शान्ति के लिए युद्ध
शान्ति की कामना और इसके लिए प्रयत्न सभ्यता की कसौटी है तो युद्ध जघन्यतम अपराध का महिमामंडन है। विश्व के ज्ञात इतिहास में इसकी कामना और इसके लिए प्रयत्न भारत में आज से पांच हजार साल से और संभव है उससे भी कुछ पहले से मिलती है, परन्तु हमने इसे उन भयानक संघर्षो के अनुभवों से प्राप्त किया था जिनके कई तरह के आख्यान हमारे प्राचीन साहित्य में मिलते हैं। यह हिंसक उपायों की व्यर्थता के बोध का परिणाम था, परन्तु इसके बाद भी ऐसा कोई समय भारतीय इतिहास में भी नहीं आया जब इसका अविकल निर्वाह संभव हुआ हो। इसका प्रधान कारण रहा है शान्ति की आड़ में दूसरों का शोषण अर्थात् जिन्होंने अपने श्रम से अपने जीवन यापन के उपादानों का उत्पादन नहीं किया, उनके द्वारा किसी भी युक्ति से दूसरों के द्वारा उत्पादित उपादानाें का अपहरण अथवा प्रकृति की निष्ठुरता के कारण श्रम के बाद भी अपने निर्वाह के लिए उन सुविधाओं को न प्राप्त कर पाना जो प्रकृति की उदारता के कारण दूसरे क्षेत्रों में बसने वालों द्वारा अल्प श्रम से ही प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो जाते रहे हैं ।
प्राय: इन दोनों के मिले जुले रूप सभी सभ्यताओं में और यहां तक कि सभ्यता से पहले की अवस्थाओं में भी पाए जाते रहे हैं। हम यदि इसे अधिक गहराई से समझना चाहें तो समस्या अधिक जटिल होती जाएगी क्योंकि इसके सभी सूत्रों को तलाश पाना भी अनेक पड़तालों के बाद ही संभव है।
मोटे तौर पर युद्ध और शौर्य के गौरव का आधार रहा है, अन्याय का उन्मूलन और अन्यायियों से अपनी रक्षा के लिए सामरिक तैयारी और यह इस तैयारी में शिथिलता न आने पाए इसलिए अपनी ओर से भी आक्रामण और शक्ति विस्तार का प्रयत्न जो क्षेत्रविस्तार और बड़े साम्राज्यों की स्थापना का कारण बना ।
स्थायी शान्ति के लिए अन्यायियों का उन्मूलन और इसलिए बिना उनकी ओर से किसी उकसावे के उन पर आक्रमण और संहार मूल्य प्रणाली की भिन्नता के कारण भी रहा है परन्तु इनके बीच सनातन वैर के मूल में यह तथ्य रहा है कि एक मूल्य प्रणाली दूसरी के अस्तित्व में बाधक रही है।
यह मामूली भिन्नता हत्या, चोरी, लूट, ठगी या धोखाधड़ी के उन सभी अपराधों का समाहार होने के बाद भी युद्ध को गौरवान्वित कर देती हैं क्यों कि छोटे पैमाने पर किए जान वाले अपराध व्यक्तिगत लाभ्ा के लिए किए जाते हैं, जब कि युद्ध में वही काम अपने प्राणों को उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो कर पूरे समाज, समुदाय या देश्ा के व्यापक हित के लिए किया जाता है।
