Post – 2016-10-27

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्‍टर – 19 (ख)
मेरा दोस्‍त रोज एक शेर छोड़ देता है। वह दहाड़ता है पर किसी को डर नहीं लगता! वह खुद ही डरे हुए शेर की आवाज में दहाड़ता है । शेर की भाषा में कहें तो:
नरेन्‍दर आ चुका है अब कयामत आने वाली है ।
हमारी और हम जैसों की शामत आने वाली है ।

शामत आ भी चुकी है! पर उस गरिमा के साथ नीचे भी नहीं जा सकते जैसे डूबते जहाज का कप्‍तान सभी मुसाफिरों को बचाने का उपाय करने के बाद जहाज के साथ नीचे चला जाता था।

मैंने पूछा, यह संगीत का फ्यूजन कहां से सीखा तुमने यार जिसमें दहाड़ और कराह दोनों एक साथ फूटती है।

अक्‍ल उसमें भले न हो, ईमानदारी पूरी है, बोला, फ्यूजन करता नहीं हूं, अपनी ओर से दहाड़ता हूं पर आवाज बाहर आते आते कन्फ्यूजन के कारण फ्यूजन अपने आप हो जाता है। अभी त‍क हमारी पार्टी ने यह तय नहीं किया कि हमें हाहाकार मचाना चाहिए या हुंकार भरना चाहिए ।

”अनिश्‍चय के इस दौर में दोनों काम एक साथ करके देखना चाहते हैं कि इन दोनों में कौन हमेंं बचा सकता है। तुम जानते हो हमारा पाला एक ऐसे आदमी से पड़ा है जो लोकतान्त्रिक तरीकेे से सत्‍ता में आया है । जनता लोकतन्‍त्र को अच्‍छा समझती है और हम लोकतन्‍त्र को बोर्जुआतन्‍त्र मानते हैं। हम जनता तक नहीं पहुंच पाते कि उसे समझा सकें कि यह धनी को अधिक धनी और गरीब को अधिक गरीब और असहाय बनाने का तन्‍त्र है। जनता से कटे होने के कारण उसे यह भी समझा नहीं पाते कि इसके हाथों में लोकतन्‍त्र खतरे में है। जनता उसका साथ देती है और हमारी आधी शक्ति जनता को कोसने में खर्च होती है और आधी इस चिन्‍ता में कि ‘जायें तो किधर जायें’ ।”

मैं उसकी साफगोई पर अपनी खुशी जाहिर ही करने वाला था कि उसने उस पर पानी फेरना चाहा, ‘तुम यही सुनना चाहते थे न!’ इतने दिनों के बाद मेरे घर पर आए हो तो तुम्‍हारेे स्‍वागत में इतना तो बनता ही था न।”

मैंने जितना मनोविज्ञान पढ़ा है उसमें यह पता नहीं कि इस अवस्‍था केे लिए कोई शब्‍द गढ़ा गया है या इसकी व्‍याख्‍या की गई है या नहीं, जिसमें सच तो इस दबाव में बोल जाता है कि उसके पास सच बोलने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता, पर अन्‍त में जब बोलने वाले को यह बोध होता है कि उसकी जिन्‍दगी भर के किए कराए पर इस ईमानदारी के कारण पानी फिर गया तो वह झट अपने बयान से मुकर भी जाता है।

मुझे उस पर क्रोध तो आ ही नहीं सकता, आता तो आज तक यह दोस्‍ती निभती ही नहीं , परन्‍तु दया भी नहीं आई। पूछ बैठा, ”तुम्‍हारी पार्टी में किसी ने मार्क्‍स को ध्‍यान से पढ़ा भी है।”

उसने मुझे इस नजर से देखा कि ‘य‍दि तुम मेरे घर में न बैठे होते तो मै तुम्‍हें कच्‍चा चबा जाता। तुम इतने जाहिल क्‍यों हो।’ वह जानता था, मार्क्‍सवाद का मेरा ज्ञान इतना कम है कि कोई पूछे कार्लमार्क्‍स सही है या कार्ल मार्क्‍स तो मैं ‘नाम में क्‍या रखा है’ कह कर इज्‍जत बचाने की कोशिश करूं। जहां तहां से मार्क्‍स की सूक्तियों को ही मैं मार्क्‍सवाद समझता हूूं और उसी से काम चलाता हूंं।

दूसरी ओर उसकी पार्टी में ऐसे धाकड़ पड़े हुए थे कि उनसे पूछा जाय मार्क्‍स ने कितनी किताबेंं लिखी तो उनकी सूची गिना दें। उनमें से यदि कोई पूछे कि क्‍या आपने इसे पढ़ा है तो जवाब दें, सीधा पाठ करके सुनाऊं या उल्‍टा। हद यह कि मैं उनको चुनौती दे रहा था।

