भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 21
कई बार कई कारणों से सन्देह पैदा होता है कि क्या मोदी का सबका साथ सबका विकास मात्र एक नारा है, जिसका उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए किया जाना है?
मुझे दूसरे नेताओं से मोदी का यह फर्क दिखाई देता है कि दूसरों की चुनावी भाषा और बाद की भाषा और कामों में प्राय: असंगति होती है, मोदी ने अपने बयान नहीं बदले और उन सभी वादों को क्रियान्वित करने का प्रयास किया। उनके परिणाम अनुकूल ही हों यह जरूरी नहीं।
मैं परिणाम से अधिक प्रयत्न को महत्व देता हूं। इसलिए यह भी उनका खाेखला वादा नही लगता, फिर भी जिस संगठन के समर्थन की उन्हें जरूरत पड़ती है उसके सभी लोगों की सोच वही नहीं है जो मोदी की। कुछ घोर मुस्लिम द्रोही हैं, दूसरे सन्देहवादी। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो मोदी की योग्यता और लक्ष्य में विश्वास करते हैं। यह बात उन मुखर लोगों तक सीमित है जिनके विचारों को हम सूचना के विविध माध्यमों से जान पाते हैं।
सामान्य लोग, जिनकी समझ पर सरकारों के भाग्य का फैसला होता है, क्या सोचते या मानते हैं, इसे जानने का हमारे पास कोई उपाय नहीं, क्योंकि हम भी उनसे सीधा संपर्क नहीं रखते या जिन कारणों से उनके संपर्क में आते हैं वह कार्यसाधक होता है जिसमेंं उनके विचार जानने का अवसर नहीं मिलता। जिसे हम जनमत कहते हैं, उसकी रुझान का दावा हम नहीं कर सकते। पर यह विश्वास कर सकते हैं कि वह विघटन और उपद्रव पसन्द नहीं करता, और प्रगति के लिए शान्ति और व्यवस्था को जरूरी मानता है। दूसरी असुविधाओं के बारे में वह तभी किसी को जिम्मेदार मानता है जब वह किसी के कारण होता दिखाई देता है।
हम यह मान कर चलें कि मोदी समाज को इसलिए जोड़ना चाहते हैं कि इसमें उनका भी लाभ है और समाज का भी। जहां दोनों पक्षों के हितों में टकराव न हो वहां कथन और कार्य की विश्वसनीयता बढ़ जाती है।
मोदी के खुले विरोध में वे हैं जो स्वयं दावा करते हैं कि वे देश को तोड़ना चाहते हैं। इनमें प्रमुख वाम दल रहे हैं । इनका लक्ष्य था आरंभ से ही यह था कि देश को ऐसे छोटे स्वायत्त टुकड़ों में बांटा जाय जिनको आधार बना कर सशस्त्रक्रान्ति संभव हो सके और जो ऐसे हों कि आवश्यकता पड़ने पर कम्युनिस्ट देशों से असला हासिल किया जा सके। जल्द ही इन्होंने मुस्लिम लीग की कार्ययोजना को अपने कार्यक्रम का हिस्सा बना लिया और देश के विभाजन का समर्थन किया। नक्सल नक्सलबाड़ी के तंग हिस्से में उपद्रव करके उसे शेष बंगाल से काट कर उत्तरी बंगाल में कम्युनिस्ट राज्य स्थापित करके धीरे धीरे पूरे देश में क्रान्ति लाना चाहते थे। यही लक्ष्य उससे पैदा हुए दूसरे संगठनों का था और वे अपने प्रभाव क्षेत्र को देश से अलग काटने और उसका विस्तार करने की योजन पर काम करते है। वे विश्व व्यवस्था के ऐसे ‘महान’ कार्यक्रम पर काम करते रहे जिसमें राष्ट्रीय भावना और देशहित, संकीर्ण और बाधक प्रतीत होता था। मुस्लिम पान इस्लामिज्म से इस मामले में उनका विचार-साम्य था। रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा। तोड़ने की इस नीति के कारण ही राष्ट्रवाद को वे जर्मन राष्ट्रवाद कह कर इस पर प्रहार करते रहे जब कि दूसरे संकीर्ण संगठनों का समर्थन तक करते रहे।
