें जाने क्‍या हो सकता था। कहें यह नरेन्‍द्र मोदी का अपना निर्णय नहीं अपितु जनता की चिरप्रतीक्षित आकांक्षा का क्रियान्‍वयन था जिसने इतनी असुविधाओं के बीच भी उसके आत्‍मविश्‍वास को डिगने नहीं दिया। उसके लिए इतना आश्‍वासन ही पर्याप्‍त था कि उसकी परेशानी को कम करने के लिए सरकार अनवरत प्रयत्‍न कर रही है और उसकी असुविधा उन भ्रष्‍टों और जमाखोरों की शरारत से पैदा हुई है जिसका पूर्वाभास यदि सरकार को था भी तो उसका सही आकलन करने में उससे चूक तो हुई परन्‍तु वे बच कर निकल नहीं पाएंगे ।

जनता के इस अभूतपूर्व समर्थन और दृढ़ता के भरोसेे प्रधानमंत्री का आत्‍मविश्‍वास भी लाैैटा है और स्‍वर और कायिक भाषा में भी परिवर्तन आया है। परन्तु परेशानी बहुत जल्‍द दूर नहीं होने वाली है इसका आभास भी बना रहा है।
मैं आज इस विषय को अपने विषय से हट कर क्‍यों ले बैठा इसका एक कारण है। आज एक मित्र की टाइम लाइन पर 2000 के नये नोटों के इतने भोंड़े और शरारतपूर्ण नकल वाले तीन नोट देखने को मिले जिन्‍हें मैं साझा करना चाहूंगा कि उसे देख कर ही इसका सही चरित्र समझा जा सकता है। इनको पेश करते हुए नीचे रिजर्वबैंक के गवर्नर से इसका स्‍पष्‍टीकरण तो मांगा ही गया है, एटीएम का उपयोग करने वालों को इस विषय में कुछ नेक सलाह भी दी गई है जो उनके लिए उपयोगी हो सकती है।

परन्‍तु इस सलाह से यह भी ध्‍वनित होता है कि इनको एक ही क्रम में रखा गया था जिसके पीछे एक गहरा षड्यन्‍त्र हो सकता है, इसलिए जवाबदेही रिजर्व बैंक के गवर्नर की जितनी है उससे अधिक हमारी और उनकी भी है जिन्‍होंने यह जवाब रिजर्व बैंक के गवर्नर से मांगा। मेरी शिकायत यह है कि वे पढ़ेे लिखे, कई बार तो खासे पढ़े, खासे लिखे और खासे अनुभवी होते हुए भी उस तरह की नासमझी क्‍यों करते हैं जिसे अनपढ़ गंवार भी न करना चाहेगा । इसका कारण उनका ज्ञान या अज्ञान नहीं है, अपितु उनकी विवेकहीनता और विमुखता है जिसमें गंवारों को भी जो दीख जाता है वह उन्‍हें दीखता ही नहीं, इसलिए वे कमियों का आविष्‍कार करते हैं और प्रयत्‍न करते हैं कि उनकी बात लोग अब तो मान लें, पर उसे उनकी जमात से बाहर कोई मान नहीं पाता और यह जमात सुशिक्षित होतेे हुए भी रहस्‍यमय कारणों के इतनी अशिष्‍ट है कि यह असहमति को सहन नहीं कर सकती, अपने पक्ष में सही तर्क नहीं दे सकती और उनका कायल न होने वालों से गालियों की भाषा में बात कर सकती है और स्‍वयं अभिव्‍यक्ति के संकट का रोना रो सकती है। सुपठित हो कर ये पढ़ना तक नहीं जानते और अपने गलत पाठ पर विश्‍वास करने का दबाव डालते हैं।

पाणिनीय शिक्षा में कुपाठियों का लक्षण इन शब्‍दों में बयान किया गया है : गीती, शीघ्री, शिर:कंपी यथालिखित पाठक: । यह है तो उच्‍चारण के सन्‍दर्भ में पर इसे विचार पर भी लागू किया जा सकता है । बार बार एक ही राग अलापना, कोई पैशुनी सूचना मिलते ही झटपट उसे मान लेना, आपस में एक दूसरे का अनुमोदन करना आैैर जो लिखा है उसका मर्म समझे बिना उसका शब्‍दश: अर्थग्रहण ये सभी लक्षण या कुलक्षण इन सुपठित माने जाने वालों में मिल जाएंगे।

