भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर -15
मोदी के विषय में सबसे डरावना चित्र गुजरात के दंगों को ले कर खींचा जाता है। अदालत ने बरी भले कर दिया हो, मैं अपनी व्याख्या में उन्हें कुछ सीमा तक निरुपाय भले मानता होऊं, करोड़ों के मन में वह उसकी छाया से मुक्त नहीं हो सकते। स्वयं वाजपेयी जी ने सुनते हैं उनकी सरकार को गिराकर राष्ट्रपति शासन लगाने तक का निर्णय ले लिया था और आडवाणी जी के मनाने पर मान तो गए थे पर मंच से ही राजधर्म निभाने की शिक्षा तो दी ही थी। मोदी ने कुछ झेंपे हुए स्वर में कहा था, ‘वही तो निभा रहा हूूं। मंच का वह चित्र मेरी स्मृति में अभी तक कौंधता है। इस दृश्य और परिदृश्य और इसके उपागम की व्याख्या करें तो जो तथ्य निकल कर सामने आते हैं वे निम्न प्रकार हैं:
1. साबरमती एक्सप्रेस से स्वयं सेवकों का जत्था मोदी ने भेजा था और उनके असंयत व्यवहार के परिणाम स्वरूप जो गोधरा कांड हुआ उसकी भयानकता को देखते हुए ग्लानि और क्षोभ में आरंभिक दौर में मोदी ने दंगे को नियंत्रित करने में ढील बरती थी। यदि न बरतते तो हम उन्हें या तो वली समझ सकते थे, या यंत्र मानव। मैं ऐसे सवालों पर अपने काे उस स्थिति में रख कर देखता हूं और अपने से पूछता हूं तो पाता हूं उस स्थिति में मैं स्वयं शिथिल हो सकता था और इसलिए इसे बहुत बड़ा अपराध नहीं मानता, प्रमाद मानता हूं।
2. स्थिति बेकाबू न हो जाय, इसलिए उसे संभालने के लिए उन्होंने पुलिस को उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने का आदेश देते हुए और केन्द्रीय बल का भी उपयोग करते हुए तीन दिनों में स्थिति पर काबू पा लिया था इसलिए उनका कहना कि ‘वही तो कर रहा हूूं’ सही भी था और पिछले प्रमाद की झेंप भी उनकी हंसी में थी। एक अपराध बोध कह सकते हैं।
3. सही राजनीतिक कदम यह होता कि उन्होंने एक ओर इस उपद्रव को सख्ती से रोका होता और गोधरा के अपराधियों का पता लगा कर उन्हें दंडित किया होता। परन्तु यह सही कदम तब होता जब हमारी न्याय प्रक्रिया सही होती जिसमें अपराधियों को जल्द से जल्द सजा मिलती। यह सच है मुकदमों को देखते हुए न्यायाधीशों की संख्या कम है, परन्तु न्यायाधीश स्वयं भी न्याय प्रक्रिया की उस भूल भुलैया के शिकार है जिसका नब्बे प्रतिशत बेकार का कर्मकांड है जिसे निकाल कर सरल बनाने का प्रयत्न नहीं किया गया और जो मुकदमे तीन दिन और कुछ तो एक सुनवाई में निपटाये जा सकते थे। अमेरिका में इन न्याय प्रक्रिया का एक पूरा कार्यक्रम ही आता है । मिनटों में पक्ष विपक्ष को सुन कर वारा न्यारा। इमारे यहां इउन्हें सालों साल घसीटा जाता है और इसमें अदालत की भी मिली भगत होती है। प्राय: अपराधी गलत बहानों से तारीख पर तारीख और लंबी मियाद की तारीख डलवाते हुए निरपराध को ही दंडित करने मेंं सफल होता है।
सही दंड प्रकिया का सही होना इस बात पर भी निर्भर था कि पुलिस सक्रियता दिखाने के लिए तनिक भी सन्देह पर किसी बेगुनाह को न पकड़े और उसे यातना दे कर अपराध कबूल करने को न बाध्य करे। उसकी शिथिलता, अकर्मण्यता अथवा भ्रष्टता के कारण आधे मामलों आरंभ में ही अपराधी को राहत दे दी जाती है और बेगुनाहों काे यातना भोगनी होती है।