संघ की कुछ सीमाएं तो जगजाहिर हैं। यह भी लीग की तरह विलगाववादी रहा है जिसका रणनीतिक महत्व जो भी हो, सांस्कृतिक महत्व शून्य है। रक्षा के लिए हमें सेना और पुलिस का भी सहारा लेना पड़ता है, परन्तु इनका सांस्कृतिक मूल्य नहीं होता। इसलिए कोई बुद्धिजीवी या संस्कृतिकर्मी ऐसे संगठन के साथ नहीं हो सकता या रहे तो इससे उसका लेखन प्रभावित होता है और वह अपनी क्षमता के लिए शक्य शिखर तक नहीं पहुंच पाता। परन्तु इस संगठन को दहशतनाक बताने के पीछे यह तथ्य भी रहा है कि यह अकेला मुखर संगठन है जो राष्ट्रनिष्ठा और देशप्रेम का राग अलापता है जो उस वामपंथी विश्ववाद के प्रतिकूल है जिसका विश्ववाद देशद्रोह की सीमा तक जा सकता है।
कम्युनिस्ट पार्टी ने यदि लीग की योजना पर काम करते हुए यह सोचा हो कि इससे उसका जनाधार बढ़ेगा तो वह गलत सिद्ध हुआ। इस्लामी कट्टरता का साथ देने वालों को इस बात का ध्यान न रहा कि इस्लाम का पूरा ढांचा ही अल्लाह में और उसके पैगंबर में विश्वास पर टिका है, इसलिए यह किसी अनीश्वरवादी संगठन का साथ नहीं दे सकता। अत: लीगियों ने कम्युनिस्टों का इस्तेमाल कर लिया, वे लीगियों तक को अपने साथ नहीं ला सके। उनको मिलना हुआ तो वे कांग्रेस में जा मिले क्योंकि सत्ता में जगह बनाने का वही आसन्न रास्ता था।
उसकी आलोचना यदि संघ तक सीमित रहती तो इस पर कोई आपत्ति न होती, क्योंकि यह हिन्दू समाज केे हितों तक सीमित था जिसमें मुसलिम समुदाय का अहित भी अपना हित लगता था । लीग से एकात्म्य स्थापित कर लेने के बाद इनकी दिलचस्पी मुस्लिम हितों तक सीमित रह जाने और हिन्दू अहित को भी अपना हित मानने की प्रवृत्ति कम्युनिस्ट पार्टी में प्रवेश कर गई।
इस ओर किसी की दृष्टि न गई, क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग और प्रचार तन्त्र पर उसका एकाधिकार सा होता गया था और उनसे भिन्न विचार रखने वाले हाशिये पर डाल दिए गए थे। इसने हिन्दू विरोध को सक्युलरिज्म का पर्याय बना दिया और हिन्दू समाज, संस्कृति अौ इतिहास की उपेक्षा ही नहीं करती रही अपितु इनके प्रति घृणा का भी प्रचार और अपव्याख्या से उसका ध्वंस भी करती रही। इसकी घृणा हिन्दू से बढ़ते हुए हिन्दी, हिन्दुस्तान तक पहुंच गई।
साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़ी प्रतिभाओं को यह भ्रम रहा कि वे शोषण के विरुद्ध और शोषितों के पक्ष में संघर्षशील एक दल के साथ है और इसलिए इस भितरघात पर किसी का ध्यान नहीं गया और इस कार्ययोजना को उन्होंने भी आत्मसात कर लिया। भारत तेरे टुकड़े होगे, या भारत की बर्वादी तक जंग चलाने वालों से इसका साथ वह तार्किक परिणति है जिससे पहले उनका असली चेहरा उजागर नहीं हुआ था। कारण अपनी विफलताओं के कारण वे उस हताशा तक नहीं पहुंचे थे जिसमें अपना अन्त निकट दिखाई देने लगता है। अन्त काल निज रूप दिखावा और वह भी यह भूलते हुए कि ‘उघरे अन्त न होंगि निबाहू ।’
यदि भारत की बर्वादी के साथ कांग्रेस और कम्युनिस्ट संगठन खड़े हैं तो शाषितों की पीड़ा से विकल हो कर वाम के पक्ष में खड़े होने वालों काे पुनर्विचार करना होगा कि वे देश की बर्वादी करने वालों के साथ खड़े हो सकते हैं ? इसकी संस्थाओं को नष्ट करने वालों के साथ खड़े हो सकते? देश के टुकड़े करने वालों के साथ खड़े हो सकते है ? और क्या वे देश की जनता के साथ्ा खड़ा होने से इन्कार कर सकते हैं, क्योकि देश की जनता देश के टुकड़े और देश की बर्वादी नही पसन्द कर सकती, इतना उन्हें भी पता है। पहले चुनाव बहुत भ्रामक था- कूट योद्धा हि राक्षसा:। आज चुनाव बहुत सीधा और साफ है और यह किसी का आरोप नहीं है, उनके अपने मुंह से निकला बयान है, उस बयान के समर्थन में खड़े होने वालों की गवाही है।