यदि यह सोचा जाय कि नोटबन्‍दी के माध्‍यम से जमाखोरी और कालाबाजारी का निर्णय बिना तैयारी के लिया गया तो इसका जवाब इसकी असुविधा भोगने वाली वह जनता देती है कि इसे और पहले लिया जाना चाहिए था। फिर भी पहले या बाद के साथ समुचित तैयारी का प्रश्‍न तो बना ही रह जाता है। उसके बिना कोई लाभ किसी को नहीं मिल सकता और यह सच है कि यह कठोर निर्णय लेने वालों को इस बात का ज्ञान तो था कि भ्रष्‍टाचार और जमाखोरी बहुत बड़े पैमाने पर है, उस पैमाने का सही ज्ञान नहीं था, न हो सकता था।

इसका आयाम इतना विस्‍तृत है कि छोटा दूकानदार, यहां तक कि पटरी पर रेढ़ी लगाने वाला तक इसमें शामिल है, निन्‍यानबे प्रतिशत नागरिक इसमें शामिल हैं जो बिना पर्चे के सामान इसलिए खरीदते हैं कि दूकानदार धमका देता है कि परचा लेने पर टैक्‍स की रकम भी देनी पड़ेगी और यह समझ नहीं पाता कि इस धमकी की आड़ में उसने उचित मूल्‍य से कितना अधिक वसूल कर लिया या नकली माल थमा दिया। मेरे पुराने आवास के सामने साग सब्‍जी की रेढ़ी लगाने वाला एक दिन मौज में बता रहा था कि उसने गांव पर कितनी जायदाद बनाई है और कितने खोले दल्‍लूपुरा में खरीद लिए हैं, यद्यपि वह सदा इस बात के लिए तत्‍पर रहता था कि आप सब्‍जी ढो कर क्‍यों ले जाएंगे, मेरा लड़का अर्थात् सहायक पहुंचा देगा। फल की रेढ़ी लगाने वाले की स्थिति वही थी। पुराना मकान बेचने और नया खरीदनेे वाले सभी एक अनिवार्य कालेधन की कवायद से गुजरते हैं और इस अदृश्‍य स्‍तर से ऊपर आता है रिश्‍वतखोरों, जमाखोरों, घूसखोरों, मिलावट करने वालों, अपराध करने वालों और राजनीति का कारोबार करने वालों केे व स्‍तर जिसकी ओर ही हमारा ध्‍यान जा पाता है ।

अब यदि शहरी जमात का नब्‍बे प्रतिशत और गांवों देहतोंं का दस पांच प्रतिशत भ्रष्‍टाचार से जुड़ा है तो सरकार के इस अभियान को इतना बड़ा समर्थन कहां से मिल रहा है कि असुविधा का रोना रोने वाले भी इसे सही कदम मानते हैं और इनकी संख्‍या शहरों में भी कम प्रभावशाली नहीं है । इसका एक कारण यह कि गांव देहात का नब्‍बे प्रतिशत आदमी भ्रष्‍टाचार का इतने स्‍तरों पर और इतने रूपाें में सामना करता है कि वह उस पीड़ा के सामने अपने इन कुछ महीनों के दुख को सहने के लिए तैयार है । परन्‍तु शहरों में किसी न किसी तरह अपने को दागी होने से बचा न पाने वाले भी जानते हैं कि इससे मुक्ति पाए बिना देश का कल्‍याण नहीं इसलिए नगरों से ले कर देहातों तक असुविधाओं को झेलते और त्रासदियों की कतिपय मार्मिक कहानियां सुनते हुए भी वे उससे अधिक दृढ़ता से इसका समर्थन करते दिखाई देते हैं कि इसकी पहल करने वाले प्रधानमन्‍त्री के डगमगाते आत्‍मविश्‍वास को भी सहारा दे सकें ।

अब हम उस विडंबना को समझना चाहेंगे, जिसकेे कारण एक सुचिन्तित योजना के क्रियान्‍वयन में जो बाधाएं आई उनका पूर्वानुमान इसका निर्णय लेने वाले भी न कर सके और यह योजना भितरघात का शिकार हो गई । उसे मैं निम्‍न रूप में समझ पाया हूं, पर अर्थशास्‍त्र की सीमित जानकारी के कारण मैं यदि गलत मिलूं तो आप मेरी गलतियों को सुधार सकते हैं:
1. मैं यह मानता रहा हूं कि बैंक प्रणाली में व्‍यापक भ्रष्‍टाचार है और इस भ्रष्‍टाचार को बढ़ाने में पिछली सरकार की सदिच्‍छा पूर्वक, बेरोजगारी और साधनों की कमी को दूूर करने के लिए उदार किश्‍तों पर उधार देने की योजना रही जिसका पूर्वानुमान वह भी नहीं लगा सकी। इन कर्जो या उधार धन के लिए जो औपचिारिकताएं हैं उनको पूरा करने के क्रम में बैंक अधिकारियों/ कर्मचारियों और दलालों का ऐसा भ्रष्‍ट तन्‍त्र पैदा हुआ जिसका सबसे दारुण पक्ष किसानों के ट्रैक्‍टर अादि के नाम पर उदार लोन के दो तिहाई जुटाने और अदायगी के समय पूरी रकम पर व्‍याज सहित अदा करने की किश्‍तों के इस आशा में जुटते जाने से कि संभव है सरकार की चुनाव आदि के समय माफी की घोषणा से इससे राहत मिल जाय और अन्‍तत: अपने आत्‍मसम्‍मान पर बन आने के कारण उस व्‍यक्ति के मोहभंगजनित आत्‍महत्‍याओं के रूप में सामने आया। यह आर्थिक दुर्गति का परिणाम न था, जिस रूप में प्रेस और विशेषज्ञ इसे पेश करते रहे, क्‍योंकि उस परिवार के शेष लोग उन्‍हीं स्थितियों में जीवित रहे ।