उसको कुरोख देख कर ही मैं ताड़ गया कि वह क्‍या कहना चाहता है, पर दबाव में नहीं आया। कम जानने का सबसे बड़ा लाभ यही है कि आप जो जानते हैंं उस पर आपका विश्‍वास अडिग होता है। मैने मार्क्‍स की एक सूक्ति जड़ दी democracy is the road to socialism क्‍या इसे तुम्‍हारे उन विद्वानों ने कभी समझने की कोशिश की जो उनके लिखित साहित्‍य पर इतना अच्‍छा अधिकार कर चुके हैं कि उसका उल्‍टा सीधा कोई पाठ कर सकते हैं और अपनी जरूरत से मार्क्‍सवाद और साम्‍यवाद का उल्‍टा सीधा इस्‍तेमाल कर सकते हैं। वे किसके प्रति समर्पित हैं । देखो, उन्‍होंने मार्क्‍स को रटा है, समझा नहीं है। मार्क्‍सवादी इबारतों का इस्‍तेमाल करते रहे है और वह भी मार्क्‍स को चूूना लगाते हुए। मार्क्‍स ने कहा, सभी देशों के मजदूर एक हो जाओ, तूमने सभी देशों का अनुवाद पूरी दुनिया कर दिया जब कि उनका प्रयोजन था जिन देशों में पूंजीवाद है और मजदूर एक वर्ग बन गया है, उसे आपस में जुड़ कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए क्‍योंकि उसके पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय बन्‍धनों के और पाने को उच्‍चतम संभावना है।

भारतीय कम्‍युनिष्‍ट मार्क्‍स को समझ ही नहीं सकते थे। वे इस्‍तेमाल होने के लिए तैयार हो कर संगठन में आए थे। जो फल पर नजर रखते हैं उनका यही हाल होता है इसलिए कहा तो गीता ने है और तुम इसे धार्मिक विचार भी सिद्ध कर दोगे, पर विचार यह है कि परिणाम पर नहीं, कर्तव्‍य पर ध्‍यान केन्द्रित करो। परिणाम से तो कोई बच ही नहीं सकता। देव, अदेव सभी उसी से चालित हैृृ परिणाम की आकांक्षा से बचते हुए हम अपने कर्तव्‍य का निर्वाह करें तभी हम उस पात्रता को पा सकते हैं जिससे कर्म के साथ भोग और विलासिता का बन्‍धन नहीं, विवेक का प्रकाश मिलता है।

जिनसे तुम्‍हारा लगाव रहा है वे सभी अपने देश के प्रति ईमानदार न थे, अपने समाज के प्रति जिम्‍मेदार न थे, अपने भविष्‍य के प्रति सावधान न थे और जिस मानवतावाद केे शिखर तक पहुंचने की एक लंगड़ी कोशिश मार्क्‍सवाद है उसे तक नहीं समझते थे।’

वह खिन्‍न था, कुछ कहते न बन पड़ रहा था। पर जैसे आवेश मुझ पर भी हावी हो गया हो, मैंने अपनी रौ में था, ” तोते चिन्‍तन नहीं करते । यार तुम लोग तोते की आवाज में मार्क्‍सवाद का पाठ करते रहे, ‘सीधा उल्‍टा एक समाना’ गाते हुए।

तुम जानते हो तुमने मानवता के सबसे बड़े सपने को धर्मोन्‍मादियों की भेट चढ़ा दी और उस धर्म पर प्रहार करते रहे जिसमें सबके लिए जगह है और सबको अपने ढंग से जीने का अधिकार है और इसलिए जो उस अर्थ में मजहब है ही नहीं जिसमें वह अफीम या हेरोइन बनता है। इसमें विश्‍लेषण करने की छूट है जिसमें अनिष्‍टकर की शिनाख्‍त की जा सकती है और उसको दूर करने के प्रयत्‍न भी किए जा सकते हैं, पर चुटकी बजाते हुए न किसी महाव्‍याधि से मुक्ति दी जा सकती है न इसकी विकृतियों से। विकृतियां आज भी इस व्‍यवस्‍था में हैं। दूसरों क पास विश्‍वास है, ऐसा विश्‍वास जिसे जांचा तक नहीं जा सकता, जब कि इसके पास विवेक और वितर्क है, विवेचन है इसलिए यह विश्‍वास तो करता है पर उसकी जांच के लिए अवसर भी देता है। यही सही मार्क्‍सवादी तरीका हुआ।

