Post – 2016-11-03

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी – 3

”तुम तो बुरे फंसे यार, घेर लिया भाइयों ने अब जवाब देते नहीं बन रहा है।”

”तुम कबसे उनके साथ हो लिए ? तुम्‍हारी तो पार्टी लाइन ही हाइपर मुल्‍ला है।”

”मुसलमानों के खिलाफ तो आज भी नहीं हूं, पर मोदी के खिलाफ तो हूं न! वह मुसलमानों को पटाएगा तो उसका विरोध तो करूंगा ही । मुझे तो इस बात में मजा आ रहा था कि भाइयों ने तुम्हारे इतिहास-ज्ञान को फीते से नाप दिया। तुम्‍हारी खाल उधेड़ी जाय तो मैं तो उधेड़ने वाले से कहूं जरा संभाल के उतारना और एक टुकड़ा मुझे दे देना, उसकी खजड़ी बनाऊंगा। बुरा मत मानना, खजड़ी से जो आवाज निकलेगी वह भी तो तुम्‍हारी ही होगी न !”

”मैं जानता था, तुम यही कर सकते हो। संगत ही ऐसों की चुनी है। पर मेरे साथ उठते बैठते हो तो इतना तो जान लो कि जो लोग इतिहास को वर्तमान पर रख कर उसे समझने की कोशिश करते हैं वे वर्तमान को देख नहीं पाते, इतिहास को देख नहीं सकते। वे अपने खयालों की ही पूजा करते हैं। यह मूर्तिपूजा का ही आभ्‍यन्‍तरीकरण है। हम इतिहास के केवल उस अंश को जानते हैं जिसके विषय में कुछ सूचनाएं कुछ माध्‍यमों से हमारे पास पहुंची हैं और जिनके आधार पर हमने उसकी एक काल्‍पनिक तस्‍वीर तैयार की है। उसको तस्‍वीर की बारीकियों को जानना तो जरूरी है, परन्‍तु वर्तमान पर लादना गलत। इससे वर्तमान ओझल हो जाता है। भविष्‍य की परिकल्‍पना तो की ही नहीं जा सकती। अन्‍त हमेशा निराशा में होता है। बहुत कुछ कर लिया, इतनी बार, कुछ नहीं हुआ, अब एक ही काम बचा रहता है, अपना सर पीटना। यह भूल जाते हैं कि जिस समय के विषय में आप कह रहे हैं कि बहुत कुछ किया, इतनी बार किया, उस समय भी आप कुछ करने से अधिक अपना सर ही पीट रहे थे।

”इतिहास से हम इतना ही जान लें कि मनुष्‍य और मानव समाज में, रोकने वालोंं की कोशिशोंं के बाद भी, बदलाव हुए हैं, तो हमन्रे उससे आधी शिक्षा ग्रहण कर ली। यदियह भी जान लिया कि किन परिस्थितियों और दबावों में क्‍या बदलाव हुए तो अापने इतिहास से जो कुछ जानने योग्‍य था, सब कुछ जान लिया। अब आप अपने मन में यह आशा पाल सकते हैं कि नए और इच्छित दिशा में कुछ बदलाव लाए जा सकते हैं। यदि परिस्थितियां उन परिस्थितियों से भिन्‍न हों जिनमें ये बदलाव प्रयत्‍न करने के बाद भी नही लाए जा सके, तो निश्‍चय ही यह आशा की जा सकती है कि इस बार के प्रयत्‍नों का परिणाम पहले जैसा नहीं होगा। भौतिक विज्ञान में और इसके प्रयोगों में हम उन कारणों को समझने के बाद उन गलतियों से बचने के साधन जुटा लेते है, तरीका बदल देते है, सामाजिक क्षेत्र में हम जुटाने के नाम पर यदि कोई संगठन बना या आन्‍दोलन खड़ा कर लेते हैं तो बड़ा दीखने के बाद भी वह संपूर्ण सामाजिक जटिलताओं और उनकी व्‍याप्ति की तुलता में इतना तुच्‍छ होता है कि इससे अपघात तो किया जा सकता है, बदलाव नहीं लाया जा सकता। इसलिए हमें भौतिक विज्ञानियों से भी अधिक सतर्कता से सही समय और सही तरकीब का आविष्‍कार करना चाहिए जो इतनी बड़ी चुनौती है कि इसकी समकक्षता में कोई आ ही न सका। फिर भी यदि हम ऐतिहासिक शक्तियों की सही पहचान कर सकें तो उनके भरोसे अधिक फलदायक प्रयोग या पहल कर सकते हैं।”