भारत के टुकड़े हो नहीं रहे हैं किये जा रहे हैं और किये जाते रहे हैं। सांप्रदायिक घृणा काे जारी रखना आज उनके अस्तित्व से जुड़ चुका है क्योंकि उनके पास दूसरा कोई कार्यक्रम नहीं है।
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मोदी जिस संगठन से जुड़े हैं उसके अधिकांश लोगों के मन में वैसा ही जहर है यह फेसबुक के माध्यम से जाना जा सकता है। मिल जुल कर रहने के पिछले प्रयत्नों की विफलता को वे इसका प्रमाण मानते हैं। सचाई यह है मिल जुल कर रहने का सिलसिला तो हमारी अपनी समाजव्यवस्था में ही नहीं है। चुनौती प्रेम से रहने की नहीं है, समझदारी से रहने की है। समझदारी से अपने साथ वैर भाव रखने वालों के साथ भी रहा जा सकता है और इस बात का ध्यान रखा जा सकता है कि दूसरा हमें हानि न पहुंचाने पाए । इससे पहले स्वयं देखना होगा कि हमारे किसी कार्य, व्यवहार या कथन से उसे हानि न पहुंचे । यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो तोड़ने वालों में आप की भी गिनती होनी चाहिए ।
मनुष्य जंगलों से बाहर निकला है जहां उसे असंख्य ऐसे जानवरों, कीटो पतंगों के बीच रहना पड़ता था जो उसके शत्रु थे या जो उसे हानि पहुंचा सकते थे। वह सबसे कमजोर प्राणी भी था। दांत, नख, पंजे सभी उन जानवरों से कमजोर जिनको इनमें से कोई हथियार मिला था। न कोई विष न दंश की शक्ति। प्राणिजगत के सबसे कमजोर जानवर ने शक्ति की कमी को युक्ति और समझ से पूरा करते हुए इतनी शक्ति प्राप्त कर ली कि शेर को भी यदि पता चल जाय कि यहां आदमी घात में बैठा है तो सामने नहीं आता। उसने अनगिनत हिंस्र और शक्तिशाली पशुओं काे अपना मित्र बना लिया। यदि उसी की संतान कहे कि वह किसी मानव समुदाय के साथ एेसा संबन्ध कायम नहीं कर सकता तो वह अपने पूर्वजों का अपमान करता है।
अज्ञान और अंधकार से डर पैदा होता । अपरिचय से अविश्वास पैदा होता है। एक मोटी समझ है कि जिनके साथ हमें रहना है उनके साथ टकराव का रास्ता न अपना कर बनाव का रास्ता अपनाये। यह अपनी शक्ति का सही दिशा में उपयोग करने की और अपनी स्थिति को सुधारने की पहली शर्त है। हमें अपने से प्रश्न करना चाहिए कि क्या हमने इस दिशा में कोई पहल की है या काम किया है।
अब तक जो भी प्रयोग हुए वे दिखावटी थे । शब्दों का खेल। उनसे विश्वास पैदा नहीं होता। विश्वास और सदभाव अर्थव्यवस्था में साझीदारी से पैदा होता है। पशुओं की जरूरतों का हम ध्यान रखते हैं तो वे हमारी जरूरत पर काम आते है। यह भी आर्थिक संबंध ही है जो पशु और मनुष्य काे सहभागी बना देता है, भेडि़ये को पालतू कुत्तों में बदल देता है। रामलीला हिन्दुओं का पर्व। रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण के पुतले मुसलमान बनाते हैं। जो कपड़े हम पहनते थे उसे बुनने, सिलने का काम मुसलमान करते थे। ये संबंध अधिक गहरे और एक दूसरे को जोड़ कर रखने वाले हैं । मोदी ईश्वर अल्ला तेरे नाम गा कर सन्मति पैदा करने का इरादा नहीं रखता। वह विकास को अग्रता दे कर सन्मति पैदा करने का सपना देखता है। वह जोड़ने के महामन्त्र को जानता है और तोड़ने वालों से बचाते हुए पर आवश्यकता होने पर शक्ति का भी प्रयोग करते हुए उसे इस दिशा में बढ़ना है। अपने जाहिलों और काहिलों से भी लड़ना है उसे और देश को तोड़ कर अपने को जिन्दा रखने वाले खुराफातियों और देशघातियों से भी लड़ना है।