पुलिस का सही होना इस बात पर भी निर्भर था कि न्याय और व्यवस्था के सवालों पर निर्वाचित प्रतिनिधि स्वयं पुलिस को अपने कर्तव्य निर्वाह में न रोकते और उस तरह की घटिया राजनीति न की जाती की जाती जैसी कांग्रेस शासन के दौर में रेलमन्त्री के माध्यम से की गई।
जहां सब कुछ गलत है वहां केवल एक आदमी का सर्वतोभावेन सही हो पाना संभव नहीं और इसके बाद भी ऐसे अपराधों को भुला कर जो उससे भी भयानक रहे हों और जिनमें राज्य की प्रत्यक्ष भागीदारी से कोई इन्कार नहीं कर सकता, उन कारणों की पड़ताल करने को बाध्य करता है जिसमें एक मामला इतना प्रचारित किया जाता है कि उसकी कसक लोगों के दिलों मेंं बहुत गहरे घर कर जाती है और दूसरे को इस तरह दरकिनार कर दिया जाता है मानो यह कभी घटित हुआ ही न हो। हम इस पर कुछ गहराई से विचार करेंगे पर कुछ रुक कर।
3. जिस राजधर्म की याद अटल बिहारी वाजपेयी ने दिलाई थी, हो सकता है मंच से अलग मोदी की आलोचना करते हुए उन्होंने इसकी कुछ बाद में चर्चा भी की हो, उसका एक पक्ष तो सर्वविदित है जिसमें प्रजा को राजा अपनी संतान मानता है और उसके साथ समता का व्यवहार करने का प्रयत्न करता रहा है यद्यपि यह समता का भाव वर्णमर्यादा में ही होता रहा है।
इसका दूसरा पक्ष चाणक्य के अर्थशास्त्र में मिलेगा जिसमें राजा यह तो प्रयत्न कर सकता है कि शत्रु देश में अशान्ति रहे, वहां की प्रजा में असंतोष फैले, पर स्वयं अपने ही राज्य में कोई अशान्ति फैला कर अपने काे ही निर्बल करे यह मूर्खता पूर्ण है।
4. अब इस कसौटी पर देखें तो क्या उस चेतावनी के बाद से मोदी ने कभी अपने राज्य में शान्ति व्यवस्था भंग होने की कोई नौबत आने दी ? उत्तर नहीं में देना हाेगा। क्या मोदी के कथन, कार्य और व्यवहार से यह नहीं लगता कि वह आज तक उसी आदर्श पर कायम हैं? यदि हां, तो ऐसे प्रशासक के विरुद्ध भय और असुरक्षा का वातावरण तैयार करने वाले किस धर्म का पालन कर रहे हैं ?
5. परन्तु इस राजधर्म का पालन, वह वाजपेयी की सरकार रही हो, या मोदी की सरकार, या भाजपा शासित राज्य, केवल वे ही क्यों कर पाते हैं। जिस संगठन को सबसे खतरनाक बताया जाता है, फासिज्म से ले कर तानाशाही तक के सारे खतरे कल्पना से गढ़ कर उस पर लाद दिए जाते हैं, केवल वही क्यों राजधर्म का पालन कर पाती है ? इसका कारण कोई बता सकता है ? मुझे ऐसा लगता है कि अपनी इतिहासविमुखता के कारण दूसरे विचारों और संगठनों को राजधर्म शब्द तक का पता नहीं या पता होगा तो वे इसका पालन जरूरी नहीं समझते क्योंकि इससे हिन्दुत्व की गन्ध आती है।
दो
अब हम उस मनोविज्ञान को समझना चाहेंगे जिसके कारण हाशिमपुरा और सिखों के खुले संहार के अभियान में जिस दल की खुली भागीदारी रही है उसके कारंदाजों को नजर अन्दाज करके केवल गुजरात के मामले में ही अजपाजाप क्यों इतनी तन्मयता से क्यों चलाया जाता रहा कि सह अन्तश्चेतना का अंग बन जाय। इसी का उच्च स्वर से अखंड मंत्रोच्चार अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों से क्यों चलता रहा ?