”यहां तक तो तुम्‍हारी बात सही है, मुस्लिम समुदाय भीतर से आज बेचैन सा है। हमारी ही सोसायटी में एक रिटायर्ड इंजीनियर हैं। सुनते कम हैं। कुछ पुस्तिकाएं हिन्‍दी में छपवा कर लोगों में बांटते फिरते हैं कि कुरान एक अच्‍छी पुस्‍तक है और इसमें अच्‍छी बातें लिखी हुई हैं। इसमें से एक किसी शंराचार्य के नाम पर भी है।”

”होगी। न हो तो भी, मान लें कि हिंदू पोंगापंथियों और मुस्लिम कठमुल्‍लों में एक बेचैनी है कि उन्‍हें बंद दिमाग का न समझा जाए।”

”तुम कुछ घबराए हुए से लगते हो वर्ना हिंदुओं में भी पाेंगापन्‍थी है यह नाम न लेते। कम से कम तुम जैसे आधी खोपड़ी के आदमी के लिए यह शोभा नहीं देता। बताओगे उन्‍हें तुम भी पाेंगापन्‍थी मानने और मुस्लिम कठमुल्‍लों के समानान्‍तर रखने पर किस कारण तैयार हो गए।”

”पहली बात तो यह कि मैं उन्‍हें मुस्लिम मुल्‍लों के साथ रखने को तैयार नहीं। कारण, मुस्लिम मुल्‍ले इस्‍लामी प्रशासन को नियन्त्रित करते रहे हैं। इस हद तक नियन्त्रित कि अकबर के बादशाह बन जाने के बाद भी एक मुल्‍ला ने उन पर छड़ी चला दी थी और अकबर कुछ न कर सके थे। यही गुस्‍सा था कि अकबर ने मुल्‍लावाद को खत्‍म करने के लिए दीने इलाही की योजना अबुल फजल और फैजी के पिता के सहयोग से बनाई और अपने को इमाम घोषित करते हुए इस्‍लामी आक्रोश से बचते हुए एक नया धर्म चलाया, मजहब नहीं, धर्म, जिसमें सभी धर्मों के अनुकरणीय आदर्शों को जगह दी गई, पर मुल्‍ला तंत्र इतना प्रबल रहा है कि दीने इलाही अकबर के साथ ही खत्‍म हो गया और उनका बेटा तक उसमें दीक्षित न हो सका।

कहें, राजनीति पर मुल्‍लाें का कुरानशरीफ और हदीस की अपनी व्‍यख्‍याऔ और फतवा जारी करने के अधिकार से पूरा नियंत्रण रहा है, जब कि साधु और शंकराचार्य राजनीति से बाहर थे और अब मुल्‍लों जिउतना न भी मिले तो भी राजनीति में दखल चाहते हैं इसलिए यह दिखाना चाहते हैं कि वे उतने बन्‍द दिमाग के नहीं है कि उन्‍हें केवल धर्मक्षेत्र में ही सीमित करके उसे ही उनका कुरुक्षेत्र बना दिया जाय। पर इस दिखावे के बाद भी वे वर्णव्‍यवस्‍था को हिन्‍दू समाज का अनिवार्य लक्षण मानते हैं और वहां उनके दिमाग का खुलापन गायब हो जाता है।

मुल्‍लों को बादशाहत या तानाशाही से टकराने में डर नहीं लगता था, पर लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में जनता के मन पर पड़ने वाली छाप या सही गलत की चिन्‍ता चुनौती बन कर आती दिख रही है। यहां फतवे बेकार हो जाते हैं। धर्मग्रंथ अपनेे आप सन्‍देह के दायरे में न सही, समीक्षा के दायरे में आ जाते हैं इसलिए उन्‍हें उचित और व्‍यावहारिक सिद्ध करने की चिन्‍ता पैदा होती है। उनकी आन्‍तरिक बेचैनी का एक सबसे बड़ा कारण यह है।

