भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 20
‘तुम कहते हो ”विचार की भाषा गद्य है, आवेग और विश्वास की भाषा कविता ।” और मानते हो पद्य में भी गद्य लिखा जा सकता है तो यह तो मानते ही होगे कि गद्य में भी कविता लिखी जा सकती है। तुम्हारी कल की पोस्ट ऐसी ही कविता थी। कई बार पढ़ी हुई, लगा अब चुक गए हो। कहने को कुछ बचा ही नहीं।’ मेरे दोस्त ने मिलते ही आडे हाथों ले लिया।
बात तो सही थी शाम को गद्य लिखा जाय तो वह कविता में बदल सकता है । देरे से लिखा था।
‘तुम्हारे साथ परेशानी क्या है ? तुम्हें पता है यह इंशा अल्ला वाली शिकायत तुमने दूसरी बार दुहराई थी। अच्छे लेखक अपने को दुहराते नहीं हैं।’
‘सिर्फ दूसरी बार न । जानते हो यह पीड़ा मुझे मर्माहत करती है कि भारत की बर्वादी का नारा लगाने वाले मंच पर उस दल के लाेग उपस्थित हों जो भारत को समाजवाद का स्वर्ग बनाना चाहते थे और भ्रमवश इस को उनका प्राथमिक उद्देश्य मानकर मैं भी उनसे सहानुभूति रखता रहा हूं। आत्मग्लानि होती है यह सोच कर कि भारत में मुस्लिम लीग ने अपना नाम बदल कर कम्युनिस्ट पार्टियों के नाम अपना लिए हैं जिनमें …’
उसने बीच में ही लपक लिया, ‘यह बात तुम पांचवीं बार कह रहे हो…’
मैंने उसे हंसते हुए काटा, ‘अच्छे लेखक कोई बात पांच बार तो दुहरा ही नहीं सकते। यही न ? देखो, मैं अच्छा लेखक नहीं बनना चाहता । सच्चा लेखक बनना चाहता हूं । अपनी बात को कई तरीकों से तब तक दुहराता रहना चाहता हूं जब तक लोगों की उदासीनता न भंग हो।’
‘सच्चे लेखक किसी पर जो भी जी आए आरोप नहीं लगाया करते ।’
सच कहो तो यही मैं याद दिलाना चाह रहा था कि तुम लोग अपने प्रत्येक कार्य और व्यवहार से मेरे आरोप को सही सिद्ध करते रहते हो । बात तो मैं तीन तलाक की कर रहा था, उससे जुड़ी पीड़ा और अपमान की, उसकी दहशत में पत्नियों का मूक गुलामों में अपने को ढाल कर सुरक्षित होने जद्दोजहद की जिसमें किसी भी मुस्लिम परिवार को देख कर लगे कि सब कुछ संगीत के सुरों की तरह सधा हुआ है और समायोजित है, पर उससे जुड़ी आज्ञाकारिता के पीछे काम करने वाली असहायता का आभास तक न हो, पर इसके बाद भी बहुतेरे मामलों में वह नौबत आकर ही रहती है और तब उस यातना, अकेलेपन, और अपमान का कोई अन्त नहीं रहता। हम इसे बदल नहीं सकते पर इस पीड़ा के निवारण की कामना
तो कर सकते हैं।
परन्तु बिन्दा करात जैसी नेता जो महिलाओं के सवाल पर इतनी संवेदनशील हैं, उनको यह कहते पा कर मैं हैरान रह गया कि पहले हिन्दू समाज के विषमता मूलक सभी दोषों को दूर करके महिलाओं को पूर्ण समानता का अधिकार देने वाले कानून बना कर लागू कर लिया जाय, तभी मुस्लिम महिलाओं के लिए न्याय की बात उठाई जाय, मैं हैरान रह गया। मैं उन्हें जानता हूं, यह उनका विचार नहीं हो सकता, यह उस नीति का हिस्सा लगा जिसमें मुल्लाओं की भाषा में उनसे भी आगे बढ़ कर कम्युनिस्ट पार्टियां बोलने लगीं और उसे आज तक बोलती आ रही हैं।
लीग और मुल्लातन्त्र में केवल पुरुष आदमी है, महिला इन्सान है ही नहीं। इसने मुझे क्षुब्ध किया था और क्षोभ भी तो आवेग ही है, काफी प्रबल भी और इसलिए कुछ कवित्व तो गद्य में भी आ ही जाएगा।
मैं उस बुद्धिजीवी वर्ग के साथ खड़ा नहीं हूं जिसकेे अलावा मेरा कोई घर नहीं, कोई अपना नहीं। सबसे बड़ा दंड, प्राणदंड से कुछ ही घटकर होता है निर्वासन । और उसका चुनाव, स्वयं करना पड़े, आत्मनिर्वासित होना पड़े इसकी पीड़ा को तुम नहीं समझ सकते परन्तु अन्तरात्मा की रक्षा के लिए पूरी धरती का त्याग किया जा सकता है, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् । यह त्याग फूलों सजी सेज नही होती, कांटों का ताज भी नहीं, यह चेतना में धंसे कांटों का दंश होता है जो बार बार उभरता है। मुझे यह पीड़ा होती है कि यदि तुम ‘भारत की बर्बादी तक जँग रहेगी, जंग रहेगी।’ कहने वालों के साथ हो, पहले पाकिस्तान बनाने वालों के साथ खड़े हुए और आज पाकिस्तान जिन्दाबाद कहने वालों के साथ हो तो हमारे बुद्धिजीवी किसके साथ है । जेएनयू के बुद्धिजीवियों ने तो बता दिया कि वे भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए उन्हीं के साथ हैं।