मैं किसानों की आत्‍महत्‍याओं और बैंक के भीतर व्‍याप्‍त भ्रष्‍टता की ओर आप का ध्‍यान दिलाना चाहता था और इन्‍हीं बैंको और बैंक अधिकारियों के माध्‍यम से सरकार को अपनी योजना को कार्यान्वित करना था। इन्‍होंने सरकार की ओर से सुलभ धनराशि को जमाखोरों और कालाबाजारियों से मिल कर किस तरह का कृत्रिम अभाव पैदा किया उसकी कहानियां छन कर आ रही हैं।
उनके विरुद्ध कार्रवाइ्र होगी, यही जनता के लिए बहुत बड़ा आश्‍वासन है।

2. जिन भ्रष्‍ट दलों ने ज्ञात और अज्ञात कारणों से इस अभियान के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया उनसे जुड़ी़ यूनियनें भी थीं और मेरी जानकारी में बैंकों और जीवन बीमा निगम की यूनियनें बहुत प्रभावशाली रही हैं और इनकी पहुंच सभी बैंकों, यहां तक कि रिजर्व बैंक तक रही है। केवल कुछ भ्रष्‍ट अधिकारियों के कारण इतने बड़े पैमाने पर घोटाला नहीं हो सकता था जब तक अकथित रूप में इसके पीछे उन यूनियनों का हाथ न हो जो उन दलों के प्रभाव में रही हैं जो नोटबन्‍दी का नंगई के स्‍तर पर उतर कर भी विरोध कर रहे थे।

3. आश्‍चर्यजन यह है कि इसके पीछे रिजर्वबैंक की भी संलिप्‍तता पाई गई और उनके विरुद्ध कार्रवाई आरंभ की गई ।

4. मेरे लिए अज्ञात कारणों से पिछले दौर में एक ही अंक के अनेक नोट छाप कर निकाले गए थे, परन्‍तु उनमें नकल इतनी भोंडी नहीं थी कि जिसके हाथ में कोई नोट आए वह उसी समय यह तय कर ले कि यह नकली या डुप्लिकेट हो सकता है।

5. नए नोटों में एक ही नोट में एक जगह एक नंबर दूसरी जगह दूसरा नंबर, और एक के बाद एक कई नोटों में क्रम और संख्‍या की वे गड़बडि़यां जो एक साथ बैंक या एटीएम से जारी हों और तत्‍काल नोटिस में आ जाएं, यह क्‍या सरकार के निर्देश या गवर्नर की सहमति से किया जा रहा था।

6. यदि नहीं तो असंतुष्‍ट और इस अभियान का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की यूनियनों की इसमें भागीदारी असंदिग्‍ध है जो उसेे विफल करने के लिए कृत संकल्‍प हैं।

7. यूनियनों के समर्थन की आशंका मेरे मन में पैदा न होती यदि बैंक कर्मचारियों ने विरोध प्रदर्शन न किया होता। अपराधी के पकड़े जाने पर दूसरा कोई उसका साथ नहीं देता। यदि उसके साथ दूसरे भी खड़े होते हैं तो मुझे यह सोचने का पर्याप्‍त कारण मिलता है कि यह उन दलों से जुड़ी यूनियनों की मिली भगत और भ्रष्‍ट कर्मचारियों अधिकारियों और देश के कालाबाजारियों के मिले जुले तन्‍त्र का परिणाम है।

इन विषम परिस्थितियों में इतनी विकट समस्‍या का अन्तिम समाधान निकालने के लिए कृत संकल्‍प सरकार की मैं भूरि भूरि प्रशंसा करता हूूूं और घबराहट में अपनी साख दांव पर लगाते हुए अपने ही आश्‍वासन से पीछे हटने के लिए उसकी भर्त्‍सना करता हूं और आशा करता हूं कि अपनी सरकार गिरने की स्थिति में भी वह सरकार की विश्‍वसनीयता को दाव पर न लगाएगी।