Post – 2016-10-21

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्‍टर -14

मोदी की सबसे बड़ी शक्ति है, विश्‍वसनीयता । जो लोग कमियां ढूंढ़ते हैं उनको यह मक्‍कारी प्रतीत हो सकती है । ऐसा नहीं है कि यह व्‍यक्ति जो कहता है उसे कर दिखाता है, बल्कि यह कहते समय अपने कहे वाक्‍य की जिम्‍मेदारी समझता है और बाद में उसे पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास करता है । कुछ संयोग भी ऐसा है कि दूसरों के बारे में भी यदि कुछ कह दिया तो घटनाक्रम ऐसा मोड़ लेता है कि अभी तक वह सही होता गया है । उसकी एक मिसाल है वंशवाद का नाश । कांग्रेस के वंशवाद के खुलासे के बाद जो सबसे रोचक विकास हुआ है वह यह कि कल तक नेहरू परिवार अपने को राजवंश समझता था। उसके कुत्‍ते तक भौकते थे तो उससे दर्शन निकाल लिया जाता था।

मोदी के मंच पर आने से ठीक पहले तक हालत यह थी बेटा, बेटी, दामाद, धवते सभी लाइन लगाए तैयार थे कि किसके न रहने या नालायक सिद्ध होने पर कौन मुकुट धारण करेगा। उसके ठीक बाद से नेहरूवंश के किसी सदस्‍य की बात कोई सुनने को तैयार नहीं। थकान, खीझ, गुस्‍सा, बदजबानी जो सभी पस्‍ती के प्रकट लक्षण हैं वह बढ़ती जा रही है। खुराफात के तरीके तक चन्‍द दिनों तक भरोसा दिलाने के बाद बेकार पड़ जा रहे हैं। पहली बार कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने मुंह खाेला और कहा नि राहुल में नेतृत्‍व की क्षमता नहीं है, उन्‍हें जनता सुनती नहीं है, अपितु एक दो ने यह भी कहा कि वंश परंपरा के कारण पार्टी का नुकसान हुआ है।

पहली बार उत्‍तर प्रदेश के यादव परिवार का काला कारोबार इतने बड़े पैमाने पर उजागर हुआ है और जिस बात का सन्‍देह किया जाता था उसके प्रमाण आए हैं । विगत चुनाव में बिहार में भाजपा की सैद्धान्तिक जीत, और नीतीश कुमार की भाजपा के समक्ष सैद्धान्तिक और लालू के सामने चुनावी पराजय के साथ ही लालू वंशवाद अपने आपराधिक रिश्‍तों के साथ उजागर हुआ है। उल्‍टी गिनती शुरू इसी से होती है।पश्चिम वंग में ‘सेक्‍युलर अपराध तन्‍त्र के खुलासे के साथ वहां भाजपा के पक्ष में जनमानस का इतना झुकाव हुआ है जो पहले नहीं सोचा जा सकता था। और इस समस्‍त व्‍यापार में मोदी की न तो कोई सक्रियता है, न हीं कोई परोक्ष हाथ। वह अपना काम करते रहे। वह जैसा भी है, पर इसमें सन्‍देह नहीं कि अपने वादों को पूरा करने की दिशा में जब कि दूसरे दल और संगठन अपनी पूरी ताकत इस में लगाए रहे कि वे अपने काम में सफल न हों ।

उनकी सफलता देश के हित में तो होगी, परन्‍तु उनके अपने हित में न होगी। यह चेतना उन सभी की और उन फुटकर आलोेचकों की भी है जिन्‍हें आज तक मोदी में कोई गुण दिखाई ही न दिया, उनकी बेचैनी को बढ़ाती है। झुंझलाहट बढ़ती जाती है और इतने छोटे मुद्दों काे तूल देकर उनको देश की सबसे दुर्भाग्‍यपूर्ण घटना बनाने का प्रयत्‍न करते हैं जब कि सामान्‍य जनों को यह प्रयास इसलिए मनोरंजक लगता है कि इतने दिन से परिश्रम करने के बाद इतनी छोटी कमी निकाल पाए । तब तो इनके अनुसार भी बाकी सब ठीक ठाक ही है।

