भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर – 19 (क)
भारतीय मुस्लिम समाज कितने भीतरी खानों में बंटा हुआ है इसका सही ज्ञान मुझे नहीं है। जानने की जरूरत भी नहीं है। इतना ही जानना काफी है कि उनमें भारत में जितनी निर्वैतरता है उतनी ईराक, ईरान, पाकिस्तान, या किसी अन्य मुस्लिम देश में नहीं है। पाकिस्तान में सूफियों, शिया समुदाय के लोगों, उनकी मस्जिदों तक पर हमले होते रहते हैं और ये हमलावर बाहरी नहीं होते। हिन्दुस्तान में अर्थात् ब्रितानी काल के अखंड भारत में भी केवल एक बार और सबसे पहला दंगा लखनऊ में सुुन्नियों और शिया लोगों के बीच हुआ था। पर नफरत दोनों संप्रदायों में इतनी तीखी बनी रही कि एक बार मुहर्रम के जुलूस में एक शिया व्यापारी को उस आदमी की भूमिका में रख कर उसको धिक्कारते हुए तबर्रा पढ़ना आरंभ किया गया जिसनेे कर्बला के युद्ध में मुहम्मद साहब के धेवतों हसन और हुसैन काेे तड़पते हुए मरने को विवश किया था। यह भी लखनऊ की ही घटना है । यह कुछ वैसा ही था जैसा रामलीला में राम और रावण की भूमिकाओं में होता है। परन्तु यहां हुआ क्या कि आरंभ में उस पर नाटकीय अन्दाज में इस तरह कुछ ढेले फेंके जाते रहेे कि उधर जायं परन्तु अभिनेता तक न पहुंचेंं और उसे चोट न आए। यही पहले तय हुआ था, वर्ना था तो वह भी शिया ही। हो सकता है इस अभिनय के पीछे रामलीला का अनुकरण करने का भी प्रयत्न रहा हो। सब कुछ ठीक चलता रहा, वह हंसता मुस्कराता रहा, पर तबर्रा के आवेश में पीछे चलने वाले इतने आवेश में आ गए कि वे सचमुच उसे पत्थर मारने लगे और वह बेचारा अल्लाह, यदि कहीं हो, और उसके पास सीधे पहुंचा जा सकता हो, तो उसका प्यारा हो गया।
कई बार मैं उलझन में पड़ जाता हूं कि रामलीला के इतने लंबे इतिहास में ऐसा एक बार भी न हुआ कि रावण या कुंभकर्ण या मेघनाद की भूमिका करने वाले के प्रति लोगों की भावनाएं इतनी उग्र हो गई हो कि उनकी भूमिका निभाने वाले के प्रति किसी तरह का दुर्व्यवहार किया गया हो। भूमिका में उतरने वाले का बाल मन पर और अविकसित चेतना वाले लोगों के मन पर असर तो पड़ता है। मेरेे गांव की रामलीला में रावण की भूमिका सत्ता बाबा करते थे। अंगद की भूमिका मास्टर रघुराज सिंह करते थे। येे दोनों अपनी भूमिकाएं इतनी प्रभावशाली करते थे कि सत्ता बाबा को सामान्य रूप में देख कर भी डर लगता था। वह अच्छे आदमी हो सकते हैं यह तो कभी सोच ही न पाया, जब कि वह हमारे गांव के सबसे कलाप्रेमी व्यक्ति थे। बच्चे उनके अभिनय से प्रभावित भले हो जायं, उनके प्रति आवेश में भी अशोभन व्यवहार न करतहीं करते हैं ।मुस्लिम समाज में ऐसा क्यों हो गया। पहली बार ही सही। यह अभिनय आगे तो चला ही नहीं। स्वाभाविक निष्कर्ष निकलता है कि मुस्लिम समुदाय को संस्कारत: जज्बाती बनाया गया है।