कहें शान्ति और युद्ध के अपने दर्शन तैयार किए जा सकते हैं, परन्तु समस्त मानवता का ध्यान रखते हुए यह मोटी समझ बनती है कि यदि हम मानव ऊर्जा को हिंसा, अपराध और युद्ध पर न बर्वाद करें तो मानवता अपनी समग्र ऊर्जा के धनात्मक और सहयोगी उपयोग से उन ऊंचाइयों को हासिल कर सकती है जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते। इसलिए विश्वशान्ति की वह कामना जो भारतीय मनीषा में हजारों साल से रही है फलीभूत नहीं हो पाई उसकी कामना पश्चिम में, मेरी समझ से जो गलत भी हो सकती है, भारतीय मनीषा से परिचय के बाद, पैदा हुई जिसका एक संक्षिप्त इतिहास हिंदी विकीपीडिया में सुलभ हुआ जिससे मैं इस रूप में अवगत भी नहीं था न ही संभव है, आप ने भी ध्यान दिया होे। उसे मैं यथातथ्य उद्द्धृत करना चाहूंगा:
”राष्ट्रों के एक शांतिपूर्ण समुदाय की अवधारणा की रूपरेखा तो बहुत पहले 1795 में बह गई थी, जब इम्मानुअल कैण्ट की परपेचुअल पीसः ए फिलोसोफिकल स्केच[5] में एक राष्ट्रों के संघ के विचार की रूपरेखा रखी थी, जो राष्ट्रों के बीच संघर्षों को नियंत्रित करे और शांति को प्रोत्साहित करे. वहीं कैंट ने एक शांतिप्रिय विश्व समुदाय की स्थापना के लिए तर्क दिया कि यह इस अर्थ में नहीं होगा कि कोई वैश्विक सरकार बने, बल्कि इस आशा के साथ कि प्रत्येक राष्ट्र खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करेगा, जो अपने नागरिकों का सम्मान करे और विदेशी पर्यटकों का एक तर्कसंगत साथी प्राणी के रूप में स्वागत करे. यह इस युक्तिकरण में है कि स्वतंत्र राष्ट्रों का एक संघ होगा जो वैश्विक रूप से एक शांतिपूर्ण समाज को प्रोत्साहित करेगा, इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय समुदायों के बीच एक अनवरत शांति कायम हो सकेगी.
”सामूहिक सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए यूरोप समारोह में उत्पन्न अंतर्राष्ट्रीय सहयोग नेपोलियन युद्धों के बाद उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय राष्ट्रों के बीच यथास्थिति को बनाए रखने और युद्ध को टालने के लिए विकसित हुआ। इस अवधि में पहले जिनेवा सम्मेलन में भी युद्ध के दौरान मानवीय सहायता के लिए कानून स्थापित होने तथा 1899 और 1907 के अंतर्राष्ट्रीय हेग सम्मेलन में युद्ध के बारे में तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण हल के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का विकास हुआ।
”शांति कार्यकर्ताओं विलियम हैंडल क्रीमर और फ्रेड्रिक पासी ने 1889 में राष्ट्र संघ के पूर्ववर्ती अंतर्संसदीय संघ (आईपीयू (IPU)) का गठन किया था। यह संगठन विस्तार में अंतर्राष्ट्रीय था जिसमें 24 देशों की संसदों के एक तिहाई सदस्य शामिल थे, जो 1914 तक आईपीयू (IPU) के सदस्यों के रूप में कार्यरत थे। इसका उद्देश्य सरकारों को अंतरराष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण तरीकों और मध्यस्थता के माध्यम से हल करने के लिए प्रोत्साहित करना था और सरकारों द्वारा अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की प्रक्रिया को निखारने के लिए वार्षिक सम्मेलन आयोजित किए गए। आईपीयू (IPU) की संरचना में एक अध्यक्ष की अध्यक्षता में एक परिषद शामिल थी जो बाद में राष्ट्रसंघ की संरचना में भी परिलक्षित हुई.
”बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में यूरोप की महाशक्तियों के बीच गठबंधन के माध्यम से दो शक्ति केंद्र उभरे थे। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने के समय ये गठबंधन प्रभावी हुए थे, जिसके कारण यूरोप की सभी बड़ी शक्तियां इस युद्ध में शामिल हो गई थी। औद्योगिक राष्ट्रों के बीच यूरोप में यह पहला बड़ा युद्ध था और यह पहला मौका था कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगीकरण के् परिणामों (उदाहरण के लिए व्यापक स्तर पर उत्पादन) को युद्ध को समर्पित किया गया था। इस औद्योगिक युद्ध के परिणामस्वरूप हताहतों की संख्या अभूतपूर्व थी, जहं 85 लाख सशस्त्र सेनाओं के सलस्य मारे गए थे और अनुमानतः 2 करोड़ 10 लाख लोग घायल हुए थे तथा करीब एक करोड़ नागिरक मारे गए थे।
”1918 में जब तक युदध समाप्त हुआ युद्ध ने बहुत गहरे प्रभाव छोड़े थे, पूरे यूरोप में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तंत्रों को प्रभावित किया था तथा उप महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और शारीरिक क्षति पहुंचाई थी। दुनिया भर में युद्ध विरोधी भावना उभरी, प्रथम विश्व युद्ध को “सभी युद्धों का अंत करने वाला युद्ध” बताया गया था। पहचाने गए कारणों में हथियारों की दौड़, गठबंधन, गुप्त कूटनीति और संप्रभु राष्ट्र की स्वतंत्रता शामिल थे जिनकी वजह से वे अपने हित में युद्ध में गए थे। इनके उपचारों के रूप में एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन की रचना को देखा गया जिसका उद्देश्य निरस्त्रीकरण, खुली कूटनीति, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, युद्ध छेड़ने के अधिकार पर रोक तथा ऐसे दंड जो युद्ध को राष्ट्रों के लिए अनाकर्षक बना दे, था।
”जबकि प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था फिर भी, बहुत सी सरकारों और समूहों ने पहले से ही युद्ध की पुनरावृत्ति को रोकने की दृष्टि से, जिस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय संबंध चल रहे थे, उनको बदलने की योजनाएं बनाना शुरू कर दिया था। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन और उनके सलाहकार कर्नल एडवर्ड एम हाउस ने उत्साह से प्रथम विश्व युद्ध में देखे गए रक्तपात की पुनरावृत्ति को रोकने के एक माध्यम के रूप में संघ के विचार को प्रोत्साहित किया और संघ बनाना विल्सन के चौदह सूत्री शांति कार्यक्रम का केंद्र था।[19] विशेष रूप से अंतिम बिंदु में प्रावधान थाः “बड़े और छोटे राष्ट्रों के लिए समान रूप से राजनीतिक स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता की परस्पर गारंटी देने के उद्देश्य से विशिष्ट कानूनों के अंतर्गत राष्ट्रों का एक महासंघ बनाया जाना चाहिए.”[20]
”अपने शांति सौदे की विशेष शर्तों का मसौदा तैयार करने से पूर्व विल्सन ने यूरोप की भू-राजनैतिक स्थिति का आकलन करने के लिए जो भी जानकारी आवश्यक हो उसे संकलित करने के लिए कर्नल हाउस के नेतृत्व में एक दल का गठन किया। जनवरी 1918 के आरंभ में विल्सन ने हाउस को वॉशिंगटन बुलाया और दोनों पूर्ण गोपनीयता के साथ गहन मंत्रणा में लग गए, 8 जनवरी 1918 को राष्ट्रपति द्वारा अनजान कांग्रेस को राष्ट्र संघ पर पहला भाषण दिया गया।
”विल्सन की संघ के लिए अंतिम योजनाएं दक्षिण अफ्रीकी प्रधानमंत्री यैन क्रिस्टियन स्मट्स से अत्यधिक प्रभावित थी। 1918 में स्मट्स ने राष्ट्र संघः एक व्यावहारिक सुझाव शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था। एप एस क्राफोर्ड द्वारा लिखी स्मट्स की आत्मकथा के अनुसार विल्सन ने स्मट्स के “विचार और शैली दोनों” को अपनाया था।
”8 जुलाई 1919 को, वुडरो विल्सन संयुक्त राज्य अमेरिका लौटे और उनके देश के संघ में प्रवेश के लिए अमेरिकी लोगों का समर्थन सुनिश्चित करने के लिए एक देशव्यापी अभियान में लग गए। 10 जुलाई 10 को, विल्सन ने सीनेट को संबोधित करते हुए घोषणा की कि “एक नई भूमिका और एक नई जिम्मेदारी इस महान राष्ट्र के सामने आई है, जिसको हम आशा करते हैं कि हम सेवा और उपलब्धि के और उच्च स्तर तक ले जाएंगे.” सकारात्मक स्वागत, खास कर रिपब्लिकनों की तरफ से, अति दुर्लभ.”
