Post – 2016-11-05

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 24
मैंने मान लिया था कि मोदी फैक्टर पूरा हो गया, पर मेरा मित्र पूरा होने दे तब न! एक साथ बहुत सारी शिकायतें लेकर धावा बोल दिया, “देख लिया तूने लोकतन्त्र में मोदी का विश्वास । मैं पहले दिन से कहता आया हूं, यह आदमी मक्कार है। अभी एक दिन पहले ही पत्रकारिता पर गोयनका पुरस्कार देते समय कह रहा था कि पत्रकारों को अपनी साहसिक और ईमानदार रिपोर्टिंग से, सरकार के गलत कामों की खरी आलोचना से यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आपात काल की दुबारा कभी नौबत न आने पाए और अगले ही दिन एनडीटीवी को बन्द करने का दंड। यह आदमी कहे पूरब चलने को, तो समझो पच्छिम जाएगा।”
मैंने कहा, ”देखो, मुझे जो कुछ पिछले एक साल के अनुभव से समझ में आया है, हम पशुओं की भाषा की ओर बढ़ रहे हैं। विचारशून्‍यता का ऐसा माहौल कि तनिक भी उकसावे पर लोग वही बोतें, उतनी ही ऊंची आवाज में, जिसमें शब्‍द का अपना अर्थ खो जाता है, गुर्राएंगे । कुत्‍तों के दो झुंडों की लड़ाई हो जैसे । कहो कुछ भी उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। विचार का स्‍थान हितबद्धता या पूर्वाग्रह ने ले लिया है। इतने सारे विजय घोषों के बीच संवादहीनता का जो सन्‍नाटा उन आवाजों से फैलता है, सन्‍नाटे का वह रूप जिसमें आप आवाजों से बचने के लिए कान बन्‍द कर लेते हैं, सुनना नहीं चाहते, उससे डर जाता हूं। डर भाषा और विचार के नष्‍ट कर दिए जाने और लगातार करते चले जाने के जनून से लगता है।
”समाज जो पहले से कई तरह के दरारों को लंबे समय से झेलता आया है, जिसकी सबसे बड़ी समस्‍या उन दरारों को कम करने और संभव हो तो भरने की है, एक नये विभाजन का शिकार हो गया है। एक काम करने वाला समाज जो अपना उत्‍पाद दूसरों को देता और उनके उत्‍पाद स्‍वयं पाने का प्रयत्‍न करता है। काम करने के कारण वह अपने ढंग से सोचता है जिसमें प्रधान होती है अपने काम के रास्‍ते में आने वाली रुकावटों और अपने उत्‍पाद का सही मूल्‍य पाने की चिन्‍ता। दुनिया के सारे सरोकार उसके लिए इन दो पर आकर केन्द्रित हो जाते हैं । वह उस समझ या बोध पर पहुंचता है जिसे हम आलोक कह सकते हैं। वह अपना काम करता और उसके माध्‍यम से दुनिया को देखता है इसलिए उनका ज्ञान और बोध बहुत साफ होता है, परन्‍तु उस जटिल और बहुआयामी बोध को शब्‍दों में बांध कर सुगम्‍य विचाराें में बांध कर रखने की कला से वह परिचित नहीं होता। वह इस बात की आशा करता है कि कोई शब्‍दसाधक उसके नजरिए से दुनिया को समझे और उसे वाणी दे। उसके विचारों में सचाई होती है, क्‍योंकि जिन उपादानों से उसका पाला पड़ता है उनकी सीमा को वह जानता है और जानता है कि अपने समस्‍त कौशल के बाद भी वह उससे कुछ चीजें ही बना सकता है।
भाषा के कारोबार में लगे लोगों के पास सारी दुनिया के सभी पदार्थों, विचारों, भावों और क्रियाओं के लिए शब्‍द होते हैं और उनमें कुछ मे यह विश्‍वास होता है कि वे शब्‍दों से कुछ भी गढ़ और बना सकते हैं, यथार्थ तक को बदल तो नहीं सकते परन्‍तु अपने ढंग से ऐसा इन्‍द्रजाल तैयार कर सकते हैं कि लगे यथार्थ मिथ्‍या है और उनका ऐन्‍द्रजालिक यथार्थ सच है। यह नया कारोबार नहीं है। पुराने समय से चला आ रहा है। शायद यही सोचकर अफलातून ने कवियों को नगर राज्‍य से निष्‍कासित करने का प्रस्‍ताव रखा था जिसे उनका शिष्‍य अरस्‍तू भी ठीक ठीक नहीं समझ सका और ऐन्‍द्रजालिक संसार रचने वाले राज्‍य निकाला पाने से बच गए। अपनी युक्ति और कवित्‍व पर अधिक भरोसा करने और हम जो चाहें सिद्ध कर सकते हैं का भ्रम पालने वाले ऐसे लोगों के विषय में संस्‍कृत का एक श्‍लोक है:
अपारे शब्‍द संसारे कविरेव प्रजापति: ।
यथेदं रोचते विश्‍व तथेदं परिवर्ततते ।
मैंने पढ़ा तो काव्‍य संसारे था परन्‍तु मुझे शब्‍द संसारे अधिक उपयुक्‍त लगता है।
(इस अपार शब्‍द संसार में बातें गढ़ने वाला ही ब्रह्मा है, उसके मन को जैसा सुहाता है उसी तरह इसे बदल कर रख देता है)।
बातें गढ़ने वाले दो धड़ों में बंटे हुए है। एक चतुर चालाक और दूसरे जो अपनी बात कहने का रियाज कर रहे हैं। चालाक लोग अपने आत्‍मविश्‍वास और हित के अनुसार जैसा भी चाहते हैं, वैसा बदलाव करके दूसरों को दिखा देते हैं और एक दूसरे को समझा लेते हैं कि सच यही है और सचाई को मजाक समझने के कारण इस बातूनी दुनिया के लोग इस ऐन्‍द्रजालिक यथार्थ को यथार्थ मान कर शोर मचाना आरंभ कर देते हैं। सोचते तो हित बद्धता एक होते हुए भी नतीजे में कुछ भिन्‍नताएं होतीे। अनुपात में कुछ भेद होता । रंग अपनी अपनी पसन्‍द का होता। एक अवसर से दूसरे अवसर के कथन में कुछ अन्‍तर होता, और आवाज की कर्कशता, ऊंचाई आदि में दूसरों से अन्‍तर होता। यह अंतर तो मेढ़कों की टर्राहट में भी होता है, यार, लेकिन यहां तो कोई अन्‍तर दिखाई ही नहीं देता। इनसे अधिक भरोसे के तो अपनी बात कहने का रियाज करने वाले दूसरे लोग होते हैं जिन्‍हें हम बुद्धिजीवी तक नहीं मानते। वे टटोल टटोल कर बात कहते हैं, अपनी बात को सच साबित करने के लिए शब्‍दों के जादू और फेफड़े की मजबूती का सहारा न ले कर तथ्‍यों और आंकड़ों के साथ बात करते हैं वे इसीलिए वे बातूनी लोगों से अधिक भरोसे के लगते हैं क्‍योंकि उनके कथन में सब्‍स्‍टैंस अधिक होता है, केमिस्‍ट्री कम । तुम अपने जादू से यूरिया से दूध बना कर दिखा सकते हो, वे बेचारे इस कला से परिचित न होने के कारण यदि बेईमानी पर आ गए तो अधिक से अधिक थोड़ा पानी मिलाएगें और उसे गाढ़ा करने के लिए थोड़ा मिल्‍क पाउडर भी मिला सकते हैं।
”परन्‍तु मुसीबत यह है कि शब्‍दों के खोखलेपन और बातूनी लोगों की कलाबाजी से तंग आने के कारण काम करने वालों का जो विशाल तबका है, वह अपने कानों पर हाथ लगा लेता है। वह अाधागांव की भाषा में बात करता है और अधिक शाेर होने पर तंग आकर जितनी खरी बात करता है उसे बातें गढ़ने वाले तो कर ही नहीं सकते। उनकी भाषा में कहूं तो :
”हरामखोरो पिछले एक साल में कितनी बार तुम इमरजेंसी लग लग गई कहते आए हो, यह गिन कर मुझे हिसाब दो तब हम तुम्‍हें बताएंगे कि इमरजेंसी में मेढक टर्राते नहीं है, इस में ऐसी दाहकता होती है कि भरे तालाब सूख जाते हैं और मेढ़क अपनी बिलों में समा कर तापनिद्रा में चले जाते हैं।” इसका जवाब तुम दे पाओगे ? दे सको तो गिन कर बताना कितनी बार आपात काल आ गया दुहरा चुके हो और तक मैं मान लूंगा कि इमरजेंसी के कितने सौ गुना भयानक दौर से देश गुजर रहा है। और यदि यह न हाे सके तो कल मैंने एक पोस्‍ट शेयर किया था, उसको पढ़ कर समझना कि इमरजेंसी लगी, नहीं पर तुम चाहते हो कि लगती तो तुम्‍हारे दिन फिर आते ।”
उससे कुछ कहते न बन रहा था, पर मेरा जी नहीं भरा था, ”तुम कहते हो बिना इमरजेंसी के हम सही रास्‍ते पर आ ही नहीं सकते। तुम जानते हो इरजेंसी तुम्‍हें इतनी सुहावनी क्‍यों लगती है, क्‍योंकि उसी समय लालायित लोगों के दिन फिरे थे जो कालपात्र वाला, भारत का एक नया इतिहास लिख रहे थे। उसी समय मु‍स्लिमलीग का ऐजेंडा खुल कर सामने आया था और प्राचीन भारतीय संस्‍कृ‍ति और मूल्‍य व्‍यवस्‍था का योजनबद्ध रूप में सत्‍यानाश आरंभ हुआ था और हिन्‍दुओं के विरुद्ध पाठ्यक्रमों के स्‍तर से ही इतनी घृणा पैदा की जाने लगी कि आज बुद्धिजीवियों के जहन में संघ और भाजपा एक डरावनी और जघन्‍य चीज दिखाई देने लगी है। बार बार दुहराने से भूत भी डर पैदा करने लगता है जब कि वह होता नहीं है।