मेरी समझ में इसका एक ही कारण है जिसे मैं पहले बता आया हूं । ये तो उसी के प्रमाण हैं । इसे फिर दुहरा दूं कि स्वतंत्रता संग्राम के अाखिरी दौर में कम्युनिस्ट पार्टी ने मुस्लिम लीग की विचारधारा को आंख मूद कर अपना लिया और धर्म के आधार पर देश के विभाजन का समर्थन ही नहीं किया अपितु इसे गर्व से बताती भी रही, यह मुझे बलराज साहनी के एक संस्मरण में पहली बार पढ़ने को मिला था। उसके बाद उसने कहने को इसे अपनी भूल स्वीकार किया पर उससे कोई सबक नहीं लिया।
स्वतंत्र भारत में वे मुस्लिम लीगी जो पाकिस्तान न जा सके रातोरात खादी वस्त्र और गांधी टोपी लगा कर कांग्रेसी हो गए। नेहरू को मुसलमानों के और आज की भाषा में दलितों के वोट बैंक की जरूरत थी और इसी के बल पर वह सत्ता में रहे। इसलिए उन्होंने इसको और बढ़ावा दिया पर इनके लिए कुछ खास करने की जरूरत नहीं समझी सिवाय हिन्दू समाज में बहुविवाह पर रोक और मुस्लिम समाज में इसे जारी करने की छूट देते हुए पहली बार हिन्दू कोड बिल पास करने के।
न्याय के तकाजे से यदि हिन्दू समाज के निजी विधान में सरकार दखल दे सकती थी तो उसी आधार पर मुस्लिम समाज की महिलाओं को भी वह राहत दी जा सकती थी और कानून पास किया जा सकता था। पर यह लीगी मानसिकता वाले कांग्रेसियों को स्वीकार न था और नेहरू अपना वोटबैंक छोड़ने को तैयार न थे इसलिए भारत काेे पहली बार हिन्दू राज्य बनाने का प्रयत्न नेहरू ने किया।
इसको खींच तान कर लें तो भी इसका अर्थ हुआ हिन्दू समाज न्याय और औचित्य के आधार पर कोई भी सुधार या बदलाव करने को तैयार रहता है इसलिए उसके रूढि़वादियों ने भी इस पर आपत्ति नहीं की। केवल राष्ट्रपति ने इस पर आपत्ति दर्ज की क्योंकि देश की जनता को कानून के समक्ष भी हिन्दू मुसलिम में बांटना उन्हें गलत लगा था और उन्होंने दो बार बिल को लौटाया था। इसके विपरीत मुस्लिम समाज अपने आन्तरिक अन्याय को तर्क और औचित्य से परे ही नहीं मानता, केवल पुरुषों को मुसलमान मानता है महिलाओं को अपनी संपत्ति या चैटल और इसे जारी रखने के लिए वह धर्म की दुहाई दे सकता है जब कि धर्म ऐसा नहीं कहता।
केवल तत्कालीन परिस्थितियों में चार की हद पार करने की मनाही थी जिस आधार पर सारे मुसलिम शासक कुरान पाक की तौहीन करने वाले सिद्ध होंगे। एक और एकमात्र विवाह की मनाही न की गई थी।
हमारा बौद्धिक वर्ग या इस दृष्टि से किसी भी समाज का बौद्धिक वर्ग अपने समुदाय के कोटर में बंधना नहीं चाहता और इसलिए उसका आकर्षण कांग्रेस और वाम की ओर रहा है । इनकी राजनीति ने एक अच्छे से नाम की आड़ में उनकी अात्मा में जगह बना लिया। लीगी मानसिकता के कारण बुद्धिजीवियों को हिन्दू समाज से विरत किया गया। हिन्दू शब्द, इसके इतिहास, इसके मूल्यों के प्रति विरक्ति पैदा करने के प्रयास होते रहे । इन प्रयत्नों केा प्रगतिशीलता का प्रमाण माना जाता रहा। इसे इसकी तार्किक परिणति पर पहुंचाने का काम नूरुलहसन साहब के शिक्षामंत्री बनने के साथ शिक्षा में प्राइमरी स्तर से ही इसे घोलने और उच्चतम स्तर तक इसे कायम रखने का इन्तजाम करके किया गया। जेएनयू सहित सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और पुस्तकालयों को इस मानसिकता का विस्तार करने का यन्त्र बनाया गया।