अत: वह विवेक से काम ले ही नहीं सकता। उसका विवेक भी आवेग चालित होता है और अावेग की खेती उसके मुल्लों द्वारा मुसलमानों को अपनी भेंड बकरी बना कर रखने के लिए की जाती रही है। परन्तु यह उधार का माल है। ईसाइयत में भी ईसा को चरवाहा और अनुयायियों को भेड (शेफर्ड और शीप) के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा और पोपोंं, पादरियों ने अपने को शेफर्ड या भेंडिहार और अपने समाज को भेड़़ की भूमिका में रखना चाहा। धर्म के नाम पर अपने ही धर्म दायादों को गुलाम बनाने की पोपों, पादरियों और मुल्लाओं और मौलवियों की चालाकी समझ में आती है, धर्मश्रद्धावश मुसलमानों का और उनसे भी पहले पोप साम्राज्य के बाद ईसाइयों का अपने को भेंड़ की तरह हांके जाने की बात और इस पर गर्व करने की बात मेरी समझ में नहीं आती।
सून्नियों के अपने भेडि़हार या मुल्ले हैं, शिया समुदाय के अपने। जिस समुदाय के असगर अली इंजीनियर प्रतिनिधि थे उसके प्रति सुना था, मेरा सारा ज्ञान ही सुनेे सुनाए का है, कि उनको भी असली मुसलमान, जिसकी परिभाषा से मैं परिचित नहीं हूं, पक्का मुसलमान नहीं मानते परन्तु उनके विचारों को भी उनके ही संप्रदाय के लोग खतरनाक मानते थे और उन पर कई जानलेवा हमले भी हो चुके थे। वह एक मुसलमान के रूप में सोचते थे अपने संप्रदाय के अनुसार नहीं। वह पूरे मुस्लिम समाज को बदलना चाहते थे और मुसलमानों के बारे में बनेे पूर्वाग्रह को तोड़ना चाहते थे और उससे आगे बढ़ कर मनुष्यता तक पहुंचना चाहते थे जिससे उनके संकट भी आरंभ होते थे और कार्यभार भी इतना बढ़ जाता था कि वह अपने ही लोगों को अपने विचारों का कायल नहीं करा पाते थे। मेरी स्थिति असगर अली इंजीनियर से भिन्न नहीं है। मेरे अपने ही समाज और संप्रदाय के लोग जिनसे मुझे बहुत प्रेम है, मुझसे इस तरह बिदकते है कि वश चले तो मेरी हत्या कर दें और फिर मैं सारी श्रेणियां तोड़ कर हिन्दू हो जाता हूं। मैं आश्वस्त क्यों हो जाता हूं कि हिन्दू ऐसा नहीं कर सकता जब कि एक हिन्दू को असंख्य बार इस लिए कोसा गया होगा कि उसने गांधी जी का वध किया था, ऐसा कर चुका है।
मुझे मोदी की उस समझ का पता नहीं जिसे हिन्दू समाज की विभाजनकारी आन्तरिक शक्तियों का तो पता है, फिर भी वह एक सेल्समैंन जैसे आत्मविश्वास से कहता है इन बहुधा विभाजित और बहुधा आत्मविनाशी समाजाें को जोड़ा जा सकता है। सबको साथ लिया जा सकता है, और सबकी सम्मिलित शक्ति से उन अवरोधों को पार किया जा सकता है जो हमें आदमी से भेड़ बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। क्या मैं अपने विचारों को मोदी पर आरोपित करके उसका गुणगान कर रहा हूं ? क्या मैं एक जटिल समस्या का सरलीकरण कर रहा हूं ?कम से कम वे जो अधिक जानते हैं और मुझसे अधिक समझते हैं, हमारे उद्धार में सहायक तो हो ही सकते हैं। मैं यह मानने को तैयार नहीं कि मोदी में इतनी दूरर्शिता हो सकती है कि वह ऐसी ऊंंची बातें सोच सकता है जिसकी मुझे आदत पड़ चुकी है, पर यह सोच कर बुरा लगता है कि जो कुछ मैं सोचता हूं वह पहले ही उसकी योजना का अंग बन चुका है। जैसा कल सन्देह हुआ पर विश्वास न हुआ। आइये मिल कर समझें इन समस्यओं को फिर तो मोदी इनमें बाधक बना तो मैं भी आप के साथ, गालियों, गोलियों और आरोपों के साथ खड़ा मिलूंगा। अभी तक यह भ्रम बना रह गया है कि वह पूरे भारतीय समाज को जाति धर्म के खानों से ऊपर उठा कर एक प्रगतिशील समाज बनाना चाहता है। इरादे बड़े हैं, समयकम और बाधाएं असंख्य ।