एक व्‍यक्तिगत घटना याद आती है । मैंने अपनी पुस्‍तक हड़प्‍पा सभ्‍यता और वैदिक साहित्‍य में अपने मार्क्‍सवादी इतिहासकारों की कमियों का निर्ममता पूर्वक उल्‍लेख किया था। मुझे भी लगता रहा कि इतनी निष्‍ठुरता की जगह कुछ अधिक शालीनता से वही आलोचना की होती तो अधिक अच्‍छा रहता। आर एस शर्मा और रोमिला थापर दोनों की उस समय तक मैं व्‍यक्तिगत रूप में बहुत आदर करता था परन्‍तु विचार के स्‍तर पर कभी किसी का लिहाज नहीं कर पाता। मैंने यह बताते हुए कि इसमें आपकी आलोचना की गई है पुस्‍तक का विमाचन उन्‍हीं से कराने का प्रस्‍ताव रखा था और कहा था, मैंने जिस निर्ममता से आपकी आलोचना की है उसी तरह आप इसकी गलतियों को उजागर करते हुए अपना भाषण दें। कुछ लोगों के बरगलाने पर वह बाद में विमोचन से पीछे हट गए। वह भी जब कार्ड छप गए थे और समय तीन दिन का रह गया था। खैर, उनको पुस्‍तक का पहला खंड ही दे पाया था, दूसरा अभी बाइंडर के यहां से आया नहीं था। बीच में वह खिन्‍न भी रहे । पांच छह महीने बाद उनसे अनुमति लेकर मैं पुस्‍तक का दूसरा खंड उनके पूर्वांचल अपार्टमेंट्स के फ्लैट पर देने गया और पहले खंड पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्‍होंने कहा, ”हां, और सब तो ठीक है लेकिन भई, आजकल स्‍थान नामों का उच्‍चारण वहां के लोग जैसा बोलते हैं वही लिखने का चलन है। नाम है मोहें जोदड़ो और तुमने लिखा है माेहनजाेदड़ो । मैंने मुस्‍कराते हुए कहा अगले संस्‍करण में सुधार कर दूंगा ओर मन ही मन सोचा यदि पूरी पुस्‍तक में यही सबसे बड़ी और एकमात्र गलती दिखाई दी तो पुस्‍तक शर्मा जी को भी निर्दोष लगती है।

छोटी चूकों को तूल देने वाले नहीं जानते कि इसका सन्‍देश उनके इरादे से ठीक उल्‍टा जा रहा है।

पढ़ा लिखा मूर्ख अनपढ़ मूर्खों से अधिक बड़ा मूर्ख होता है क्‍योंकि वह अपनी अक्‍ल से काम नहीं लेता, दूसरों की अक्‍ल से काम लेता है जिनके विचारों को वह जानता है, उनके पीछे छिपे इरादों को भले न जानता हो। अनपढ़ आदमी उसका जितना भी दिमाग है, थोड़ा ही सही, उसी से सोचने को बाध्‍य होता है, इसलिए दूसरे मामलों में शिक्षित लोगों से भी पीछे रह जाने के बावजूद वह उन प्रलोभनों से कम प्रभावित होता है जिसका शिक्षित व्‍यक्ति शिकार हो जाता है। कारण यह नहीं कि उसका नैतिक स्‍तर ऊंचा होता है अपितु यह कि वे प्रलोभन उस तक पहुंच नहीं पाते । उसके नाम पर भेजे जाते है तो भी बीच के चालाक लोग, जो पढ़े लिखे भी होते हैं, उसे कई तरीकों से झपट लेते थे इसलिए उन कम अधपढ़ और अनपढ़ लोगों तक य‍दि कुछ पहुंचता था तो वह कई गुना बड़ी लायबिलिटी, दुर्वह बोझ बन जाता था जिसमें आत्‍मग्‍लानि और आत्‍महत्‍या आत्‍मसम्‍मान बचाने का सबसे आसान तरीका लगता था।

मैं जिस क्षेत्र की बात कर रहा हूं वह मेरा नहीं है। उसमें प्रवेश नहीं करना चाहिए। परन्‍तुु इसका संबंध जिन्‍दगी से है इसलिए जिसने अर्थशास्‍त्र और बित्‍त प्रधन्‍धन जैसे भारी भरकम शब्‍दों को नहीं सुना है उसे भी इस पर सोचना और अपनी राय बनानी पड़ती है जो कामचलाऊ कही जा सकती है। मैं कामचलाऊ बुद्धि के बल पर सारा लेखन करता आया हूं नहीं कोई इतने विषयों पर किसानों जैसे आत्‍मविश्‍वास से बात कैसे कर सकता है।