राष्टसंघ के विफल होने के जो कारण थे उन्हें दूर करते हुए संंयुुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई दूसरे महायुद्ध के बाद । परन्तु क्या दुनिया में शान्ति है ? यदि नहीं तो क्यों नहीं । प्रथम महायुद्ध की विभीषिका केे अनुभ्ाव ने यह बोध जगाया कि अब आगे से सारे झकड़े आपसी पंचायत से निपटा लिए जाएं और जो भी इसकी अवमानना करे उसके विरुद्ध संयुक्त राष्टसंघ की शान्ति सेना कार्रवाई करेगी, परन्तु यह कहीं न कहा जा सकता था, न कहा गया कि इसका नियन्त्रण उसके हाथ में रहेगा जो इस संस्था का खर्च उठा सकेगा और यह उसके अन्याय को सही ठहराने और उसकी मनमानी को बढ़ावा देने वाली संस्था बन कर रह जायेगी।
युद्ध को रोकनेे के प्रयत्नों के बाद भी युद्ध जारी है। इसकी प्रकृृति में इतना अन्तर आया है कि पहले के दोनों महायुद्ध युराेेप के राष्ट्राेें के बीच लड़े गए थे और उसकी सबसे अधिक क्षति गोरों को उठाना पड़ा था यद्यपि अमेरिका को कोई क्षति नही हुई और उसे चौधराहट का मौका मिला, वहीं दूसरे महायुद्ध के बाद (1) सारे युद्ध अमेरिका की पहल से किए गए हैं, (2) इस बात का ध्यान रखा गया है कि गोरी नस्लों पर आच न आने पाए, (3) पहले गोरे राष्ट्र शेष जगत जिसे रंगीन त्वचा के लोगों का संसार कहा जा सकता है, उसको अपना उपनिवेश बनाने और उन उपननिवेशों के माध्यम सेे उनकी नैसर्गिक संपदा के दोहन और उनको अपना बाजार बनाने के लिए करते थे, वहां अकेले अमेरिका ने दूसरे महायुद्ध के बाद के सारे युद्ध स्वयं छेडें हैं और दोनों महायुद्धाेें में जितना विनाश हुआ था उससे अधिक विनाश इन युद्धाेें में हुआ है और वह भी अन्य देशों अर्थात रंगीन जगत की समस्त नैसर्गिक संपदा के दोहन और उसके अपने हथियारों का बाजार बनाने के प्रयोजन से उनमें कलह पैदा करने के लिए ।
यदि पश्चिम से इतर देश इस विराट योजना को समझ सकें तो उन्हें अापसी समझदारी से अपने विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाते हुए अमेरिका और यूरोप के दूसरे देशों के आयुध का बाजार बनने से बचना चाहिए और इस संकट को देखते हुए अपनी एक जुटता बढ़ानी चाहिए और ईसाइयत की आड़ में अपनी दखलअन्दाजी के क्षेत्र विस्तार के प्रति भी सजग होना चाहिए, परन्तु क्या यह संभव है । क्या यह समझ पैदा हो सकती है । क्या इसके विरुद्ध फैलाए जाने वाले अमेरिकी जाल से हम अवगत हो और उनसे बचने का प्रयास कर सकते हैं । भरोसा नहीं होता । दूसरों की समझ पर भी और अभी हमने जो विवेचन किया है उस पर भी नहीं, क्योंकि इतनी जटिल समस्याओं को समझने की अपनी योग्यता पर भी भरोसा नहीं है ।
फिर भी यह न भूलें कि कि संयुक्त राष्ट्र संघ अमेरिका के हाथों का खिलौना है, उसके कुकृत्यों पर चुप्पी साधने और उसे रास न आने वाले मुद्दों पर बहाने तलाश कर सभी तरह के प्रतिबन्ध लगाने का माध्यम है, और इसने उसकी पहल से अफ्रीका के एक देश में विषाणुओं का प्रयोग करके उसमें महामारी फैलाने का अभियोग स्वयं स्वीकर किया था। अमेरिका अपनी दरिंदगी से भी सैन्य बल का प्रयोग कर सकता है और शान्ति के नाम पर संयुक्त राष्ट्र संघ की शान्तिसेना का भी सामरिक उपयोग कर सकता है।