यह पाकिस्‍तान के पाठ्यक्रमों के माध्‍यम से हिन्‍दुओं और भारत के विषय में पैदा की जाने वाली घृणा का ही भारतीय संस्‍करण था और इसलिए भाजपा और मोदी का नाम आते ही प्रसंग कोई हो, अनुपात कुछ भी हो, तुम्‍हें हर एक काम में आपात काल, प्रच्‍छन्‍न आपात काल आता दिखाई देता है जब कि इस आदमी का लोकतंत्र में इतना गहन विश्‍वास है कि उसने कश्‍मीर में उस दल के साथ भी सरकार बनाई और उसके हाथों सत्‍ता सौंप दी जिसके तेवर पृथकतावादी माने जाते थे। वह जानता था कि लोकतन्‍त्र की प्रक्रिया और जिम्‍मेदारी बिगड़े हुए दिमाग को भी सही कर देती है।
तुम्‍हीं कह रहे थे कि एक दिन पहले ही संवाददाताओं और संपादकों से सरकार की गलतियों को पूरी निष्‍पक्षता और निर्भीकता से प्रस्‍तुत करने की बात कर रहा था जिससे लोकतांत्रिक मूल्‍यों की रक्षा की जा सके। तुम बताओगे अन्‍तर्विरोध कहां है। देश की आततायियों से रक्षा के विषय में इस हद तक की छूट कि तुम्‍हारी रपट रेकी का काम करने लगे, इतना विस्‍तार कि इतने विशाल क्षेत्र में फैला है यह हवाई अड्डा, इतने विमान रहा करते है, इसमें कहां कहां से भीतर घुसा जा सकता था, और आतंकवादियों ने अमुक तरीका अपनाया, यदि वे यहां से घुसे होते तो अंजाम क्‍या होता।’ यह सरकार के कामों की आलोचना है कि आतंकवादियों की मदद?
तुम्‍हें याद है फेस बुक पर उस समय बहुतों की ऐसी प्रतिक्रियाएं आई थीं कि एनडीटीवी को इसके लिए पाकिस्‍तान से पैसा मिला है। बरखादत्‍त के रिश्‍ते खंगालने लगे थे लोग। अभी हाल में इस बार चाइना का माल जरूर खरीदना कहने का कितना पैसा मिला था उसे ? वह केवल चौंकाने वाली बातें करता है और विघटनकारी पक्ष उठाता है, पर उसके लिए उसे दंडित नहीं किया गया। किया उस देशघाती काम के लिए जिसमें पाकिस्‍तान को वे सूचनाएं दी जा रही थीं जो कोई रेकी से ही जुटा सकता था। सरकार ने इतना लंबा समय ले कर जांच दल के इस सुझाव के बाद कि ऐसे चैनल को सदा के लिए बन्‍द कर देना चाहिए केवल एक दिन का प्रतीकात्‍मक दंड दिया । इतनी नरम चेतावनी को मानने तक से इन्‍कार कर रहे हो तुम लोग। कहते हो हम दंड की भाषा ही जानते है। यह बुद्धिजीवियों को शोभा देता है क्‍या ?”
वह उठने की तैयारी करने लगा तो मैंने हाथ पकड़ कर बैठा लिया और आवाज को कुछ संतुलित करके कहा, ”एक बात जानते हो। कहते हैं हमारे पेट में भी एक छोटा सा दिमाग होता है जो कुछ फैसले दिमाग से अलग, स्‍वतन्‍त्र रूप में लेता है। पर यह नहीं जानते होगे कि यह छोटा दिमाग बातूनी लोगों के पेट में होता है और काम करने वालों के हाथ में। इतना सधा हुआ हाथ कि किसी से बात चीत कर रहे हों तो भी हाथ सधी गति से अपने फैसले करता, पैटर्न बदलता रहता है। हमारे देश के काम करने वाले बृहत्‍तम तबके के पास छोटा दिमाग हाथ में होता है, उसे काम करने वाला अपना सगा लगता है । मोदी काम करता है इसलिए वह उसके साथ है। मोदी के हाथ में दिमाग है इसलिए वह उसे अपने काम पर खर्च करेगा, तुम्‍हें डंडा मारने पर नहीं, जिसके लिए तुम तरस रहे हो। यह इच्‍छा तुम्‍हारी पूरी होने वाली नहीं।”
अब मैंने उसका हाथ ढीला कर दिया और स्‍वयं भी उसके साथ ही उठ खड़ा हुआ।