पीड़ा होती है कि भारत को बचाने का काम उस विचारधारा के जिम्मे आ पड़ा है जिसे मैं मुस्लिम लीग की प्रतिक्रिया में बनी और उल्टे सिरे से उन्हीं की भाषा बोलने वाली मान कर कल तक मैं इतना परहेज करता था कि उससे सहमति रखने वालों का या तो उपहास करता था, या राजनीति से अलग विषयों पर ही बात करता था। कितना विचित्र है यह मोहभंग । यदि तुम सचमुच पहले दिन से तोड़ने का काम कर रहे हो और आज भी तोड़ने वालों के साथ हो तो बुद्धिजीवियों को एक संकल्पपत्र प्रकाशित करके यह बताना चाहिए कि वह संघ और भाजपा के ही विरुद्ध नहीं है भारत के विरुद्ध हैं और भारत के दुश्मनों के साथ हैं। वे दुश्मन बदलते रहते हैं, पर दुश्मन कोई भी हो, उसकेे साथ खड़े होने का इरादा कभी नहीं बदलते ।’
वह हंसने लगा, ‘अरे यार, वह तो शब्दों का खेल था, जिसके पीछे था गुस्सा। उसी को ले कर तुमने माला जपनी शुरू कर दी। बच्चे उत्साह में बहुत कुछ कह देते हैं, लोग गालियां देते समय कैसे कैसे रिश्तेे बना लेते हैं, उन्हें सचाई मान लो तो छुट्टी हो गई।’
‘विस्तार होगा, संक्षेप में यह समझ लो कि विचार भी एक कार्य है, परन्तु जब तब वह व्यक्त नहीं होता वह सामाजिक रूप नहीं ले पाता, व्यक्त होते ही वह सामाजिक हो जाता है और उससे जो प्रभाव वातावरण पर, दूसरों की मानसिकता पर, दूसरों के कार्य पर पड़ता है, वह यदि अनिष्टकर है तो यह किसी अनिष्ट कार्य की तरह संज्ञेय अपराध है। व्यक्ति के मानहानि की बात तुम्हारी समझ में आती है, पर देशहानि की बात तुम्हारी समझ में नहीं आती।
”तुम मेरे दो बार या पांच बार किसी चिन्ता को प्रकट करने पर याद दिलाने लगते हो, कि अच्छे लेखक ऐसा नहीं करते, तुम्हें याद है तुम कितने साल से कितने कंठों से एक ही वाक्य को असंख्य बार दुहराते आए हो। सन्दर्भ कोई भी हो, कारण कितना भी छोटा क्यों न हो :
तानाशाही नहीं चलेगी – नहीं चलेगी । नहीं चलेगी ।।
गुंडागर्दी नहीं चलेगी – नहीं चलेगी। नही चलेगी।।
जो हमसे टकराएगा वह चूर चूर हो जाएगा ।।
‘तुम्हारे लिए कुछ नहीं बदलता। यही कहते रहे, यही लिखते रहे, यही करते रहे और अपनी भविष्यवाणी को सच करते रहे । वाचाल लोग सुनना भूल जाते हैं।
‘तुम केवल उन दिनों चैन से रहे जब सचमुच तानाशाही आ गई। आपात काल तुम्हारे अच्छे दिनों की वापसी थी और सभी संस्थाओं पर तुम्हारी तानाशाही की स्थापना का चरण था। जिन दिनों देश में लूट मची थी, तुम लुटेरों का साथ दे रहे थे। जब उस पर रोक लगी, पहली बार दादागीरी और निरंकुश शासन का खात्मा हो कर एक सच्चे अर्थो में लोकतान्त्रिक सरकार कायम हुई, लोकतांत्रिक तरीके से काम करने लगी तो तुम्हारे बुरे दिन आ गए।
मैं अपने उन मित्रों से उस चुनौती की बात करना चाहता था जिसके बारे में उनमें निराशा इतनी गहरी है कि वे ठीक विभाजनपूर्व के जिन्ना वाली भाषा में सोचते हैं कि हम मिलजुल कर नहीं रह सकते। मै उस चुनौती के सामने मोदी को खड़ा करके देखना चाहता था कि इतनी गहरी निराशा के बीच उनका प्रयत्न क्या होना है। तुमने उधर से विचलित कर दिया। उस पर कल सही ।
पर एक बात पर ध्यान दो, आज तक ब्यूरोक्रैसी को हर ऐरा गैरा जनप्रतिनिधि हुक्म देता फिरता घूम रहा था और उस दबाव में अपनी गरिमा खो कर वह भी भ्रष्टाचार में लिप्त हो गई थी। पहली बार एक ऐसा नेता आया है जो उससे अपनी आलोचना करने की बात कर रहा है। स्वतन्त्रता से काम करने की बात कर रहा है।
यह दूसरे बदलावों की तरह बहुत बड़ा बदलाव है और तुम इससे भी असुरक्षित अनुभव करोगे क्योंकि संसद में दागी प्रतिनिधियों की संख्या में होती जा रही वृद्धि और उन्हें मिले अतिरिक्त अधिकार जो कार्यकारिणी में दखल देते थे, अब चल नहीं पाएंगे। यह मात्र एक वाक्य नहीं है, एक आन्तरिक क्रान्ति है ।’