मेरे एक मित्र ने पीडि़त स्‍वर में लिखा इतने हजार या लाख करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया। दूसरे ने कहा कि यह तो हमारे राष्‍ट्रीय बजट से या हो सकता है सकल उत्‍पाद कहा हो, पढ़ते ही भूल जाता हूं, ऐसी तो याददाश्‍त पाई है, अधिक है। इसे एक ने रघुराम राजन की दृढ़ता और अर्थव्‍यवस्‍था को सुधारने के संकल्‍प से जोड़ दिया। ये सभी लोग मुझ जैस ढाई अक्षर के ही विद्वान थे और बीच में नई सरकार ने जाने कितने का नया कर्ज जारी भी कर दिया। एक बै‍ंक के पुराने तजुर्बेकार ने अपना निजी उद्योग खड़ा करने के लिए दिए गए इन कर्जों पर टिप्‍पणी की कि यह अपनी वाह वाह क्‍यों करते हैं। ऐसे ऋण पहले भी दिए जाते रहे हैं और इससे कर्जमाफी की नौबतें ही आई हैंं।

सोचिए समस्‍या कितनी गंभीर है। अर्थशास्‍त्र का वह स्‍तर जिस पर रघुराजन जैसे
अमेरिकी अनिवासी भारतीय की उदार सेवा है, मोदी जैसे चाय वाले के अर्थशास्‍त्र का दखल है जो गिनती तो जानता है, पहाड़ा जानता होगा यह उसको रियायत देते हुए सोचा जा सकता है, परन्‍तु वह अलजब्रा और ट्रिगनामेट्री तो कतई न जानता होगा। टक्‍कर एक अनाड़ी और सनाड़ी जिसे नशाड़ी या ज्ञानांध भी कह सकते हैं, के बीच है।

क्‍या आपने नोट किया क‍ि आज कल सारे समाचार दूसरे अपराधों से भरे रहते हैं, आत्‍महत्‍या तक के मामले प्रेमी के दगा, कैरियर में बाधा, प्रेमिका के छल और धन दौलत के दूसरे फसादों से जुड़े पढ़ने को मिलते हैं, किसानों की आत्‍महत्‍या के नहीं मिलते हैं।

क्‍या आपको पता है, सच तो यह है कि मुझे भी पता नहीं है, मैं भी आपके ज्ञान भरोसे बैठा हूं कि क्‍या यह समाचार माध्‍यमों की फितरत है और वे आत्‍महत्‍या की खबरों को दबा कर मोदी के इस दावे को सच कर रहे हैं कि अच्‍छे दिन आ गए, और संतुलन बनाए रखने के लिए पहले पन्‍ने से ले कर खेल के पन्‍ने तक उन्‍हें गाली दे रहे हैं, या सचमुच ऐसा हुआ है।

यदि ऐसा हुआ है तो क्‍या इसमें उन कर्जमाफियों की भूभिका नहीं है। राजन की दलील थी, देखिए मैं मुुफ्त का वकील हूं और जो सूचना मुझ अपने मुअक्किल से नहीं मिली है उसकी भी अपनी तरह से व्‍याख्‍या करके उसे बचाने का प्रयत्‍न करूंगा, इसलिए आप बताएं कि कर्ज वसूली करके बैंकों को जिलाने और अर्थव्‍यवस्‍था को आगे बढ़ाने का फैसला अधिक व्‍यावहारिक था या यह कि जिनसे कर्ज की वसूली की जा रही है उन बेचारों तक उसका एक अंश पहुंचा। बाकी बीच के लोग खा गए जिसमें बैंक के कर्मचारी, उनके जमानतदार आदि सम्मिलित थे और उस बेचारे ने समझा मुफत का माल है ले लो जो भी मिला उसकाे मुफ्त का माल समझ कर खा पी गया और अब देनदारी के समय उसको उसको उस पूरी रकम काे व्‍याज सहित भरना था जिसका आधा या तिहाई तो दूसरे खा गए। यह कर्ज तो महाजन के कर्ज से भी भारी पड़ा। कर्ज लेते समय वह तरंग मेंं था कि मैंने अफसरों और दलालों को पटा कर बाजी मार ली। देते समय उसे अपने ही परिवार और परिजनों के सामने अपमानित होना पड़ रहा था जिनसे उसने तड़ी बघारी थी। आत्‍महत्‍या के असंख्‍य समाचारों में इस बात पर कभी ध्‍यान नहीं दिया गया कि परिवार का प्रधान या वह व्‍यक्ति आत्‍महत्‍या करता है, जिसके नाम से कर्ज लिया गया था, उसके परिवार के दूसरे सदस्‍य नहीं। अर्थात् निर्धनता जैसी भी रही हो, ऐसी न थी कि जीवनयापन संभव न हो। उन्‍हीं परिस्थितियों में दूसरे जीवित रहे, वह भी रह सकता था।