”विचार की भाषा गद्य है, आवेग और विश्‍वास की भाषा कविता । पद्य नहीं जिसमें हमारा समूचा पुराना साहित्‍य लिखा गया या लिखने का प्रयत्‍न किया गया। वह तो एक छन्‍दबद्ध गद्य ही है क्‍योंकि उसमें विचार है, भावुकता का दबाव नहीं। शास्‍त्र नया हो या पुराना, उससे बाहर आना, अपनी नजर से देखना, यह एकमात्र उपाय है सत्‍य के साक्षात्‍कार का और सत्‍य का साक्षात्‍कार समस्‍याओं को समझने और उनका समाधान पाने की पहली कड़ी है। वह तुम लोगों में दिचााई ही नहीं देता। तुम्‍हारी नारेबाजी हो या कविता, ये दोनों उपद्रव की भूमिका तैयार करते हैं। अपने सम्‍मोहन से मुग्‍ध करके, विवेक को शून्‍य पर पहुंचा कर, अंध प्रतिक्रिया के लिए तैयार करके।

‘आवेग की भाषा में इसलिए आखिरी दहाड़ तुम्‍हारी है और आखिरी उपाय उन लोगों का जिनके लिए ‘मरता क्‍या न करता’ का मुहावरा गढ़ा गया था।

तुम कहते हो, ‘तुम जोड़ने की बात करते हो, तो हम तोड़ कर दिखा देंगे। हर जोड़ने वाले के खिलाफ पर हर जोड़तोड़ करने वाले के साथ खड़े दिखाई देंगे। जोड़ने का जो अर्थ तुम जानते हो, उसे हम जानते तो है, उसका अभ्‍यास नहीं करते। तुम्‍हारी गणित के अनुसार जो लोग जोड़ते जोड़ते इतना जोड़ चुके थे कि घर में रखने को जगह न मिले, इसलिए दूसरों के घरों में डालते रहे और उनसे रिरियाते रहे कि तुम चाहे इसे सूद पर चला कर मालामाल हो लो, पर हमारे वापस मांगने पर लौटा जरूर देना और यह बात तो किसी दूसरे को पता ही न चले कि हमारा जोड़ा हुआ तुम्‍हारे घर में डाला गया है। उनका साथ देने के कारण तुम तोड़ने वालों की फौज भी जुटा सकते हो और ऐसे ऐसे उपद्रव करा सकते हो कि उस दबाने की बाध्‍यता पैदा हो तो कानून और व्‍यवस्‍था की चिन्‍ता करने वालों को तुम तानाशाह मान सको और लोगों को यह याद दिला सको कि देखो, हमने पहले ही आगाह किया था न कि यह आया तो आपात काल बिना आपात काल की घोषणा के ही चला आएगा:

लौट कर आएगा आपात मगर अबकी बार ।
तुमको मालूम न होगा कि ये आपात ही है ।

यह आपात देश और समाज को जोड़ने के लिए आएगा। जोड़ने का नाम जपते हुए आएगा, इसलिए हमे देश को बचाने के लिए देश को तोड़ने के एक बड़े काम को अंजाम देते हुए शहीद होना है।’ भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्‍ला इंशा अल्‍ला।’
जनता तक तुम्‍हारी बात पहुंच नहीं पाती। उसके निकट तुम कभी गए ही नहीं, इसलिस वह तोड़ने वालों की हड्डियां तोड़ने पर उतारू हो जाती है। अदालत कहती है बन्‍द करो यह पिटाई। उसने तोड़ने का इरादा प्रकट किया है तोड़ा तो नहीं।’ अदालत जिसे बचा लेती है उसे भी जनता अपने ढंग से परखती है। लाभ किसे मिलता है, इसका ज्ञान तो जुआडि़यों तक को होता है। तुम्‍हारी हालत तो उनसे भी बुरा है। दाव ही गलत बदते हो कि तुम्‍हारा सत्‍यानाश करने के लिए किसी को बेईमानी करने तक की भी जरूरत नहीं पड़ती।

अपना काम करने वाला बहुतों का जवाब बिना बोले ही देता चलता है। मोदी को काम करना आता है, तुम्‍हें दुष्‍प्रचार करना आता है और वह कहता है जिसे जो काम आता है वह करे। तुमको अपनी मौत का सामान करना आता है और जन्‍म के बाद से ही आत्‍महत्‍या के मौके तलाशते आए हो। वह अवसर इस आदमी ने दिया और इसके लिए तुम्‍हें इसे धन्‍यवाद देना चाहिए।