दूसरे भी कारण है, आज आतंकवादी गतिविधियों के कारण मुसलमानों के बारे मे बनती समझ और वह भी खास कर इसलिए कि इसे इस्‍लाम की तालीम पाने का दावा करने वालों या तालिबान के नाम पर चलाया और पहचाना जाने लगा है। बेचैनी यह कि उनको देख कर यदि यह समझों कि कुरआन या इस्‍लाम उन गतिविधियों का समर्थन करता है तो यह सही नहीं है। दुर्भाग्‍य से उनका विरोध गलत और तालिबानी तरीका इस्‍लामी लगता है जिससे वे लाेकता‍ंत्रिक व्‍यवस्‍था में स्‍वयं भी डूबेंगे और दूसरों को भी डुबाएंगे।”

”वह तो छोड़ो, तुम जानते हो कहा जाता है कि मोहम्‍मद साहब के नया मजहब चलाने तक दुनिया जाहिलिया के दौर से गुजर रही थी जब कि मुल्‍लों ने कुरान शरीफ की आड़ में मुस्लिम समुदाय को जाहिलिया के दौर में पहुंंचा दिया क्‍योंकि वे किसी ऐसी चीज को जानने और मानने को तैयार ही न थे जो कुरान में लिखी किसी बात से अनमेल पड़े । जिनके पास ज्ञान के नाम पर एक ही किताब रह जाए, दूसरा सारा ज्ञान उनके लिए शैतानी खुराफात लगे वे जाहिल तो रहेंगे ही।”

”यह हाल तो तुम्‍ही कहते हो कि पोपतंत्री ईसाइयत में भी रहा है और आज भी है।”

”ठीक कहता हूं । वही झाड़ फूंक, वही अन्‍धविश्‍वास, वही धूर्तता, वही चमत्‍कार, जिस धर्म से किसी व्‍यक्ति या समुदाय को विचलित करना है उसके बारे में उसी तरह की घृणित बाते ईसाई प्रचारक आज भी करते हैं। जानते हो स्‍टेंस के साथ जो लिंचिंग का कांड हुआ था उसका कारण क्‍या था? उसके भारत में रहने का बहाना था कोढि़यों की सेवा। सेवा करने वाला अस्‍पताल में रहेगा, घर घर घूम कर, वह भी रात में यह काम न करेगा। कारण था उसका घूम घूम कर ईसाइयत का प्रचार और इस प्रचार के क्रम में हिन्‍दू देवी देवताओं के बारे में गर्हित बातें करना। उस रात भी वह उस आदिवासी परिवार में इसी आशय से गया था। उसका एक फुटेज पहले आया भी था फिर भी ईसाइयों के दबाव में उसे हटा लिया गया था। और वह दारा सिंह तो उससे पहले कांग्रेस का आदमी था, नन्दिनी सत्‍पथी के आश्रय में गया था, पर मीडिया किसी भी चीज को कोई रंग दे लेती है। उनके धर्मान्‍तरण का विरोध मुख्‍यत: संघ वाले करते रहे हैं इसलिए उन्‍हें किसी से भी नुकसान हो, वे असली दोषी को छोड़ कर संघ पर आरोप लगाएंग। रेप के कुकृत्‍य होते रहते हैं पर यदि वह किसी नन के साथ हो गया या दलित के साथ हो गया तो तुरत इसका राजनीतिक पहलू उभार कर अपराधी को बचाने और इस मौके का फायदा उठाते हुए अपने प्रसार में बाधक बनने वालों को देश-देशान्‍तर में बदनाम करने का प्रयत्‍न किया जाता है। पुलिस जब यही काम करती है तो हम उसकी निन्‍दा करते हैं जो करना भी चाहिए, परन्‍तु राजनीतिक दल और मीडिया के सहयोग से जब भारत में ऐ भिन्‍न सांस्‍कृतिक और धार्मिक उपनिवेश कायम करने वाले आए दिन यही करते रहते हैं तो हम क्षमा करते रहते हैं।”