कांग्रेस ने भले वोटबैंक को बदल कर हिन्दू वोटबैंक तैयार करने के लिए दंगे कराए हों उनसे व्यथित मुसलमान भी हिन्दू माने जाने वाले संगठनों को कांग्रेस से अधिक खतरनाक मानते थे। हिन्दूविरोध ही लीग का आधार था। इसलिए बुद्धिजीवीवर्ग का ध्यान उधर गया भी तो न गए के समान।
सिख उग्रवादियों को उभारने में सीआईए की सक्रियता का दावा किसी ने नहीं किया। जिन देशों में उनको पनाह मिलती रही वे ईसाई संगठनों का पोषण करते हैं। निशाने पर तो कांग्रेस भी थी क्योंकि इंन्दिरा जी ने अमेरिका के सामने झुकने से इन्कार कर दिया था। पाकिस्तान में उनको जो संरक्षण मिल रहा था। उनके पीछे ईसाई और मुस्लिम फिरकों के हाथ का यह प्रमाण है।
उन्होंने अकारण, केवल हिन्दुओं को जिस तरह उतार कर गोलियों से भूनने का इतिहास रचा वह उन हत्याओं से अधिक जघन्य था जिनके फोटो खीच कर समाचार माध्यमों पर आइ एस की पाशविकता प्रमाणित करने के लिए दियाया जाता रहा है। इन्होंने एक बार संघ की एक शाखा के नौजवानों को गोलियों से भून दिया गया था, दिल्ली में कई विवाहमंडपों को खूनी खेल मंडप बना दिया था, उस पर हमारे संगठन चुप रहे, बुद्धिजीवी चुप रहा। कांग्रेस ने अकाली दल को सत्ता से हटाने के लिए उन्हीं आतंकवादियों का साथ लेना चाहा और उनके छवि निर्माण के प्रयत्न किए। क्याें ? क्योंकि उनके हाथों मरने वाले हिन्दू थे । कश्मीर से पंडितों के पलायन का और उन्हें केन्द्रीय संरक्षण देने का सवाल उठाने वाला रैबिड हिन्दुत्ववादी दिखाई देता है। 1984 के सिख विरोधी दंगों में कांग्रेसियों की मुहिम से, पुलिस के सहयोग से जो हत्याये हो रही थी वे मुसलमान नहीं सिख थे। मुस्लिम लीग की मानसिकता जिसे सेक्युलरिज्म का नाम दे दिया गया और उसे संघ के विरोध में सभी संभव साधनों से विकसित किया गया।
इन्द्रा जी की हत्या करने वाले एक अपराधी काे घटनास्थल पर ही गोली मार दी गई थी, दूसरा गिरफ्तार किया जा चुका था इसलिए सिख नागरिकों का संहार करने का कोई कारण न था। लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु जिन रहस्यमय कारणों से हुई थी वैसे ही रहस्यमय कारणों से इन्द्रा जी की भी हत्या हुई थी। निमित्त पकड़ में आ गया, मूख्य अपराधी ने अपने को छिपाने के लिए यह दंगा करा दिया हो यह अन्देशा लोगों के मन में बना रहा। इसका संकेत लेखी ने अपनी बहस में भी दी थी कि बेअन्त और सतवन्त ने तो इन्द्रा जी पर सामने से गोलियां बरसाई थीं, एक गोली जो उनके निवास की ओर से आई थी और पीठ में लगी थी वह किसकी थी? वह क्या कारण था कि अस्पताल में उन अन्तिम घडि़यों में भी उनके अपने स्टाफ का कोई व्यक्ति पूछ रहा था कि उस तिब्बतन बार्डर फोर्स के सिपाही को क्या हुआ और जब पता चला कि उसे गोली मार दी गई तो चैन पड़ा। जैसे सिख दंगा उस अपराध से ध्यान हटाने के लिए किया गया उसी तरह उस दंगे से ध्यान हटाने के लिए गुजरात के दंगे को अतिरंजित और विश्व की पहली और सबसे दुर्दान्त घटना बताते हुए संघ और भाजपा और खास करके मोदी को लगातार मौत का सौदागर मौत के सौदागरों द्वारा सिद्ध किया जाता रहा यह सेक्युलरिज्म और ताहू पर कछु और है। यदि कोई जानना चाहे कि क्वात्रोची का प्रधानमन्त्री निवास में आना जाना इन्दिरा जी को पसन्द था या नहीं तो इसका जवाब तो मैं भी नहीं दे सकता। जो दे सकते हैं देंगे नहीं ।