मोदी काे जमीनी सचाई का पता है। उसने देखा, यह आर्थिक अभाव या दुरवस्‍था की मृत्‍यु नहीं है, आत्‍मग्‍लानि और अपनी मूर्खता से मोहभंग की देन है। पूरा पैसा तो उसने लिया ही नहीं। उस तक पहुंचा ही नहीं।

क्‍या करें । उसने सोचा इनको बचाएं। इनका कसूर नहीं है। कसूरवारों को हम पकड़ नहीं सकते, न उनसे वसूली की जा सकती है।

कर्जमाफी पहले भी की जाती रही होगी, पर वह इसलिए कि वोट लेना था। रिश्‍वत खाने वाले रिश्‍वत देने के तरीके ईजाद कर लेते हैं।

मोदी की पकड़ जनता की नब्‍ज तक है। उसने पहले यह सुनिश्चित किया कि जो धन जिसके नाम से है उस तक पहुंचे और इसके लिए लोगों के एक पैसा न रहते हुए भी अपना खाता खोलने के लिए दो लाख की बीमा राशि का आश्‍वासन दे कर इतने अधिक लोगों के खोते खुलवाए जो विश्‍व में एक कीर्तिमान है। परन्‍तु यह कीर्तिमान बनाने के लिए नहीं था, बिचौलियों के चंगुल से भुक्‍तभोगियों को बचाने का अपूर्व विजन था जो दुनिया के किसी अर्थशास्‍त्री या तन्‍त्र ने न देखा होगा। (यह मैं अपनी ओर से गढ़ कर कह रहा हूं, आप प्रमाण दे कर इसे गलत साबित करेंगे तो आपकी बात मान लूंगा। )

और दूसरा काम यह कि कर्ज उन्‍हें दो जो अपने पांवों पर खड़ा होना चाहते हैं। जो कोई रोजगार खड़ा करना चाहते हैं। एक अपना कारोबार करेगा तो सहायता के लिए एक दो को और आगे बढ़ेगा तो बहुतों को काम पर लगाएगा। बेरोजगारी तो इसी तरह कम होगी। उसकी योग्‍यता आदि के आधार पर उसका चयन किया जाएगा।

कहें पहले के कर्ज समाज को सरकार का परावलंबी बनाने के लिए थे, कर्ज लेने वाले को फांस कर आत्‍महत्‍या के कगार पर पहुंचा देते थे जिसे झेल न पाने के कारण उनमें से बहुतेरे आत्‍महत्‍या कर लेते थे। मोदी ने पहले यह व्‍यवस्‍था की जिसका प्राप्‍य है उस तक पहुंचे । यह विश्‍व का अपूर्व प्रयोग है। आप इस मोदी को नहीं समझ पाते क्‍योंकि अाप उससे ही नफरत नहीं करते अपने आप से, अपने समाज से, इसके भविष्‍य से नफरत करते हैं। नफरत करने वालों की प्राणशक्ति नफरत पर ही जाया हो जाती है। वे अधिक समय तक टिके नहीं रह सकते।

मुझे लगता है, और तब तक लगता रहेगा जब तक आप अपने विवेचन से गलत नहीं सिद्ध कर देंगे कि मोदी का अर्थशास्‍त्र बोध राजन के अथशास्‍त्र ज्ञान से बहुत आगे है।